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संस्कारी लोग न पढ़ें कोठे वाली लड़की की ये 'अश्लील' कहानी

निखिल सचान की कहानी- मुगालतें, जिस पर बेस्ड नाटक को BHU के प्रोफेसर ने अश्लील कह होने न दिया

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प्रॉस्टीट्यूट बिफोर हर मिरर. जॉर्जो रूल्ट की पेंटिंग. साल 1906. मांस का लोथड़ा भर है क्या बाजार में बैठी औरत...
बीएचयू माने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी जिसका चल रहा है शताब्दी वर्ष समारोह! तो समारोह में ओंकार नाथ ऑडिटोरियम में एक नाटक चल रहा था. नाटक लिखा गया था निखिल सचान की कहानी मुगालतें पे. निखिल सचान वही नमक स्वादानुसार
वाले. जो कहानी बहुत चौकस लिखते हैं. सचान खुद्दै आइआइटी बीएचयू से पढ़े हैं. देसी लिखते हैं एकदम. खालिस.
निखिल सचान की फेसबुक डीपी
निखिल सचान की फेसबुक डीपी

खैर, हुआ ये कि 45 मिनट के नाटक के शुरू होने के 20 मिनट बाद ही डांस डिपार्टमेंट के मुखिया पीसी होम्बल स्टेज पे चढ़ पड़े और नाटक रुकवा दिया. कहिन कि 'ऐसे नाटक यहाँ नहीं हो सकते!' मालूम चला कि नाटक में एक प्रोसटिट्यूट की कहानी है. होम्बल साहब बिदक गए. अश्लील साहित्य से बहुत चिढ़ है. काफी सांस्कृतिक मालूम देते हैं. नाटक रुकवा दिया. जनता जो देखने आई थी नाटक, अब होम्बल साहब का मुंह देख रही थी.
तो बात इत्ती सी है कि एक भले मानुस की सांस्कृतिक सोच पर चोट होने से वहां बैठे हर मानुस को बिना नाटक देखे वापस जाना पड़ा. हाँ, कहानी अब भी है. कहानी, जो सालों पहले लिखी ही जा चुकी है. उसे होम्बल साहब कैसे मिटायेंगे? नमक स्वादानुसार की हर प्रति से 'मुगालतें' के पन्ने फाड़ देने के मुगालते में प्रोफ़ेसर साहब न ही रहें तो मेहरबानी होगी. लल्लन तो प्रोफ़ेसर साहब से ये भी कहता है कि तुम कितनी अश्लीलता रोकोगे? हर घर से अश्लीलता निकलेगी.
तो अब ऐसा है कि आइये, चाय का एक कप रखिये साथ में और चिपक जाइये स्क्रीन से. काहे से हम लेके आये हैं आपके लिए कहानी मुगालतें. सचान साहब ने लिख भेजी है और हम प्रोफ़ेसर साहब को आज थोड़ा सा और offend करना चाहते हैं. आ जाओ, बांचा जाए.
 

मुगालतें जब मैं कोठे पर लाई गई थी तो पहले-पहल मुझे लगता था कि कोठे पर लोग सिर्फ़ सेक्स ख़रीदने आते हैं। धीरे-धीरे मुझे समझ आया कि लोग यहाँ सेक्स के अलावा और भी बहोत कुछ ख़रीदने आते हैं। सेक्स सिर्फ़ उस ‘और भी बहोत कुछ’ तक पहुँचने का ज़रिया होता है। जैसे कि जब लोग परचून की दुकान पर जाते हैं तो हर बार एक लिफ़ाफा लेकर लौटते हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि वो दुकान पर लिफ़ाफा ख़रीदने आए थे। दरअसल, वो लिफ़ाफे के भीतर रखा सामान ख़रीदने आए थे।
अगर कोठे को परचून की दुकान मान लिया जाए तो सेक्स ठीक उस लिफ़ाफे की तरह होता है। जिसकी जाँच-पड़ताल की जाए तो लिफ़ाफे के भीतर मिलेंगे तरह-तरह के सामान-ओ-असबाब।
सामान। जैसे कि एक दरोगा हर रात अपनी बीवी ख़रीदने आता था क्योंकि उसकी पोस्टिंग उसकी बीवी के घर से सैकड़ों मील दूर थी। उसके दिमाग में कई बार ख़याल आया कि वो दूसरी शादी कर ले। चिढ़ कर कहता था कि साहब, ऐसी बीवी का होना भी क्या ख़ाक होना है, जो आँख से देखी न जा सके, न ज़बान से चखी जा सके, और हथेली से सहलाई न जा सके। कोठे ने उसे दूसरी शादी के पाप से बचा लिया। दरोगा जी की लाठी आजकल ख़ूब वजन से चलती थी।
