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MP पटवारी परीक्षा में झोल की खबरें तो खूब सुन लीं, अब 'पटवारी' होता क्या है वो भी जान लीजिए

पटवारी व्यवस्था लाने में मुग़लों का हाथ नहीं था क्योंकि उनके आने से पहले से ये सिस्टम चला आ रहा है.

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मध्यप्रदेश में पटवारी परीक्षा को लेकर सवाल उठ रहे हैं.

पटवारी. हाल ही में ये शब्द आपके कानों तक जरूर पहुंचा होगा. जनता पटवारी भरने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही है और मध्यप्रदेश सरकार पर आरोप है कि उसने जो परीक्षा कराई, उसमें भारी अनियमितताएं थीं. सो अब परीक्षा पर रोक लगी है, जांच होगी. लड़कों ने (और लड़कियों ने भी) पूरे सूबे के अलग-अलग शहरों में जमकर प्रदर्शन भी किया था.

 लेकिन क्या आप जानते हैं कि असल में ये पटवारी होती क्या बला है इस नौकरी को पाने की होड़ आखिर क्यों है? अगर आप जानते हैं कि पटवारी क्या होता है, तब भी पढ़ जाइए क्योंकि हम ‘गांव में राजस्व/रेवेन्यू का मुलाज़िम होता है’ से आगे और पीछे की बात भी बताने वाले हैं.

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भारत में पटवार सिस्टम की शुरुआत शेर शाह सूरी के समय में की गई थी. (तस्वीर: विकिपीडिया)

पटवारियों की परंपरा बहुत पुरानी है. ऐसा कहा जाता है कि भारत में शेर शाह सूरी के समय में 'पटवार' सिस्टम को लाया गया था. इनका मुख्य काम लेखा-जोखा रखने का होता था. इनमें एक गांव में पैदा हुई फसलों और जमीन से जुड़ी जानकारी शामिल थी. ये गांव के लोगों से टैक्स और सिंचाई शुल्क भी वसूलते थे. शेर शाह सूरी के बाद मुगल काल में भी पटवारी की भूमिका काफी अहम मानी जाती थी. अकबर के दरबार में बकायदा एक मंत्रीपद हुआ करता था. 

अंग्रेज़ शासन में भी पटवारी ज़मीन के नाप वगैरह का काम देखते रहे. और इसीलिए आज के समय में भी पटवारी का दबदबा कुछ कम नहीं हुआ है. गांवों में इज्जत तो है ही, जरूरी कामों के लिए भी गांव के लोग पटवारी पर निर्भर होते हैं. MP के अलावा पंजाब, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में भी इन्हें पटवारी कहा जाता है. यूपी, उत्तराखंड में लेखपाल और गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र में इनको तलाटी कहा जाता है.

पहाड़ की पटवारी पुलिस

ऐसा नहीं है कि पटवारियों ने ज़मीन नापने के अलावा कुछ नहीं किया. उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों में 19 वीं सदी के मध्य से लेकर 2022 तक, माने तकरीबन डेढ़ सौ साल तक पटवारी कानून व्यवस्था संभालते रहे. इस व्यवस्था को कहा जाता था पटवारी पुलिस. पहाड़ों के दूरस्थ गावों तक सिविल पुलिस (थाने/चौकी/दरोगा वाली पुलिस) तैनात करना अंग्रेज़ों को दुरूह काम लगा. तो उन्होंने बड़ी बसाहटों में तो थाने बनाए, लेकिन दूर के गावों में पटवारियों को ही पुलिस की ज़िम्मेदारी दे दी. ये व्यवस्था संयुक्त प्रांत, फिर उत्तर प्रदेश और अंततः उत्तराखंड बनने के बाद भी जारी रही. कई इलाके ऐसे थे, जहां पक्की सड़क से लगा इलाका सिविल पुलिस के पास था, और सड़क से ऊपर या नीचे बसे गांव पटवारी पुलिस के पास. चूंकि पहाड़ों में जनसंख्या बेहद कम थी, तो समाज में लगभग सभी लोग एक दूसरे को अच्छे से जानते थे. ऐसे में अपराध कम थे. और होते भी, तो उसका संज्ञान पटवारी पुलिस ही ले लेती और आगे अदालत तक कानूनी कार्रवाई करती.

