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नसीरुद्दीन शाह और उनकी बेटी की ये कहानी दिल में बस जाने वाली है

नसीर के बयान के बाद उनकी बेटी को लेकर भद्दी बातें सोशल मीडिया पर लिखी गईं.

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नसीर प्रोपेगैंडा के आगे नहीं झुके. इसलिए अब इस तरह की सोशल मीडिया पोस्ट्स से उनके परिवार को निशाना बनाया जा रहा है.
नसीरुद्दीन शाह ने वो कहने की हिम्मत की, जो उनके पेशे के लोग कहने से कतराते हैं. क्योंकि विवाद जो है, मार्केट के लिए ठीक नहीं होता. नसीर ने जो कहा, उसमें पर्याप्त 'मसाला' था. बावजूद इसके, अफवाहबाज़ों ने बयान गढ़-गढ़कर नसीर को बदनाम किया. नसीर नहीं टूटे. तो अब उन्हें परेशान करने के लिए नए सिरे से कोशिश चल रही है. इस बार उनके परिवार को निशाना बनाया जा रहा है. सोशल मीडिया पर उनकी बेटी और एक्ट्रेस हीबा शाह को लेकर भद्दे मैसेज चल रहे हैं. देखिएः -
तकरीबन 1000 शेयर बताते हैं कि ये पोस्ट कितने व्यापक तौर पर इंटरनेट पर चलीं.
तकरीबन 1000 शेयर बताते हैं कि ये पोस्ट कितने व्यापक तौर पर इंटरनेट पर चलीं.

कमोबेश सभी फेसबुक पोस्ट में ये लाइन लिखी है - "ये है चच्चा नसीरुद्दीन की लड़की हीबा शाह जिसकी सुरक्षा का डर चचा को सता रहा है..." और तीन इमोजी बने हैं. जैसे दिमाग पर ज़ोर डालकर कुछ सोच रहे हों. और इस सोच में ही इस मैसेज का भद्दापन है. कि 'ऐसी कौनसी सुंदर है नसीर की बेटी, कि जिसकी सुरक्षा का डर उन्हें लगे.' एक और मैसेज चल रहा है, जिसमें नसीरुद्दीन की पहली शादी के बारे में बातें लिखी हैं. इस मैसेज का भी वही भाव है, कि 'हीबा इतनी सुंदर नहीं, कि उन्हें खतरा हो.'
नसीर ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था -
''ये जहर फैल चुका है और दोबारा इस जिन्न को बोतल में बंद करना बड़ा मुश्किल होगा. खुली छूट मिल गई है कानून को अपने हाथों में लेने की. कई इलाकों में हम लोग देख रहे हैं कि एक गाय की मौत को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, एक पुलिस ऑफिसर की मौत के बनिस्बत. मुझे फिक्र होती है अपनी औलाद के बारे में सोचकर. क्योंकि उनका मजहब ही नहीं है. मजहबी तालीम मुझे मिली थी, रत्ना (रत्ना पाठक शाह-अभिनेत्री और नसीर की पत्नी) को बिलकुल नहीं मिली थी, वो एक लिबरल परिवार से आती हैं. हमने अपने बच्चों को मजहबी तालीम बिलकुल नहीं दी. क्योंकि मेरा ये मानना है कि अच्छाई और बुराई का मजहब से कुछ लेना-देना नहीं है. अच्छाई और बुराई के बारे में जरूर उनको सिखाया. हमारे जो बिलीफ हैं, दुनिया के बारे में वो हमने उन्हें सिखाए. कुरान-शरीफ की एक-आध आयत याद ज़रूर करवाई क्योंकि मेरा मानना है उससे तलफ्फुज़ सुधरता है. उसके रियाज़ से. जिस तरह हिंदी का तलफ्फुज़ सुधरता है रामायण या महाभारत पढ़के. खुशकिस्मती से मैंने बचपन में अरबी पढ़ी थी इसलिए कुछ आयतें अब भी याद हैं. उसकी वजह से मेरे खयाल से मेरा तलफ्फुज़ है. तो फिक्र मुझे होती है अपने बच्चों के बारे में कि कल को उनको अगर भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिंदू हो या मुसलमान, तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा. इस बात की फिक्र होती है कि हालात जल्दी सुधरते तो मुझे नज़र नहीं आ रहे. इन बातों से मुझे डर नहीं लगता गुस्सा आता है. और मैं चाहता हूं कि राइट थिंकिंग इंसान को गुस्सा आना चाहिए डर नहीं लगना चाहिए हमें. हमारा घर है हमें कौन निकाल सकता है यहां से.''
नसीर यहां डर की नहीं, गुस्से की बात कर रहे हैं. हालांकि ये जरूरी नहीं है कि वो क्या बात कर रहे हैं. कुछ भी करें. इससे उनके ऊपर या उनके परिवार पर घटिया बातें करने का अधिकार किसी को नहीं मिल जाता.
लेकिन मौजूदा दौर में सोशल मीडिया पर सुनियोजित तरीके से भद्दा प्रोपगैंडा चलाने वाले कहां किसी इंसानियत में यकीन रखते हैं. जब तथ्यों से कुछ नहीं हो पाया तो इन लोगों ने अपनी पोस्ट और कमेंट्स में नसीर की बेटी हीबा को घसीट लिया. उनके लिए 'मर्द' और 'हिजड़ा' जैसे शब्द इस्तेमाल किए.
इस टेक्स्ट के साथ चल रही पोस्ट में जानकारी दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट से ली गई है.
इस टेक्स्ट के साथ चल रही पोस्ट में जानकारी दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट से ली गई है.