...सत्रह साल का एक छोकरा मर्दानगी ख़रीदने आता था क्योंकि वो, उचक कर, मर्दानगी समय से पहले पा लेना चाहता था। वो सनडे के रंगायन अख़बार की तस्वीरों, चुटकुलों और अपना-हाथ-जगन्नाथ से ऊब चुका था। कहता था कि दुनिया जिस रफ़्तार से भाग रही है, उस रफ़्तार से नहीं भागोगे तो पीछे के लोग तुमको केंचुए की तरह ‘पिच्चा’ करके निकल जाएँगे। ज़माना मॉडर्न नहीं होता, लोगों को मॉडर्न होना पड़ता है। एक बार उसने मुझे मोबाइल फ़ोन दिलाकर ‘मिस यू डियर’ मैसेज किया था। उस रात मैंने उससे पैसा नहीं लिया।
...एक बुड्ढा बस बातें ख़रीदने आता था, क्योंकि इस उमर में कोई उससे कोई बातें करना पसंद नहीं करता था। ज़्यादा से ज़्यादा कोई अगले त्यौहार की तारीख़ पूछ लेता था या फिर ये पूछ लेता था कि गठिया के लिए कौन-सी दवाई सबसे कारगर है। वो कैलेण्डर और हकीम से बढ़कर बहुत कुछ और होना चाहता था। रात भर के लिए ही सही, वो, मेरे सामने, कभी कहानी-वाला-बाबा तो कभी बूझो-तो-जाने वाला मास्टर हो जाता था। मुझे उसे इसलिए निकालना पड़ता था क्योंकि वो कभी-कभी ज़्यादा जज्बाती होकर मेरा बाप बनने की कोशिश करने लगता था।
...एक ऑटो वाला था जो डेली चालीस रूपए की दो पाव शराफ़त ख़रीदने आता था। कहता था कि मेरे कोठा ना होता तो उसकी शराफ़त कब की दम तोड़ चुकी होती। दिन भर की सारी फ्रस्ट्रेशन मुझ पर उतार लेने के बाद वो जब घर जाता तो हमेशा उसके चेहरे पर चार इंच की मुस्कराहट होती। उसने अपनी बीवी को गाली देना भी छोड़ दिया था और थप्पड़ मारना भी। वो रोज़ उसे गरमागरम रोटियाँ बनाकर खिलाती थी और उस पीर बाबा को दुआएँ देती नहीं थकती थी जिसका गंडा उसने अपने पति के बाजू पर बाँधा था।
कभी-कभी मुझे लगता था मैं कितनी ताकतवर हूँ। जैसे कि मुझे तरह-तरह के जादू आते हों। हाथ घुमाया तो लिफ़ाफ़े के अंदर से, हर बार, अलग-अलग तरह के सामान निकल आएँ – मुर्गी का अंडा, खुद मुर्गी, उजले पँखों वाला कबूतर, बिना सर की लड़की, प्लास्टिक के फूलों का गुलदस्ता और ना जाने क्या क्या !
लेकिन फिर इंसानों के अलावा,  कोठे पर, वक़्त-बेवक़्त मनहूसियत भी आती थी।
शायद मुझे ये बताने के लिए कि बेवजह के मुग़ालते न पाले जाएँ। फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली तवायफ़ें ‘और’ होती हैं, असल ज़िंदगी की तवायफ़ें ‘और’।
अजीब बात ये है कि, गाहे-बगाहे, मनहूसियत, ज़्यादातर, ऐसे ही लोगों के भेस में आती थी जो “और भी बहोत कुछ” में दिलचस्पी रखते थे। ऐसे लोग से मेरा मतलब है उस दरोगा से, उस सत्रह साल के छोकरे से, उस बुड्ढे से और उस आटो वाले से। ज़्यादा आसान वो लोग होते थे जो इधर-उधर में यक़ीन नहीं रखते थे। जिनका चेहरे झक्क सफ़ेद होता था। भावनाशून्य। भावनाशून्य चेहरा ऐसा चेहरा होता है जिस पर कुछ भी उकेरा नहीं जा सकता, और उकेर भी दो तो उसे पढ़ा नहीं जा सकता। मुझे ऐसे ही चेहरे ज़्यादा पसंद आते थे क्योंकि ऐसे चेहरों में शीशे की तरह अपना चेहरा नहीं दिखता। अटपटा-सा महसूस नहीं होता। ऐसे लोगों से कभी डर नहीं लगता था। ये बस आते थे, नाडा खोल कर पैजामा सरका देते थे और हाँफ लेने के बाद वापस चले जाते थे।
अगर बारीकी से देखा जाए तो कोठे पर आने वाले लोगों को दो जमातों में बाँटा जा सकता है– एक वो जो रौशनी जलाकर सेक्स करना पसंद करते हैं और दूसरे वो जो रौशनी बुझाकर ‘करना’ पसंद करते हैं। आप वेल एजुकेटेड हैं तो ‘करना’ कह लीजिए नहीं तो ‘चोदना’ कह लीजिए। दरोगा, लड़का, बुड्ढा और ऑटो वाला हमेशा रौशनी जलाए रखने की ज़िद करते थे। रौशनी के चलते उनके चेहरे में आईने की तरह मेरा चेहरा नुमायाँ हों जाता था। बाक़ी के लोग अँधेरे की फ़रमाइश करते थे ताकि मेरे चेहरे के आईने में उनका चेहरा नुमायाँ ना हो। परछाईं ना दिखे। अक्स ना बने।