लेकिन समय के साथ पहाड़ों में अपराध बढ़े और पटवारी पुलिस की व्यवस्था को खत्म करने की मांग हुई. 2018 में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए नैनीताल हाईकोर्ट ने पटवारी पुलिस की व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने का हुक्म दिया था. लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. 2022 में अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद पटवारी पुलिस की खूब आलोचना हुई. तब जाकर उत्तराखंड सरकार ने इस व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करने का फैसला लिया. जघन्य अपराधों के मामले सिविल पुलिस को ही देने का फैसला हुआ चरणबद्ध तरीके से थाने चौकी आदि खोलने का काम शुरू हुआ. 

Patwari absent from his office for one month, farmers are cutting | एक माह  से पटवारी अपने दफ्तर से नदारद, किसान काट रहे हैं चक्कर | Patrika News
पटवारी शब्द मध्यप्रदेश, पंजाब, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में अधिक प्रचलित है. (फोटो: आजतक)

खैर, लौटते हैं सामान्य पटवारियों पर. जो राजस्व अमले में होते हैं. ऐसा कहा जाता है कि गांव के लोगों के लिए पटवारी सरकार का सबसे करीबी नुमाइंदा होता है. पटवारी के पास सरकार के लिए डेटा तैयार करने की जिम्मेदारी भी होती है. इस डेटा के जरिए ही सरकार अपनी योजनाओं को गांवों तक पहुंचा पाती है. किस गांव में कितनी जमीन है, कौन सी जमीन कौन बेच रहा है, कौन खरीद रहा है, जमीन का ट्रांसफर कहां हुआ, खेत का नक्शा बनाना, फसल की पैदावार मालूम करना - इन सब चीजों का रिकॉर्ड पटवारी के पास होता है और वो ब्लॉक स्तर पर बैठे तहसीलदार को रिपोर्ट करता है. मान लीजिए कि किसी आपदा में फसल को नुकसान पहुंचा, तो उस स्थिति में सरकार उसी रिपोर्ट को मानती है, जो पटवारी तैयार करता है.

मध्यप्रदेश में बवाल क्यों है?

शॉर्ट में तो हम आपको ये बता ही चुके हैं. लॉन्ग आंसर ये है. मध्यप्रदेश में हाल ही में हुई पटवारी भर्ती परीक्षा. रिजल्ट में 10 में से 7 टॉपर्स एक ही एग्जाम सेंटर से मिले. वो सेंटर था ग्वालियर का NRI कॉलेज. इस बात के सामने आने के बाद से ही छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं. और प्रदर्शन में दो धाराएं हैं. एक धारा उन लोगों की, जो सिलेक्ट हुए. ये जल्दी ज्वॉइनिंग की मांग कर रहे हैं. और बाकी लोग इस परीक्षा को रद्द कराने को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं.

पटवारी परीक्षा के रिजल्ट को लेकर छात्र लगातार सवाल उठा रहे है.

दरअसल मध्यप्रदेश में लगभग 23 हजार पंचायतें हैं, ऐसे में एक हर पंचायत में एक पटवारी का होना जरूरी है, लेकिन यहां पटवारियों की संख्या 18000 के आसपास ही है. इसी के चलते मध्यप्रदेश सरकार ने इस पद पर वेकेंसी निकाली थी. 

हर कोई पटवारी क्यों बनना चाहता है?

चिल. हम जानते हैं कि हर कोई नहीं बनना चाहता. लेकिन बड़ी संख्या में अभ्यर्थियों ने परीक्षा दी. और ये तथ्य है कि पटवारी बनने की होड़ तो है ही. शॉर्ट आंसर - बेरोज़गारी. फिर सरकारी नौकरी या संविदा पद, जिसके सरकारी में तब्दील होने की उम्मीद हो, उसे लेकर युवाओं में क्रेज़ रहता ही है. फिर रुतबे वाली बात भी है. कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि छोटे-बड़े कामों के लिए पटवारी लोगों से पैसे भी ऐंठ लेते हैं, क्योंकि उनके बिना बात या फाइल ऊपर जाती नहीं. मध्यप्रदेश में लोकायुक्त की टीम ने कई पटवारियों को रंगे हाथों पकड़ा है. ऐसे भी कई पटवारी पकड़े गए हैं जिनकी तनख्वा तो 20 हजार है लेकिन उनके पास करोड़ों की संपत्ति निकली. 

अब वजह जो भी हो, पटवारी परीक्षा में लाखों छात्रों की भीड़ इसकी लोकप्रियता को जगजाहिर करती है. बाकी आप बताइए आपका जब किसी पटवारी से काम पड़ा तो एक्सपीरिएंस कैसा रहा.