दो संजीदा और ईमानदार एक्टर्स के बारे में ऐसी ओछी बातें की जा रही हैं. और ये कौन लोग हैं जो ऐसी पोस्ट खुलेआम शेयर और लाइक भी कर रहे हैं. कमेंट कर रहे हैं. ये पोस्ट्स दक्षिणपंथी प्रोपगैंडा चलाने वाले पेजों से तो शेयर हुई ही हैं, कई आम लोगों ने भी इन्हें अपनी वॉल पर लगाया है. यही वो माहौल है, जिस पर नसीरुद्दीन शाह ने चिंता जताई थी.
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी से पूछो तो प्रोपेगैंडा का मतलब बताती है - एक ऐसा भ्रामक प्रचार, जो किसी राजनीतिक मकसद से किया जा रहा है. इस हिसाब से प्रोपगैंडा दुनिया में तब से रहा है, जब इसके लिए शब्द भी नहीं गढ़ा गया था. सरकार बनाने और चलाने के लिए प्रोपेगैंडा का इस्तेमाल आम बात है. अब तक इसके लिए झंडा, धर्म, इतिहास वगैरह काम आते थे. लेकिन नसीर और हीबा को निशाना बनाकर चलाया जा रहा प्रोपेगैंडा हैरान करता है. कि निजी हमले किस हद तक जाकर किए जा रहे हैं.
पेज के नाम पर ध्यान दीजिए. इन्हें लगता है कि ये देश के बड़े पैरोकार हैं. बसु की बात करते हैं.
पेज के नाम पर ध्यान दीजिए. इन्हें लगता है कि ये देश के बड़े पैरोकार हैं. बोस की बात करते हैं.

खैर, हम इन पोस्ट पर कोई विमर्श नहीं करेंगे. ये गलत इरादे वाली या घटिया कुप्रचार की श्रेणी में आने वाली बातें कोई स्वीकार्यता डिजर्व नहीं करती. ये बिलकुल निरर्थक हैं.
जो चीज हम स्वीकार करेंगे वो है नसीरुद्दीन और हीबा की अनूठी कहानी. इसमें एक और किरदार का ज़िक्र है, परवीन मुराद. वो नसीर का पहला प्यार थीं, और पहली बीवी. नसीर ने परवीन के बारे में हमेशा सहजता से सारी बातें स्वीकारी हैं और 2014 में आई अपनी आत्मकथा 'एंड देन वन डे' में भी लिखा है. इस किताब और नसीर के इंटरव्यूज़ के हवाले से हम परवीन, नसीर और हीबा की कहानी बता रहे हैं.