ये भी हो सकता है कि वो रोशनी में अपने नंगे शरीर को देखना नहीं चाहते हों। ज़्यादातर लोगों से अपना नंगा शरीर देखा नहीं जाता और मुझे इस बात पर बेहद हैरानगी हुआ करती थी। क्योंकि देखा जाए तो दुनिया में सबसे सुन्दर वही चीज़ें होती हैं जो नंगी होती हैं– जैसेकि सेक्स यानी कि सम्भोग, जैसेकि सच्चाई, जैसेकि अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा, जैसेकि फूल और आसमान। लेकिन फिर भी लोग नंगेपन को जहाँ देखते हैं उसे तुरंत ढक देने की कोशिश करने लगते हैं और हमारे दिमाग़ में ये घुसा दिया जाता है कि नंगापन वाहियात है और उसकी ख़्वाहिश करना और भी वाहियात। एक बच्चा पैदा होता है तो उसे तुरंत कपड़े से ढक दिया जाता है, कोई सच कहना चाहता है तो उसे इस हिदायत दी जाती है कि सच कड़वा होता है... उसे भी ढक दो। जो बात कपडों में कही जाए वो प्यार, कपड़े उतारकर कही जाए वो वासना और हवस। मुझे ये सब बातें कभी समझ नहीं आईं। हो सकता है कि ये मेरी समझ के बाहर रही हों क्योंकि मैं एक मामूली सी तवायफ़ हूँ ... लेकिन फ़र्ज़ करो कि एक दिन अचानक आसमान और सूरज निक्कर पहन कर निकल आएँ... कैसे लगेगा? फूल भी बरमूडा पहनकर क्यारी में उगे ...तो वो कैसा दिखेगा?
इस तरह के सवालों का कोई आसान जवाब नहीं होता और हर किसी सवाल का ठीक-ठीक एक जवाब हो भी, ऐसा ज़रूरी भी नहीं होता। हर सवाल के तमाम जवाब हो सकते हैं, तरह तरह के लोग, तरह-तरह के जवाब। जिसका जो जवाब मानने का दिल करे, उसी का माने।
एक दिन एक ऐसा ग्राहक मेरे कोठे पर आया जिसका दिया हर एक जवाब, मान लेने को जी करता था। लेकिन ये मनहूसियत का सबसे पहला संकेत था– इसलिए उससे डर भी बहोत लगता था। उसका चेहरा भावनाशून्य नहीं था। उसके चेहरे में आईने की तरह अपना चेहरा भी दिख जाता था। ये दूसरा संकेत था। वो कमरे में रौशनी जलाए रखना पसंद तो करता था लेकिन उसे सेक्स में कोई दिलचस्पी नहीं थी। ये था मनहूसियत का तीसरा संकेत।
इन साहब का पहले-पहल कोठे पर आना, तब की बात है जब मुझे कोठे पर आए हुए कुल दो साल और सात महीने हो चुके थे। इतना समय गणित सीखने के लिए काफ़ी होता है। उस दिन मैं कुल मिलकर तीन कस्टमर निपटा चुकी थी और चौथे के मूड में क़तई नहीं थी। मैं बत्ती बुझाने के बाद बिस्तर पर औंधे होने के लिए ऐसे मुख़ातिब हुई थी जैसे तालाब में मरा आदमी खोजने के लिए के लिए कोई गोताखोर डुबकी लगाता है। लेकिन बिस्तर पर गिरने से पहले, यमराज के फ़रमान की तरह दिलावर ने दरवाज़े पर दस्तक दी, और कुंडी की दस्तक ने मुझे ऐसे लपक लिया जैसे कोई मछली बगुले के चोंच में लपक ली गई हो। कुंडी खटकाने के अंदाज़ से पता चलता था कि दिलावर ही है- तीन जोड़ी खट-खट और दो जोड़ी ठक-ठक। खट-खट और ठक-ठक में बीच में बलगम सुड़ुकने की आवाज़। “आ रही हूँ दल्ले”, मैंने मरी हुई आवाज़ में कहा। मैं उसे दिलावर नहीं दलाल ही कहती थी क्योंकि मैं नाम पर काम को तरज़ीह देना पसंद करती हूँ। जवाब में उसने कहा - “जल्दी खोल रंडी, देख तेरे लिए दरवाज़े स्विस बैंक लाया हूँ”। मैंने दरवाज़ा खोला तो स्विस बैंक एक छह फुट और दो इंच लंबे, गोरे, चिट्टे लड़के की शकल में खड़ा था। उसकी शकल के आईने में मेरा चेहरा झलक रहा था।
मैंने डरकर कहा, “मैं थक गई हूँ दल्ले, बस अब आज और नहीं हो पाएगा। बगल के कमरों में देख ले, कोई और चूल्हा मिल जाएगा सेंकने के लिए”।
दल्ले ने कहा – “तुझसे तेरी रज़ामंदी किसने माँगी है रंडी? ज़्यादा भाव मत खा और चुपचाप चित्रहार शुरू कर। और खाली सेवेन्टीज़ नहीं चाहिए, दो हज़ार दस मँगता है आज” !
