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'तेरी हस्ती भी है इक चीज़, जवानी ही नहीं'

कैफ़ी आज़मी के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी कविता 'औरत' का अंश.

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फोटो - thelallantop

आज कैफ़ी आज़मी (14 जनवरी 1919 - 10 मई 2002) का जन्मदिन है. एक कविता रोज़ में आज पढ़िए उनकी ये कविता-

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औरत

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है पांव जिस राह में रखती है फिसल जाती है बन के सीमाब हर इक ज़र्फ़ में ढल जाती है ज़ीस्त के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझे उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे ज़िंदगी जोहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे तोड़ कर रस्म का बुत बंद-ए-क़दामत से निकल ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल नफ़्स के खींचे हुए हल्क़ा-ए-अज़्मत से निकल क़ैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे
शब्दों के अर्थ-

हरारत -तपिश, सीमाब-पारा, ज़र्फ़- पात्र, ज़ीस्त- जीवन, आहनी- लोहा, जोहद- संघर्ष, निकहत-महक, ख़म-ए-गेसू-बालों का घुमाव, रविश-रंग-ढंग, गोशे-गोशे-कोने-कोने, क़ज़ा-मृत्यु, क़हर-प्रलय, विनाश, तारीख़-इतिहास, अश्क-फ़िशानी-आंसू बहाना, उनवान-शीर्षक, बंद-ए-क़दामत-प्राचीनता के बन्धन, ज़ोफ़-ए-इशरत-ऐश्वर्य की दुर्बलता, वहम-ए-नज़ाकत-कोमलता का भ्रम, नफ़्स-इच्छा, कामना, हल्क़ा-ए-अज़्मत-महानता का घेरा, राह का ख़ार-कांटा, गुल-फूल


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