नसीर, परवीन और हीबा ~

परवीन पाकिस्तान से पहले पैदा हुई थीं. जब पाकिस्तान बना, तो उनके पिता का शहर कराची पाकिस्तान के हिस्से में आया. ऐसे परवीन पाकिस्तानी हो गईं. परवीन की मां अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाती थीं. कॉलेज की पढ़ाई के लिए परवीन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आईं. एएमयू में परवीन को मां तो मिली ही, साथ में मिले नसीरुद्दीन शाह, जो आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे थे. जब परवीन और नसीर मिले, तो परवीन 34 साल की थीं और नसीर 20 के.
परवीन की दो सौतेली बहनें थीं. सुरेखा और फूलमनी. सुरेखा को हम सुरेखा सीकरी के नाम से जानते हैं. सुरेखा ने एनएसडी से ड्रामा की पढ़ाई की है और एक्टिंग में खूब नाम कमाया है. 'तमस' और 'मम्मो' के लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का नेशनल अवॉर्ड मिल चुका है. हाल में उन्हें हमने बेहतरीन फिल्म 'बधाई हो' में दादी के रोल में देखा था. टीवी सीरियल 'बालिका वधू' में उन्होंने दादीसा का रोल किया था, जिससे वो घर-घर में जाना पहचाना चेहरा हो गई थीं.
बधाई हो में सुरेखा सीकरी. (फोटोःयूट्यूब स्क्रीनग्रैब)
'बधाई हो' में सुरेखा सीकरी.

नसीरुद्दीन अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि परवीन ने उन्हें एनएसडी जाने के लिए खूब प्रेरित किया. एएमयू में 'द चेयर्स' नाम के एक नाटक की रिहर्सल के दौरान दोनों की मुलाकात हुई. दोनों में दोस्ती हुई तो वक्त साथ बीतने लगा. परवीन नसीर के नाटकों में बैकस्टेज का काम करने लगीं. नसीर भी हॉस्टल से ज़्यादा परवीन के यहां रहने लगे. लेकिन ये ज़्यादा दिन चल नहीं सकता था. क्योंकि परवीन पाकिस्तानी नागरिक थीं. वो एएमयू से एक के बाद एक डिग्री कर रही थीं - साइंस, एजुकेशन और एमबीबीएस तक. ताकि उनका स्टूडेंट वीज़ा रिन्यू होता रहे और वो कुछ और दिन अपनी मां के साथ रह सकें. लेकिन फिर एएमयू में ऐसे कोर्स बचे नहीं, जिसमें परवीन दाखिला ले सकें.
परवीन अपने पिता के पास लौटना नहीं चाहती थीं. और अपनी मां के पास वो रह नहीं सकती थीं. पाकिस्तान से भारत की उन दिनों कुछ ज़्यादा ही खटपट थी. पूर्वी पाकिस्तान में आज़ादी की मांग ज़ोर पकड़ रही थी और पाकिस्तान को लगता था कि इसके पीछे भारत का हाथ है. तो पाकिस्तान में भारतीय नागरिक शक की नज़र से देखे जाते थे और वही ट्रीटमेंट हिंदुस्तान में पाकिस्तानी नागरिकों को मिलता था. सीआईडी वाले आकर एक दिन परवीन की मां के यहां दस्तक दे भी गए, कि परवीन वीज़ा खत्म होते ही लौट जाएं.
अब बस एक रास्ता था, जिससे परवीन भारत में रुक सकें - कि परवीन किसी भारतीय से शादी कर लें. नसीर परवीन से प्यार करते थे, और किसी न किसी दिन शादी भी करना ही चाहते थे. तो इसी बहाने कर ली. तारीख थी - 1 नवंबर, 1969. नसीर इसके बाद हॉस्टल छोड़कर परवीन की मां के यहां ही रहने लगे. यहीं नसीर और परवीन को एक बेटी हुई. इस बेटी का नाम था हीबा.
नसीर इस बच्चे के लिए तैयार नहीं थे. वो एनएसडी में पढ़ रहे थे, उन्हें मुंबई भी जाना था. एनएसडी के दूसरे साल तक नसीर परवीन और हीबा, दोनों से दूर हो गए. इसके बाद परवीन और हीबा लंदन चले गए. और फिर इरान जाकर बसे. नसीर से अलग होने के बाद परवीन की एक बेटी और हुई, बुशरा नाम से.
इधर नसीर की ज़िंदगी अपनी रफ्तार पर चलती रही. वो थिएटर कर रहे थे, फिल्मों में भी काम मिलने लगा. 1975 का साल उनके लिए खासा अच्छा रहा. इस साल श्याम बेनेगल की 'निशांत' आई. इसमें नसीर को रोल मिला और उनकी सराहना हुई. निशांत विजय तेंदुलकर के इसी नाम के नाटक पर आधारित थी. नाटक जब फिल्म बना, तो डायलॉग लिखने का काम आया सत्यदेव दूबे के हाथ. और सत्यदेव दूबे ने नसीर को सिर्फ उम्दा डायलॉग ही नहीं दिए. 1975 में सत्यदेव दूबे के नाटक के लिए हो रही एक थिएटर वर्कशॉप के दौरान ही नसीर रत्ना पाठक से पहली बार मिले. रत्ना तब एनएसडी में सेकंड इयर की स्टूडेंट थीं. इनके बीच प्यार पनपा और कुछ वक्त साथ रहने के बाद नसीर ने परवीन को तलाक दिया और रत्ना से शादी कर ली.
नसीर के बयान के बाद उन्हें दिसंबर 2018 में अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल का उद्घाटन करने से रोक दिया गया था. (फोटोःपीटीआई) नसीर के बयान के बाद उन्हें दिसंबर 2018 में अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल का उद्घाटन करने से रोक दिया गया था. (फोटोःपीटीआई)