लड़का सकपका गया। शायद वो चित्रहार की शुरुआत में पल्स-पोलियो के विज्ञापन नहीं देखना चाहता था। आवाज़ मज़बूत करते हुए उसने कहा, “रहने दीजिए, अगर इनकी इच्छा नहीं है तो फिर कभी। ऐसे ज़बरदस्ती नहीं चलेगा। लड़की है। कोई बंधुआ मज़दूर तो है नहीं कि जब जी किया तो हाँक लिया जाए”। मैंने कहा – “आने दो... आइए साहब... म्म....स्विस बैंक”
“जी मुझे वैभव कहिए। बेहतर होगा”
उस रात पहली बार मैंने काम को किनारे सरकाकर नाम को उठाने की कोशिश की और बिना विरोध किए उसे जवाब में वैभव बुलाया। नहीं तो अभी तक मुझे “ओए बूढ़े”, “लड़के”, “दरोगा जी”, “मियाँ ऑटो वाले”, और “दल्ले” जैसे संबोधनों से ज़्यादा सहूलियत होती थी। हालाँकि मुझे मनहूसियत की वापसी का अंदेशा-सा हुआ तो लेकिन मैंने उसे दरकिनार करना बेहतर समझा। मैंने खुद को समझाया की रंडी के घर ऐसे कौन से जवाहरात गड़े होते हैं कि हवाई बातों से सशंकित हुआ जाए। हाँ ये ज़रूर था कि उसके आईने जैसे चेहरे में मुझे मेरा चेहरा दिखाई दे रहा था ...लेकिन...छोड़िए भी...।
वैभव को अंदर छोड़ कर दल्ला वापस चला गया।
दल्ला मुझे हज़ार रूपए पकड़ा कर गया था लेकिन उस रात ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा कि पिछले दो साल सात महीने की हरेक रात को होता आया था। ये साहब रायटर निकले और इनका कहना था कि ये एक फ़िल्म लिख रहे हैं जिसके सिलसिले में इन्हें असली तवायफ़ों को असली तरीक़े से जानना ज़रूरी था। उन्हें सिर्फ़ बात करने में दिलचस्पी थी। साफ़-साफ़ कहा जाए तो सिर्फ़ मुझे जानने में। मुझे छूना भी उनके उसूलों के ख़िलाफ़ था। कम लव्ज़ों में कहा जाए तो वैभव एक अच्छा आदमी था और उसे मुझसे हमदर्दी थी। वो मुझे एक किताब की तरह पढ़ने आता था और कोठा उसके लिए एक स्कूल था।
उस रात हमने सिर्फ़ बातें की... बेशुमार बातें ....उसे सुनना बहोत पसंद था और वो सुनने के बीच-बीच में वो अपनी बातें, ‘फिल इन दा ब्लैंक्स की तरह’, सलीक़े से भर देता था। ब्लैंक्स भरते वक्त उसने कहा कि हमारे यहाँ तवायफ़ों के साथ हमेशा बहोत बुरा होता आया है जबकि बड़े-बड़े “इंटेलेक्चुअल्स” ने तवायफ़ों के बारे में ना सिर्फ़ हमदर्दी जताई है बल्कि बड़ी-भारी अच्छी बातें भी कही हैं (भगवान जाने ये इंटेलेक्चुअल्स कौन लोग होते थे! वैसे उसने कहा था कि ये समझदार लोगों का ही एक तबक़ा होता है)। उसके हिसाब से अमरीका से ताल्लुक़ रखने वाले एक सज्जन का कहना था कि सेक्स, पैसे से ख़रीदी जा सकने वाली, सबसे ‘ख़ूबसूरत’, ‘नैचुरल’ और ‘सम्पूर्ण’ चीज़ है। एक और सज्जन का कहना कि दुनिया में हर कोइ, किसी ना किसी वक्त, एक तवायफ़ होता है – तब, जबकि वो अपनी बात समझाने के लिए वो उसे लाग-लपेटकर कहता है, तब, जबकि वो पैसे के लिए अपने दफ़्तर में अपने आत्मसम्मान और अपनी ख़ुद्दारी से समझौता करता है, तब, जबकि वो, वो होने की कोशिश करता है जो कि, वो होता नहीं है ...और ऐसा ही कुछ कुछ...। मुझे इतना याद है कि उसके हिसाब से वो भी एक तवायफ़ था।
अमरीका के उन सिरफिरे सज्जन की ही तरह, एक और सरफिरे आदमी का कहना था कि दुनिया में ज़्यादातर सारी शादीशुदा औरतें एक तरीके से तवायफ़ें होती हैं। उनमें और कोठे पर बैठने वाली औरतों में बस इतना फ़र्क़ होता है कि हम सौ आदमियों के साथ सोती हैं और वो एक आदमी के साथ। बल्कि, उसका तो कहना था, कि हिंदुस्तान की शादीशुदा औरतों की हालत हमसे भी ज़्यादा गई-गुज़री होती है - यदि वो पढ़ी लिखी न हो, तब तो ख़ासकर। क्योंकि उनके शौहारों को हर रात उन्हें पैसा देने कि फिकर नहीं करनी पड़ती। जब नाड़ा खिसक गया, समझो कोठे का दरवाज़ा खुल गया।
भगवान जाने वो ऐसी बक-बक क्यूँ करता था? और करता भी था तो ‘अक्सर’ क्यूँ करता था !
