साहिब सिंह वर्मा को ऐसे समय में कुर्सी छोड़नी पड़ी थी, जब चुनाव होने में केवल 50 दिन बाकी थे.
तारीख - 12 अक्टूबर 1998.
पता - 9 शामनाथ मार्ग. नई दिल्ली.
दिल्ली के मुख्यमंत्री का आवास. घर के बाहर गुस्साए किसानों की भीड़ है. वहीं किनारे एक डीटीसी बस खड़ी है. नारेबाजी के बीच घर से एक शख्स धोती कुर्ता पहने निकलता है. बस में बैठता है और शालीमार बाग की ओर चल पड़ता है. अपने घर की तरफ. ये दिल्ली का मुख्यमंत्री था. दिल्ली में 50 दिन बाद चुनाव थे. दिल्ली में प्याज महंगा था. और भाजपा के शीर्ष पुरुषों को लगा कि इस आदमी की रुखसती से सत्ता की रुखसती बच सकती है. ये साहिब सिंह वर्मा की कहानी है. आज उनकी बरसी है.
किताबवाला मंत्री बना
दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर बसे गांव मुंडका के किसान परिवार में पैदा हुए साहिब सिंह ने एएमयू से लाइब्रेरी साइंस की पढ़ाई की. यहीं दाखिले के वक्त एक प्रफेसर की सलाह पर उन्होंने अपने नाम में वर्मा जोड़ लिया. कहते हैं कि उन दिनों जाटों को लेकर यूनिवर्सिटी में पूर्वाग्रह था. डिग्री लेकर लौटे साहिब सिंह को दिल्ली की म्यूनिसिपैलिटी की लाइब्रेरी में नौकरी मिल गई. दिल्ली की नगर निगम में शुरू से ही जनसंघ का दबदबा था. जनसंघ में संघ का. और संघ के स्वयंसेवक थे साहिब सिंह. इमरजेंसी के दौर में वॉरंट के बाद भी वह गिरफ्तारी से बचे रहे. मोरार जी की सरकार के दौरान दिल्ली में स्थानीय निकाय चुनाव हुए तो साहिब सिंह ने डेब्यू किया. केशवपुरम वॉर्ड से पार्षद बने. अस्सी के दशक में उनकी जीत भी रिपीट हुईं और बीजेपी संगठन में कद भी बढ़ा.
वर्मा 1991 का लोकसभा चुनाव भले हार गए हों. लेकिन लोगों के बीच अपनी पहुंच बनाने में कामयाब रहे थे.नतीजतन, 1991 के चुनाव में उन्हें बाहरी दिल्ली लोकसभा से टिकट मिल गया. सामने थे संजय गांधी ब्रैंड पॉलिटिक्स करने वाले सज्जन कुमार. जो 11 साल के गैप के बाद लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे. शकूर बस्ती से तुगलकाबाद तक फैली लोकसभा में सज्जन साहिब पर भारी पड़े. मार्जिन रहा 86 हजार वोटों का. लेकिन इस हार ने भी साहिब को ग्रामीण दिल्ली के सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित कर दिया. 1993 के दिल्ली के पहले विधानसभा चुनाव में उन्होंने शालीमार बाग विधानसभा सीट जीती. कांग्रेस के एससी वत्स को 21 हजार वोट से हराया. 70 में 49 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने मदन लाल खुराना के नेतृत्व में सरकार बनाई और वर्मा इस कैबिनेट के नंबर 2 बने, बतौर शिक्षा मंत्री.
किसके प्रेशर में आडवाणी नहीं अड़े?
