वायरल पोस्ट
एक पोस्ट सोशल मिडिया पर काफी वायरल हो रही है. पोस्ट में लिखा है -एकादशी का व्रत रखोगे तो कैंसर कभी नहीं होगा. अगर कोई व्यक्ति साल भर में कम से कम 20 दिन 10 घंटे बिना खाए-पिए रहता है, उसे कैंसर होने की संभावना 90% कम होती है. क्यूंकि जब शरीर भूखा होता है तो शरीर उन सेल्स को नष्ट करने लगता है जिनसे कैंसर होता है.

रुकिए अभी ये संदेश समाप्त नहीं हुआ. क्यूंकि इसके अंत में जो लिखा है वो सबसे ज़्यादा शॉकिंग है. लिखा है कि –
इस सोच को इस वर्ष का चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला है.और फिर लगाया गया है जयकार, अपने मुहं मियां मिट्ठू वाला –
‘सनातन धर्म’ की वैज्ञानिकता का जवाब नहीं.इस पोस्ट के साथ दो लोगों की फोटो भी शेयर की गई है.
पड़ताल
# पोस्ट में दोनों व्यक्तियों की फोटो और उनके नाम (जेम्स पी एलिसन और तासुको होंजो) बिलकुल सही-सही दिए हैं.# ये भी बिलकुल सही है कि फोटो में दिखाए गए दोनों व्यक्तियों को ही 2018 का नोबेल प्राइज मिलना तय हुआ है. और,
# इस बात में भी एक प्रतिशत झूठ नहीं कि प्राइज ‘चिकित्सा’ के ही फ़ील्ड में मिला है. लेकिन,
# इसके अलावा सारी बातें पूरी तरह झूठ हैं जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है.
सच्चाई
तो मित्रो, सच्चाई ये है कि अबकी बार का चिकित्सा का नोबेल एकादशी के व्रत के लिए नहीं, इम्यून चेकपॉइंट थ्योरी के लिए दिया गया है.क्या है इम्यून चेकपॉइंट थ्योरी?
आलथी-पालथी मारकर बैठ जाइए. इंट्रेस्टिंग स्टोरी सुनाते हैं.देखिए, यदि हमारे शरीर को एक देश और उस शरीर में मौजूद खरबों कोशिकाओं को उस देश के नागरिक माना जाए तो हर कोशिका के पास अपनी नागरिक होने की पहचान है. आधार-कार्ड सरीखी.

अब कोशिकाओं का ये आधार-कार्ड कुछ ख़ास अणुओं से बना होता है जो हर कोशिका की सतह पर मौजूद रहते हैं.
फिर इस शरीर नामक देश के कुछ कोशिकाएं नामक नागरिक गुमराह हो जाते हैं. वे बेतहाशा दूसरों का हक़ मार कर बढ़ने लगती हैं. ये गुमराह नागरिक ही दरअसल कैंसर कोशिकाएं हैं. अब जब गुमराह नागरिक होंगे तो पुलिस भी होगी. तो शरीर की पुलिस का काम इन भटके हुए गुमराह नागरिकों को मारकर देश की सामान्य मुख्यधारा की जनता को बचाना होता है.
इन कैंसर कोशिकाओं यानी भटके हुए नागरिकों की पहचान सामान्य कोशिकाओं से अलग होती हैं. गोया इनका आधार कार्ड गोल शेप में हो जाता होगा. बस पुलिस वाले दूर से ही इन्हें पकड़ लेते हैं. और एक बार ये केंसर सेल पकड़े गए तो, समझो मरे.
लेकिन फिर कैंसर सेल श्यानपट्टी करने लगते हैं, अपनी पहचान बदलने या छुपाने लगते हैं. पुलिस हो जाती है कन्फ्यूज़ और इन्हें मुख्यधारा में ही समझकर इनके खिलाफ एक्शन नहीं लेती. ये बढ़ते चले जाते हैं और एक दिन जिस थाली में खाते हैं उसी थाली में छेद कर देते हैं. मतलब जिस शरीर में रहते हैं उसी को नष्ट कर देते हैं.

लेकिन फिर आए हमारे नोबेल पुरस्कार विजेता जेम्स पी एलिसन और तासुको होंजो. जिन्होंने इन ठग्गू पहचानपत्रों के खिलाफ़ कुछ ऐसे रैपर बनाये कि पुलिसवालों को ये भटका न सकें. नतीजन अब जब अराजक तत्त्वों की पुलिस वालों से मुलाक़ात हुई, तो पुलिस कन्फ्यूज़ नहीं हुई. उसने ईमानदारी से कैंसर कोशिकाओं को नष्ट कर डाला.
रिज़ल्ट
तो हमारी पड़ताल में ये पता लगा कि इस पोस्ट में किया गया दावा झूठा और मिसलीडिंग है. यूं सोशल मीडिया के लिए भी एक इम्यून चेकपॉइंट थ्योरी की ज़रूरत है और हमारी पड़ताल को नोबेल मिले न मिले लेकिन हम इन ठग्गू पहचानपत्रों के खिलाफ़ पड़ताल नाम के ऐसे ही रेपर बनाते रहेंगे.अंततः
आज जो हमने ‘पड़ताल’ में बताया वो ही हमने लगभग 4 महीने पहले, यानी 02 अक्टूबर, 2018 को ‘आसान भाषा में’ समझाया था.ये पूरी पोस्ट आप नीचे के लिंक में क्लिक करके पढ़ सकते हैं.
पढ़ें: शरीर के पुलिस-चोर-एनकाउंटर वाले खेल ने अबकी मेडिकल में नोबेल दिलवाया है!
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