वो हर बार जानना चाहता था कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आई हूँ? यहाँ कैसे फँस गई? वग़ैरह-वग़ैरह। मैं हर बार अपने होने की अलग-अलग कहानी कह देती थी और बात ख़तम होते-होते उसका संजीदा चेहरा देखकर मेरी हँसी छूट जाया करती थी। वो समझ जाता था कि उसके साथ मज़ाक़ किया गया है और बच्चे की सी शकल बनाकर दूसरी और बैठ जाता था। मुझे उसे मनाना बहोत अच्छा लगता था और शायद उसे रूठना भी। इसी रूठने-मनाने के सिलसिले में मैंने कोठे पर आने की कहानी के बहोत सारे वर्ज़न तैयार कर लिए थे और उन्हें मैं मूड के हिसाब से बूढ़े, दरोगा, लड़के और ऑटो वाले को सुना दिया करती थी।
लड़के से मैंने कहा कि मैं कोठे पर अपनी ख़ुशी से आई हूँ। पैसा कमाने का मन हर किसी का करता है। उसने कहा कि वो भी ऐसा ही सोचता है और उन दोनों की सोच कितनी मिलती-जुलती है। बूढ़े से मैंने कहा कि मैं बांग्लादेश से शादी करके लाई गई थी। मेरे दूल्हे ने शादी की रात के अगले ही दिन मुझे यहाँ छोड़ दिया था। मैं अपने भाई को हर रोज़ फ़ोन कर के रोती रहती थी कि वो मुझे लेने आ जाए लेकिन वो मुझे यही कहता था कि ससुराल से लड़की को वापस मायके नहीं लाया जा सकता। ये ग़लत है। बूढ़ा उस रात बहोत गुमसुम पड़ा रहा। उस रात उसने मेरे मोबाइल फ़ोन में अपना नंबर डाल दिया और कहा कि मुझे कभी भी किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो मैं सीधा उसे फ़ोन करूँ। बूढा दुबारा कभी कोठे पर नहीं आया। पता नहीं क्यों....