खुराना और वर्मा में कभी ज्यादा नहीं बनी. सरकार बनने के कुछ ही महीने के अंदर शिक्षकों की भर्ती के तौर तरीकों को लेकर गंभीर मतभेद सामने आ गए. मुख्यमंत्री और मंत्री के बीच ये रस्साकशी चलती रही, 16 जनवरी 1996 तक. ये हमने आपको इतनी स्पेसिफिक डेट क्यों बताई. क्योंकि इसी दिन जैन हवाला केस में चार्जशीट दाखिल की गई. बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दिया. साथ में दिया बयान कि
'जब तक इन आरोपों से बरी नहीं हो जाता, चुनाव नहीं लड़ूंगा'
जैन डायरी के तहत एक और भाजपा नेता पर इल्जाम लगे थे. और ये थे दिल्ली के सीएम खुराना. डायरी में कथित रूप से उनके नाम के इनीशियल्स के आगे 3 लाख रुपये की एंट्री थी. आडवाणी के कदम के बाद खुराना पर भी प्रेशर बन गया. उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी. मुख्यमंत्री पद के लिए दो नाम सामने आए. पहला, पार्टी की तेज तर्रार प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद सुषमा स्वराज. दूसरा खुराना कैबिनेट में हेल्थ मिनिस्टर डॉ. हर्षवर्धन. केंद्रीय कमान में कुछ लोग सुषमा का नाम आगे बढ़ा रहे थे. जबकि खुराना खेमा हर्षवर्धन को खड़ाऊं सौंपने के पक्ष में था. विधायकों की राय जानने के लिए 23 फरवरी को बैठक बुलाई गई. यहां नजारा ही कुछ और था. खुराना के अलावा बचे 48 विधायकों में से 31 ने साफ कहा, साहिब सिंह वर्मा हमारी पहली पसंद हैं. आलाकमान को विधायकों के दबाव में आना पड़ा. गुजरात की नजीर उनके सामने थी. तीन चार महीने पहले ही वहां शंकर सिंह वाघेला ने बगावत कर दी थी. और तब अटल-आडवाणी को केशुभाई पटेल को चलता करना पड़ा था.
आडवाणी के इस्तीफा देने के बाद खुराना पर भी पद छोड़ने का दबाव बन गया था. ऐसे में बीजेपी नेतृत्व साहिब सिंह के नाम पर राजी हो गया. लेकिन अब दबाव बनाने की बारी खुराना की थी. ऐसे में आडवाणी ने उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़ने के ऐवज में दिल्ली बीजेपी विधायक दल का चेयरमैन बना दिया. ये अजीब समाधान था. बीजेपी संविधान में न तो इसका जिक्र था, न ही पहले किसी राज्य में ऐसा करने का उदाहरण. उस वक्त साहिब सिंह ने शपथ लेने को प्राथमिकता दी. 26 फरवरी 1996 को दिल्ली को नया मुख्यमंत्री मिल गया. छत्रसाल स्टेडियम में हुए इस शपथ ग्रहण में ही साहिब सिंह ने अपना टैंपो हाई कर लिया था. मैदान में किसानों का हुजूम था. ये किसान साहिब के करियर का स्थायी भाव होने वाले थे.
खुराना बरी हुए तो मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी वापस ठोंकने लगे. लेकिन आडवाणी ने साफ-साफ मना कर दिया.
क्या एक कंद मूल फल चुनाव हरवा सकता है?
साहिब सिंह सीएम बन गए. खुराना चेयरमैन बन गए. फिर पार्टी ने साहिब से कहा, खुराना कैबिनेट में जो मंत्री थे, उनसे ही काम चलाइए. साहिब अपने लोगों को लाल बत्ती नहीं दे पाए. साल भर बाद उनके लिए दूसरा खतरा पैदा हो गया. नाराज विधायकों की जमात तो थी ही, खुराना को भी जैन हवाला मामले में क्लीन चिट मिल गई थी. उन्होंने पार्टी पर दबाव डालना शुरू किया. मेरी सीएम सीट मुझे वापस करो. साहिब अब तक जम चुके थे. ऐसे में आडवाणी ने खुराना से कह दिया कि बदलाव नहीं होगा. खुराना उन दिनों कहा करते,
अदालत ने मुझे दोषमुक्त कर दिया. मगर पार्टी ने नहीं किया.
खुराना और उनके समर्थक मुख्यमंत्री वर्मा पर लगातार पक्षपात का आरोप लगाते रहे.खुराना और साहिब समर्थकों के बीच टकराव तेज हो गया. ये इल्जाम, हाथापाई, इस्तीफों तक पहुंचा. खुराना समर्थकों ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री एक लॉटरी किंग के जरिए उनके नेता की जासूसी करा रहे हैं. साथ में 100 करोड़ के भूमि घोटाले में मुख्यमंत्री के करीबियों के शामिल होने की बात भी घूमने लगी. साहिब ने पलटवार किया और कहा,
'एक भी आरोप सिद्ध हुआ तो पद छोड़ दूंगा.'
