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गणतंत्र दिवस नहीं 'वीर बाल दिवस' पर दिए गए 'प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार', क्या है इतिहास?

Pradhan Mantri Rashtriya Bal Puraskar 2025: ऐसा पहली बार हुआ है जब ये पुरस्कार गणतंत्र दिवस की बजाय ‘वीर बाल दिवस’ यानी 26 दिसंबर को दिए गए हैं. जानों क्यों मनाया जाता है 'वीर बाल दिवस' और कब से शुरु हुआ पुरस्कार देने का सिलसिला.

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राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने 17 बच्चों को ‘प्रधानमंंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ से सम्मानित किया. (फोटो: ANI('X')

गणतंत्र दिवस से पहले राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु (Draupadi Murmu) ने राष्ट्रपति भवन में 17 बच्चों को ‘प्रधानमंंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ (Pradhan Mantri Rashtriya Bal Puraskar 2025) से सम्मानित किया. वहीं, PM मोदी ने दिल्ली के भारत मंडपम में आयोजित ‘वीर बाल दिवस कार्यक्रम’ (Veer Bal Divas) में हिस्सा लिया और पुरस्कृत बच्चों से मुलाकात की. ऐसा पहली बार हुआ जब ये अवॉर्ड गणतंत्र दिवस की बजाय ‘वीर बाल दिवस’ यानी 26 दिसंबर को दिया गया है. बता दें कि 9 जनवरी, 2022 को पहली बार PM मोदी ने गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व के मौके पर 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाने का एलान किया था.

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इस बार अवॉर्ड के लिए देशभर से 17 बच्चों को चुना गया था. इनमें 7 लड़के और 10 लड़कियां शामिल हैं.

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क्यों मनाया जाता है ‘वीर बाल दिवस’?

साल 1699. सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की. उनके बढ़ते प्रभाव के चलते मुगलों की नजर पंजाब के आनंदपुर साहिब पर पड़ी. 1704 में औरंगजेब ने वजीर खान के नेतृत्व में सेना को आनंदपुर पर धावा बोलने के लिए भेजा. मई, 1704 में वजीर खान और जाबेरदस्त खान आनंदपुर पर डेरा डालने पहुंचे. अगले 6 महीनों तक उन्होंने आनंदपुर की घेराबंदी की. आनंदपुर के लिए राशन की सप्लाई बंद कर दी गई. 

आखिर में औरंगज़ेब ने गुरु गोबिंद सिंह और उनके परिवार को आनंदपुर से बाहर निकलने के लिए रास्ता देने की पेशकश की. साथ ही ये वादा किया कि मुग़ल फौज उनका पीछा नहीं करेगी. लेकिन जैसे ही गुरु गोविंद सिंह अपने परिवार के साथ आनंदपुर से बाहर निकले, औरंगजेब मुकर गया और मुग़ल फौज उनके पीछे लग गई.

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गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

पुराने सेवक ने दिया धोखा

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आंनदपुर से निकलते वक्त सिरसा नदी के पास गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिछड़ गया. उनके दो बेटे ज़ोरावर सिंह और फ़तेह सिंह, उनकी माता गुजरी जी के साथ पीछे छूट गए. वहीं, गुरु गोविन्द सिंह अपने दो बड़े बेटों, अजीत सिंह और जुझार सिंह के साथ चमकौर गढ़ी तक पहुंच गए. माता गुजरी जी के साथ ना कोई सैनिक था और ना ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकतीं. रास्ते में उन्हें उनका पुराना सेवक गंगू मिला जो पहले कभी गुरु महल की सेवा किया करता था. गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार तक पहुंचाएगा. तब तक वे उसके घर रुक जाएं. 

माता गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए, लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे. उस रात जब गुजरी जी सो रही थीं, गंगू ने उनके झोले से सोने के सिक्के चुरा लिए. और अगली सुबह बोला कि चोर आए थे. इतना ही नहीं, उसने पैसों के लालच में कोतवाली जाकर गुजरी जी और गुरु गोविन्द सिंह के दो बेटों की जानकारी भी कोतवाल तक पहुंचा दी. इसके बाद माता गुजरी जी के साथ 7 वर्ष की आयु के साहिबजादे जोरावर सिंह और 5 वर्ष की आयु के साहिबजादे फतेह सिंह को गिरफ्तार कर सरहिंद पहुंचा दिया गया. 