ऑटो वाले को मैंने जब कहानी सुनाने की कोशिश की तो उसने मुझे सिगरेट से जला दिया। मैंने कहानियाँ सुनाना बंद कर दिया। मेरी छाती पर चकत्ता पड़ गया था।
वैभव को इस बात पर अचम्भा हुआ कि मुझे कोइ सिगरेट से कैसे जला सकता है। वो ये नहीं जानता था कि फ़िल्मों की तवायफ़ों और असल ज़िंदगी की तवायफ़ों में कितना अंतर होता है। उसके दिमाग़ में तवायफ़ें पाकीज़ा की मीना कुमारी, देवदास की माधुरी और उमराव जान की रेखा की तरह होती थीं। इसी हिसाब से वो सब की सब “सोने जैसे दिल” वाली होती थी (हार्ट ऑफ गोल्ड, जैसा कुछ कहा था उसने)। पाक। जानशीं। जितना हो सके, मैं उसके मुग़ालते बचाकर रखने की कोशिश करती थी। उन्हें तोड़ने का क्या फ़ायदा। लेकिन कभी-कभी इस बात का बुरा लगता था कि अगर उसके मुग़ालते नहीं तोड़े गए तो एक दिन वो भी कमाल अमरोही, मुज़फ्फ़र अली या फिर भंसाली बन कर दुनिया को वो तवायफ़ दिखाएगा जो कभी हुआ ही नहीं करती। असल में ना तवायफ़ें होती हैं, ना ही वेश्याएँ। असल में सिर्फ़ रंडियाँ होती हैं। इसी तरह, असल में ना ही कोठे होते हैं, ना ही वेश्याघर। असल में सिर्फ़ नालियाँ होती हैं। नालियाँ इस लिए बनाई जाती हैं ताकि घरों की गंदगी उफन-उफन कर शरीफ़ लोगों के आँगन में न फ़ैल जाए। असल में सिर्फ़ गटर होते हैं। ताकि समाज साफ़-सुथरा दिखाई दे और जितना हो सके, चमकता रहे।
लेकिन धीरे-धीरे वैभव को नालियाँ और गटर साफ़-साफ़ नुमायाँ होने लगे थे और शायद इसी से उपजी हमदर्दी के चलते उसे ऐसा लगने लगा था कि उसे मुझसे इश्क़ हो गया है। हालाँकि उसे लगता था कि इसका हमदर्दी से कुछ लेना-देना नहीं है। पहले वो सुनता ज़्यादा था। फिर वो कहने ज़्यादा लगा। बहोत सी बातें कहता था जो कि वो कभी हिचक, कभी लिहाज़ तो कभी शर्म की वजह से किसी और से नहीं कह सकता था। रंडियों से शर्म कोई करे भी तो क्या ! कहता था कि उसे चिड़ियों से ख़ासा लगाव है ...वो घंटे बालकनी में बैठा, चिड़ियों की परवाज़ देखा करता था ...कहता था कि ज़रूर तुम पिछले जनम में कोई चिड़िया रही होगी, इसीलिए मेरा दिल तुम्हारी चोंच में चुग्गे की तरह अटक गया... बल्कि तुम अभी भी एक चिड़िया हो। कहता था कि कोठे के बाहर की दुनिया, कोठे के अंदर की दुनिया से कहीं ज़्यादा गई-गुज़री है। वहाँ कोई किसी का हिसाब साफ़ नहीं रखता, यहाँ कम-से-कम बहीखाता तो दुरुस्त रहता है, रसीद बराबर मिलती है ठगाई नहीं होती। कोठे दुनिया की अकेली बची ईमानदार जगह है। फिर एक दिन यूँ ही बातों-बातों में बोला-
“एक चुटकुला सुनोगी?”
“हाँ...सुनूँगी”
“तो सुनो...दिल थामकर बैठिए और सुनिए, दुनिया का सबसे छोटा और मज़ेदार चुटकुला...
“...इंसान...”
चुटकुला ख़त्म...और अब हँसो....हाहाहाहाहा....” हँसते-हँसते वो बिस्तर से नीचे गिर पड़ा। भगवान जाने किस बात पर। जब वो हँसता था तो एकदम ऐसा लगता था कि कोई बच्चा किसी बहोत मामूली से बात पर बुक्का फाड़ के लोट रहा हो क्योंकि उसे ऐसी ही बात पर हँसने की आदत है और क्योंकि उसे पता है कि ये बात कितनी ज़्यादा हँसी की बात है ... और क्योंकि उसे ये भी पता है कि और किसी को चुटकुला समझ नहीं आने वाला। ये चुटकुला उसकी कोई बहोत बड़ी खोज या ईजाद है जो बस अभी-अभी निकल आई है।
दल्ला (दिलावर) हमेशा हिदायत देता था कि वैभव एक दिन उससे ज़्यादा नुक़्सान कर के चला जाएगा जितना कि उसने नफ़ा नहीं किया। दल्ला कहता था कि ये साले राइटर लोग़ घने चू*या होते हैं। कुछ और चोदा जाता नहीं है तो क़लम से बस काग़ज़ चोदा करते हैं। जिससे कुछ नहीं बना जाता वो रायटर बन जाता है। बम्बई में ऐसे रायटर दिन के छत्तिस आते हैं और बहत्तर लौट जाते हैं अपना मुँह उठाकर। इनकी ज़िंदगी निकल जाती है चाँद का चूतड़ घिसते-घिसते। कभी कहेंगे कि तू चाँद नहीं चंदा मामा है, कभी कहेंगे कि तू चाँद नहीं किसी की लूगाई की बिंदी है, तो कभी कहेंगे कि ऐ चाँद! तू चाँद नहीं आसमान का एक सफ़ेद सुराख है। मैं कहता हूँ- अबे साले एक दिन ख़ुद चाँद ज़मीन आसमान से चिल्ला कर गरियाएगा कि चू*ये कम से कम रात के बख़त तो सो लेने दिया करो! कोई काम-धंधा नहीं है क्या?