अब खुराना ने साहिब वाला दांव चला. विधायक दांव. दिसंबर 1997 में बीजेपी विधायकों की मीटिंग हुई. 10 विधायकों ने मुख्यमंत्री पर पक्षपात करने का आरोप लगाया और बैठक से उठकर चले गए. तय हुआ कि इस खेमे से एक विधायक को मंत्री बनाया जाए. दिल्ली कैबिनेट के मंत्री लाल बिहारी तिवारी कुछ समय पहले ईस्ट दिल्ली से जीत सांसद बन गए थे. उनकी जगह कालका जी की विधायक पूर्णिमा सेठी को मंत्री बनाया गया. कुछ महीने बाद साहिब को मुस्कुराने का मौका मिला. गुजराल सरकार गिरी तो मार्च 1998 में लोकसभा चुनाव हुए. बीजेपी, दिल्ली की सात में से छह सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साहिब सिंह वर्मा के रिपोर्ट कार्ड में कुछ और ही दर्ज हुआ. उपहार सिनेमा कांड, वजीराबाद में यमुना में स्कूली बच्चों से भरी बस का गिरना, मिलावटी तेल से फैली ड्रॉप्सी महामारी. साहिब सिंह सरकार अपने कार्यकाल में इन सबसे हलकान थी. फिर चुनावी वर्ष में त्योहारों के सीजन में प्याज की भयानक किल्लत हो गई. ये 60-80 रुपये किलो तक बिकने लगा.

प्याज की बढ़ती कीमतों को कांग्रेस ने 1998 के चुनाव में मुख्य मुद्दा बनाया.
इसी दौरान जब पत्रकारों ने मुख्यमंत्री से पूछा,
गरीब आदमी तो इस महंगे प्याज के बारे में सोच भी नहीं सकता?
साहिब सिंह का जवाब था,
'गरीब आदमी किसी भी हालत में प्याज नहीं खाता है.'
प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित के नेतृत्व में जमीन तलाश रही कांग्रेस ने इसे लपक लिया. विधायकों का असंतोष, पार्टी की गुटबाजी, सिर्फ ग्रामीण दिल्ली पर फोकस करने का इल्जाम, इन सबके बीच महंगे प्याज के चलते बना दबाव. बीजेपी आलाकमान को लगा कि मिडल क्लास की नाराजगी उसे चुनावों में भारी पड़ेगी. इसलिए चुनावों से महज दो महीने पहले साहिब सिंह का इस्तीफा ले लिया गया और 12 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज सीएम बन गईं. खुद साहिब सिंह ने दिल्ली बीजेपी विधायक दल बैठक में उनके नाम का प्रस्ताव रखा. एक प्रस्ताव और था. जो साहिब सिंह के सामने रखा गया था. खुद अटल की तरफ से. उनकी कैबिनेट ज्वाइन करने का. साहिब ने अटल के खत के जवाब में एक पंक्ति लिखी.
अब तो सुषमा जी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के बाद ही मैं शपथ लूंगा.