रात भर के लिए ठंडे बुर्ज में रखा

सरहिंद में वजीर खान ने गुजरी जी, ज़ोरावर सिंह और फ़तेह सिंह को एक कैदखाने में डलवा दिया, जिसे ‘ठंडा बुर्ज’ कहा जाता था. ठंडा बुर्ज इसलिए क्योंकि इस कैदखाने में सिर्फ सलाखें थी, जिनमें से रात भर ठंडी हवा चलती रहती थी. कहते हैं कि तब गुरु गोविन्द सिंह के एक शिष्य, बाबा मोती राम बच्चों और मां के लिए दूध लेकर गए थे. इसे लेकर सिखों में आज भी एक कहावत चलती हैं, 

“धन मोती जिस पुन्न कमाया, गुरु-लालन ताइं दूध पिआया ” 

रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खान के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया. कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने ज़ोर से जयकारा लगा- जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल.

इस्लाम कुबूल न करने पर दीवार में चुनवाया

सिख इतिहासकारों के अनुसार साहिबजादों के इनकार के बाद वजीर खान ने उन्हें जिंदा ही दीवार में चुनवाने का आदेश दे दिया. कहा जाता है कि वजीर खान के कहने पर दीवार को कुछ वक्त के बाद तोड़ा गया था. यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं. वजीर खान ने जब देखा कि दोनों साहिबजादों की कुछ सांस अभी बाकी है तो उन्होंने दोनों को जबरदस्ती मौत के घाट उतार दिया.

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साहिबज़ादे ज़ोरावर सिंह और फ़तेह सिंह (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

2022 से किया गया एलान

इतिहासकारों के मुताबिक, 26 दिसंबर, 1705 के दिन साहिबजादों को जिंदा ईंटों में चुनवाने का आदेश दिया गया था. इसलिए PM मोदी ने 2022 में जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह की शहादत की स्मृति में 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' मनाने की घोषणा की.

ये भी पढ़ें: गुरु गोबिंद सिंह के बेटों की हत्या का बदला कैसे लिया?

‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ की शुरुआत

सबसे पहले 1979 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से बाल कल्याण पुरस्कार की शुरुआत की गई थी. इसके बाद 1996 में राष्ट्रीय बाल शक्ति पुरस्कार की स्थापना की गई. 2018 में दोनों पुरस्कारों का नाम बदलकर प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार कर दिया गया. जिसे महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा जारी किया जाता है. पहले यह पुरस्कार भारत के राष्ट्रपति द्वारा 26 जनवरी को प्रदान किया जाता था. पुरस्कार पाने वाले ये बच्चे कर्तव्य पथ पर होने वाली गणतंत्र दिवस परेड में हिस्सा भी लेते थे.

किन्हें मिलता है ये पुरस्कार?

पुरस्कार के लिए विजेताओं का चयन एक समिति करती है. इसमें महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और कई दूसरे विभागों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ भी शामिल होते हैं. समिति ऐसे बच्चों का चयन करती है जिनकी उम्र 5 साल से ज्यादा और 18 साल से कम होती है. जो भारत के नागरिक हैं और देश में ही रहते हैं. नियमों के मुताबिक, पुरस्कार पाने वालों विजेताओं की अधिकतम संख्या 25 होती है, हालांकि चयन समिति इसे घटा-बढ़ा भी सकती है.

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार के हर विजेता 1 लाख रुपये का पुरस्कार मिलता है. इसके अलावा एक मेडल और एक सर्टिफिकेट दिया जाता है.

7 कैटेगरी में मिलता है पुरस्कार

अब तक यह अवॉर्ड छह कैटेगरी में दिया जाता था. इनमें आर्ट एंड कल्चर, बहादुरी, नवाचार (इनोवेशन), शिक्षा, सोशल वर्क और स्पोर्ट्स एंड एनवॉयरमेंट शामिल था. लेकिन अब इसमें साइंस और टेक्नोलॉजी भी जोड़ा गया है.

वीडियो: तारीख़: गुरु गोबिंद सिंह के दो बेटों को दीवार में जिन्दा चुनवा दिया गया था!

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