उधर हीबा ईरान में बड़ी हो रही थीं, जहां परवीन लंदन के बाद बस गई थीं. नसीर और उनके बीच संपर्क न के बराबर था. स्टारडस्ट को दिए एक इंटरव्यू में नसीर ने कहा था कि वो 12 साल तक हीबा से नहीं मिले. फिर एक दिन परवीन ने उन्हें लिखा कि हीबा उनसे मिलना चाहती है. बाप-बेटी मिले और फिर हीबा हिंदुस्तान आ गईं. रत्ना ने हीबा को अपना लिया और फिर हीबा की आगे की ज़िंदगी यहीं बीती.
हीबा ने भी अपने पिता की तरह एनएसडी से पढ़ाई की और एक्टिंग में करियर बनाया. खूब थिएटर किया और फिल्में चुन-चुनकर. उनकी फिल्में अंतरालों पर आती हैं. 2002 में उनकी दो फिल्में आईं - 'हाथी का अंडा' और 'मैंगो स्कफल'. फिर 2005 में 'मिस्ड कॉल', 2007 में 'रवि गोज़ टू स्कूल', 2014 में 'क्यू', और 2017 में 'पूर्णा'. हाल में हमने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार माजिद मजीदी की भारत में बनी फिल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' में हीबा को देखा था. इन प्रोजेक्ट्स के बीच का वक्त हीबा ने स्टेज को दिया. नाटक लिखे, निर्देशित किए और एक्टिंग भी की. इस्मत चुग़ताई की तीन कहानियों पर आधारित नाटक 'इस्मत आपा के नाम' में हीबा, नसीरुद्दीन और रत्ना - तीनों ने साथ काम किया है. टीवी पर भी आने को हीबा ने कम ही हामी भरी है. उनका टीवी पर एक चर्चित किरदार था सीरियल 'बालिका वधू' में. ये दादीसा की युवावस्था का रोल था. ये दादीसा थीं सुरेखा सीकरी. मौसी का किरदार था, तो हीबा इस रोल के लिए तैयार हो गईं.
थिएटर को समर्पित एक पूरा परिवार. (फोटोःमेल टुडे)
थिएटर को समर्पित एक पूरा परिवार. (फोटोःमेल टुडे)

हीबा ने एक असाधारण ज़िंदगी जी है. अलग-अलग मुल्क से आने वाले उनके मां-बाप, अलीगढ़, लंदन और फिर ईरान में परवरिश. बिना पिता के. उन्होंने होश उस ईरान में संभाला जो खुद क्रांति के बाद अपनी राह तलाश रहा था, भटक रहा था. और फिर जैसे 14 साल की उम्र में, जब उन्होंने जड़ें पकड़ी ही थीं, उनकी ज़िंदगी को जैसे किसी ने रीबूट कर दिया. वो जब नसीर और रत्ना के साथ रहने आईं तब सिर्फ फारसी बोल सकती थीं और थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी समझती थीं. न नसीर, न रत्ना को फारसी आती थी. लेकिन हीबा ने इन सब चीज़ों को पीछे छोड़ा.
हीबा, आज हीबा हैं. महज़ नसीर या रत्ना की बेटी नहीं.
जितनी चीज़ों का अनुभव इंसान कर सकता है, उसमें प्यार सबसे सुंदर चीज़ है. प्यार से उपजा हर रिश्ता सुंदर होता है. हीबा और नसीरुद्दीन का रिश्ता भी ऐसा ही है. ऐसी चीज़ 'देश' के नाम पर चलाए जा रहे प्रोपेगैंडा का निशाना बनती है, तो अफसोस से ज़्यादा तरस आता है.
इति.
 
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