सुषमा के नेतृत्व में 1998 का विधानसभा चुनाव लड़ने वाली बीजेपी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा
गांव में मर्डर, इंतजार और फिर मंत्री पद
साहिब सिंह 1998 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहे थे. लेकिन चुनाव के वक्त सुर्खियों में लौटे एक कत्ल के चलते. साहिब सिंह के गांव मुंडका में ये वारदात हुई. मरने वाले का नाम वेद सिंह उर्फ लालू पहलवान. वेद साहिब सिंह के करीबी थे. टिकटार्थी भी. बीजेपी ने टिकट नहीं दिया तो वह समता पार्टी के टिकट पर नांगलोई जाट विधानसभा से मैदान में उतर गए. उनके सामने थे भाजपा सरकार के ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर और सिटिंग विधायक देवेंदर सिंह शौकीन. शौकीन भी साहिब सिंह खेमे के थे. ट्रिब्यून अखबार के मुताबिक पोलिंग से 15 दिन पहले हुए इस कत्ल के बाद वेद के परिवार वालों ने साहिब सिंह के परिवार पर इल्जाम लगाए. इस मर्डर के चलते समता पार्टी और बीजेपी में भी कलह बढ़ गई. समता पार्टी वैसे भी दिल्ली में गठबंधन न होने के चलते बीजेपी से नाराज थी. तिस पर ये कांड. समता पार्टी अध्यक्ष जॉर्ज फर्नान्डिस भी घटनास्थल पर पहुंचे और परिजनों से मिले. पार्टी की महासचिव जया जेटली ने कहा,
साहिब सिंह और उनके भाई, वेद सिंह पर नामांकन वापस लेने के लिए दबाव बना रहे थे. अगर सीबीआई जांच नहीं हुई तो हम सरकार से सपोर्ट भी खींच सकते हैं.
खुराना के जाने से शहरी वोटर और वर्मा के इस्तीफे से जाट और किसान वोटर नाराज थे. जिसका खामियाजा सुषमा को भुगतना पड़ासाहिब सिंह ने भी सीबीआई जांच की मांग करते हुए इसे अपने खिलाफ राजनीतिक साजिश करार दिया. साजिशें तो हो रही थीं. बीजेपी तीन खेमों में बंटी थी. खुराना, साहिब सिंह और सुषमा स्वराज. पांच साल के तीन सीएम. सबके अपने अपने इटरेस्ट. और नतीजा. यूं समझें कि साल के शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी 52 सीटों पर आगे थी. मगर जब विधानसभा चुनावों के नतीजे आए तो 52 के अंक के सामने कांग्रेस का नाम लिखा था. बीजेपी महज 15 सीटों पर सिमट गई थी.
कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव हुए तो बीजेपी ने सूबा गंवाने का बदला ले लिया. दिल्ली की सातों सीटें जीत. इनमें से एक सीट बाहरी दिल्ली से सांसद बने थे साहिब सिंह वर्मा. उन्होंने कांग्रेस के दीपचंद शर्मा को 2 लाख के अंतर से हराया. इस जीत के बाद अटल कैबिनेट का हिस्सा बनने के लिए वर्मा को तीन साल इंतजार करना पड़ा. दिल्ली के विधानसभा चनावों को ध्यान में रखते हुए साल 2002 में उन्हें लेबर मिनिस्टर बनाया गया. यहां ईपीएफ की ब्याज दरों में कटौती के प्रस्ताव के खिलाफ अड़ने पर उन्हें
अ बुल इन चाइन शॉप
जैसे पदबंधों से नवाजा गया.
2003 में वर्मा अटल सरकार में श्रम एवं रोजगार मंत्री बने.
एक संभावना का अचानक गुजरना
मंत्री चुनाव हारते हैं तो पहले पन्ने की दूसरी सुर्खी बनते हैं. साहिब सिंह वर्मा भी बने. 2004 के लोकसभा चुनाव में वह बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट कांग्रेस के सज्जन कुमार के हाथों हार गए. लगभग सवा दो लाख वोटों के बड़े अंतर से. सियासत है. हार जीत चलती रहती है. मगर एक अचानक हुई हार ने सब खत्म कर दिया. जिंदगी की हार. 30 जून 2007 को दिल्ली जयपुर हाईवे पर एक कार एक्सिडेंट में साहिब सिंह वर्मा का देहांत हो गया. उस समय साहिब सिंह बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे. साहिब सिंह गांव वालों के लिए शिक्षा की अहमियत समझते थे. इसीलिए जब मंत्री बने तो आईपी यूनिवर्सिटी के अलावा दर्जनों कॉलेज शुरू किए. मुख्यमंत्री बने तो हर गांव को लाइब्रेरी और स्कूल का विचार दिया. और जाते जाते जानिए. अपने आखिरी दौरे पर वह राजस्थान क्यों गए थे?
गांव वालों की जरूरतों को समझने और उनके कौशल को संवारने वाली एक यूनिवर्सिटी के विचार को मूर्त रूप देने के लिए.