वैभव क्या लिखता था– नहीं पता। उसने कभी मुझे कुछ पढाया भी नहीं। लेकिन उसकी बातों से लगता था कि यही सब अगर सफ़ेद काग़ज़ पर बिछा दिया जाए तो और भी सुन्दर लगता होगा। वो कहने को तो कोठे पर फ़िल्म के सिलसिले में आया था लेकिन यहाँ आना-जाना शुरू करने के कुछ ही दिन बाद उसका फ़िलम-विलमछोट सा गया। छूटा कि छोड़ा गया– ये भी नहीं पता।
बहुत पूछने पर उसने एक दिन कहा कि उसने फ़िल्म डब्बे में डाल दी थी क्योंकि वो नहीं चाहता था कि वो मुझे चर्चा का विषय बनाए और मुझे बेचे। अजीब बात ये है कि खुद को बेचना ही तो मेरा रोज़गार था फिर भी वो ऐसा सोचता था....खैर...उसने अपनी फ़िल्म तो बंद कर दी थी लेकिन उसके आने पर हमारे दरमियाँ कोई ना कोई फ़िल्म उपजना शुरू हो जाती थी। और फ़िल्म नहीं तो फ़िल्म के किरदार उपज आते थे। मैंने लाख कोशिशें की, कि मैं कभी मीना कुमारी, माधुरी या रेखा ना बनूँ, लेकिन वो कभी शाहरुख़ ख़ान, कभी फर्रुख़ शेख़ तो कभी राज कुमार बनने पर ऐसा अड़ा हुआ था कि थक हार कर मुझे भी वो बनना पड़ता था जो मैं कभी नहीं बनना चाहती थी।
दल्ला कहता था, “फ़िल्में अच्छे भले इंसान का नास मार देती हैं। मेरा बाप हीरो बनने बम्बई भागा था और लौटा तो ‘चूँ-चूँ का मुरब्बा’ बनकर। उसको देखकर लगता ही नहीं था कि वो एक आदमी है। वो कभी ओमपुरी की तरह बात करता था, कभी अमरीशपूरी, कभी रंजीत तो कभी प्राण की तरह। एक दिन माँ ने ललीता पवार बन के उसे घर से बाहर निकाल दिया। सारे हेकड़ी निकल गई। ठीक हो गया साला ....साली एक दिन तू भी कहीं की नहीं रहेगी, इन फ़िलम वालों से दूर रहा कर”
इसी फ़िल्मी सिलसिले में एक रात वैभव ने पहली बार एकदम गैर-फ़िल्मी तरीक़े से मुझे चूम लिया। माथे पर। ये एक ऐसा चुम्बन था जैसे कि पहली बार किसी बच्चे ने स्लेट पर खडिया से ‘क’ से कबूतर या ‘ख’ से खरगोश लिखा हो। मैं मुस्कुराई - जैसे कि मास्टर जी ने बच्चे की स्लेट पर ‘वेरी गुड’ लिखा हो। लेकिन वो सकपका गया और ऐसे दूर हट गया जैसे कि उसने ग़लत स्पेलिंग लिख दी हो और मास्टर ने ग़लत स्पेलिंग पकड़ ली हो। वो अपराध बोध में दूसरी ओर मुँह करके बैठ गठरी की तरह सिकुड़ कर बैठ गया।
ऐसा पहले भी हुआ था..होता रहता था। तब जब कभी ग़लती से उसका हाँथ मेरी छाती से छू जाता था। तब जबकि वो कमरे में दाख़िल हो और मैंने सलीक़े से कपड़े ना पहन रखे हों। तब जबकि मैं उसे हसरत से नज़र भर देखूँ और तब जबकि मैं उसका मिजाज़ नापने को अपना पल्लू कंधे से गिरा दूँ। हर मौक़े वो मुँह फेर लेता था। अजीब बात थी। अजीब से ज़्यादा चिढ़ाने वाली। और चिढ़ाने से ज़्यादा पके-पकाए कोढ़ में खुजली करने वाली।
उस दिन मैंने उसे ताक़त से वापस अपनी ओर खींचा। अब फ़िलम अगर चली है तो क्लाइमैक्स तक भी पहुँचे– “क्यों साहब? मुझमें काँटे लगे हैं क्या? पूरा शहर घूम आओगे तो भी मुझसे सुन्दर रंडी ढूँढने को नहीं मिलेगी! यहाँ पाँच रूपए वाली भी ढेरों बैठी हैं... मजाल है किसी की, जो मेरा दाम तीन सौ रूपए से कम लगा दे। फिर भी तुमने आज तक मुझे हाथ भी नहीं लगाया।”
“भगवान के लिए अपने आप को रंडी मत कहा करो ... मैं तुमसे प्यार करता हूँ! अगर मैं भी तुम्हें बिस्तर पर ले जाकर पटक दूँगा तो तो फिर मेरा और तुम्हारा रिश्ता भी बस एक रंडी और उसके ग्राहक जैसा ही रह जाएगा ... फिर मुझमे और यहाँ आने वाले हर दूसरे आदमी में क्या ही फ़रक़ रह जाएगा? मैं तुमसे प्यार करता हूँ और उससे भी बढ़कर तुम्हारी इज्ज़त करता हूँ। हम अगर यहाँ तक चले आए हैं तो इसकी वजह यही है कि हम वो नहीं हो गए जो बाकी सब हैं”।
“मुझे बाक़ी सब ही होना है। मुझे तुम्हारी किताब में दफ़न होकर अमर नहीं होना है। बेहतर होगा आप मुझे निचोड़ कर मार दें। कम से कम मेरा गुमान तो रख लो। एक रंडी से वो भी छीन लोगे तो उसका होने पर थू है। तुम्हारे आने से पहले कम से इस बात पर गुमान था कि मैं कितनी ताक़तवर हूँ। तभी तो ये बीवियों वाले शरीफ़ लोग रंडियों के पास आते हैं। गुमान था ..कि मैं कोई जादूगरनी हूँ। कि मुझे तरह-तरह के जादू आते हैं। हाथ घुमाया तो लिफ़ाफ़े के अंदर से, हर बार, अलग-अलग तरह के सामान निकल आएँ– मुर्ग़ी का अंडा, ख़ुद मुर्ग़ी, उजले पँखों वाला कबूतर, बिना सर की लड़की, प्लास्टिक के फूलों का गुलदस्ता और ना जाने क्या क्या!”
“ऐसी गलीज़ बातें मत करो। हर एक रिश्ते को उसका मुकम्मल अंजाम देना कोई ज़रूरी तो नहीं है। पागल मत बनो।”
“मेरा और आपका कोई रिश्ता है ही नहीं साहब। बेहतर होता अगर ये कम से कम एक ग्राहक और रंडी का ही रिश्ता होता साहब। लेकिन मेरे शरीर से घिन्न आती है तुमको”
मैं बस बड़बड़ा रही थे और बावलों की तरह बड़बड़ाते हुए, चाहते हुए भी उसे सुन नहीं पा रही थी– “...और क्या साहब ...हाथ भी छूते हो तो ऐसे जैसे कि चिमटे से कोई केंचुआ या तिलचट्टा उठा रहे हो!”
मैंने कंधे से साड़ी का पल्लू निकाल फेंका। झीने-सफ़ेद ब्लाउज़ के बटन गहरी साँसों के साथ टूटने को होते थे। बटन को फूलती छाती के साथ कशमकश-तकल्लुफ़ करने देने के बजाय मैंने ब्लाउज़ को उधेड़ कर घाव की सूखी-खाल की तरह नोच फेंका। उसने मुँह घुमा लिया। मैंने उसे वापस अपनी ओर खींचा और उसका चेहरा अपनी छाती से चिपटा लिया, जैसे कि वो उसका एक हिस्सा था और उसे वहीं होना चाहिए। जहाँ से उसका बरसों पुराना ताल्लुक़ है। लेकिन वो छिटक गया जैसे कि उसको साँस आना बंद हो गई हो।
मैंने साड़ी उतार फेंकी और पेटीकोट का नाड़ा खींच दिया। नंगा शरीर और भी नंगा होकर उसपे झपटने के लिए उतारू था।
“मैंने कहा ना मुझे शर्मिंदा ना करो....मैंने कहा...दूर हट....”!!
वो ज़ोर से चिल्लाया और मुझे और उससे भी ज़ोर से मुझे दूर झटक कर उसने कमरे के सारे बल्ब जला दिए। मैं ज़मीन पर गिर पडी थी और वो कोने में सिकुड़ कर काँप रहा था। मेरे चेहरे में उसका चेहरा दिख रहा था और उसके चेहरे में मेरा चेहरा। वो अपना चेहरा देखकर काँप उठा और मैं अपना चेहरा देखकर। उसके चेहरे के आईने में मेरा नंगा शरीर कितना घिनौना दिख रहा था। चीखते हुए मैंने बल्ब बुझा दिया।
वो चला गया।
और ...जिस अंदाज़ से वो वो कमरे से निकला था उससे साफ़ था कि वो दुबारा कभी वापिस नहीं आने वाला है।
किवाड़ पर वापस से ठक-ठक हुई। तीन जोड़ी खट-खट और दो जोड़ी ठक-ठक। खट-खट और ठक-ठक में बीच में बलगम सुड़ुकने की आवाज़। दल्ला ही था।
“वो रोता हुए क्यूँ बाहर गया...
तू भी रो रही है?...
...साला लड़का होकर लड़की माफ़िक़ रोता था... मैंने पहले ही कहा था ये साले राइटर लोग घने चू*या होते हैं। कुछ और चोदा जाता नहीं है तो क़लम से बस काग़ज़ चोदा करते हैं... हाहाहाहा...खैर छोड़ ये सब...अभी दस मिनट में नया ग्राहक लेकर आऊँगा। तैयार हो जा। चित्रहार चालू कर...”
 

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