लोगों के बीच ये आम बात है. किसी एक्टर के बेटे-बेटी की तुलना करना उनके साथ. परेश रावल कहते हैं कि उन्हें इस बात की फ़िक्र नहीं है, क्योंकि आदित्य का अपना एक स्टाइल है, जो उन्होंने कई साल तक तराशा है. परेश अपने स्टाइल को थिएटर एक्टिंग का प्रोडक्ट बताते हैं. और आदित्य के स्टाइल को अपने स्टाइल से बहुत अलग बताते हैं-
"अगर दोनों को अलग से देखा जाए, तो असल में कोई तुलना नहीं है. लेकिन हां, लोग तुलना तो करेंगे. खैर, उसे अपनी आर्ट पर विश्वास है और कंट्रोल भी. वह हरेक कम्पेरिज़न को अच्छे से हैंडल करेगा."

आदित्य रावल और शालिनी पांडे फिल्म 'बमफाड़' के पोस्टर पर
आदित्य के एक्टर बनने में पिता का कितना बड़ा हाथ है?
एक्टर के बेटा-बेटी की मां-बाप से तुलना तो होती ही है. उसके अलावा दूसरी चुनौती है नेपोटिज़्म पर चलती हुई बहस. परेश कहते हैं कि सभी को उनकी मेहनत के हिसाब से आंकना चाहिए, न कि इस संयोग पर कि उनका प्रोफेशन उनके मां-बाप वाला है.
उन्होंने कहा -
"अगर एक डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं होता. वह भी आखिरकार मेहनत कर रहा है. पिस रहा है एक क्वालिफाइड डॉक्टर बनने के लिए. इस सबको नकार कर इसे नेपोटिज़्म कह देना सही नहीं है."वे आदित्य की मेहनत के बारे में बताते हैं -
"उसने नाटक लिखे हैं, जिन्हें इनाम मिले हैं. 'द क्वीन' को 'न्यूयॉर्क इनोवेटिव थिएटर अवॉर्ड' मिला. उसने कोर्स किए हैं. लंदन के इंटरनेशनल स्कूल ऑफ़ परफॉर्मिंग आर्ट्स' से. और न्यूयॉर्क के 'टिश स्कूल ऑफ़ द आर्ट्स' से. और फिर उसने बहुत सी फिल्मों पर स्क्रिप्ट राइटर का काम किया है. क्या इन सारी मेहनत को नकार देना सही है?"इसके बाद उन्होंने एक और तर्क दिया. कि अगर उन्होंने अपने बेटे को लॉन्च किया होता, तब नेपोटिज़्म कह सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है. आदित्य के लिए भी नहीं, और बड़े बेटे अनिरुद्ध के लिए भी नहीं.
'बमफाड़' फिल्म को डायरेक्ट किया है रंजन चंदेल ने. और प्रेज़ेंट किया है अनुराग कश्यप ने.

आदित्य रावल
जब परेश ने पहचाना बेटे का टैलेंट
आदित्य की हमेशा से एक्टिंग में रुचि नहीं थी. लिखने में भी नहीं. परेश बताते हैं -
"आदित्य एक स्टार फुटबॉल प्लेयर था. उसे टॉप पांच गोलची में गिना जाता था. उसके पहले वह क्रिकेट खेलता था. इसलिए ऐसा नहीं है कि उसने शुरुआत से एक्टिंग या लेखन के बारे में सोच रखा था. वह बचपन से देखते हुए बड़ा हुआ है. इसलिए उसके अंदर लिखने का नेचुरल टैलेंट था. एक दिन मैंने उसे एक स्क्रिप्ट लिखने के लिए कहा. बस देखने के लिए कि वह इसमें कितना अच्छा है. मैंने जो पढ़ा, मैं हैरान रह गया. मैंने उसे कहा कि फुटबॉल को भूल जा. तुझे लेखक बनना है."सिनेमा हॉल और ऑनलाइन के बीच कम्पेरिज़न पर परेश रावल कहते हैं कि केवल अच्छा कंटेंट चलता है. वे सिनेमा हॉल में फिल्म देखने के पारंपरिक स्टाइल की तरफ ज़्यादा आकर्षित होते हैं. लेकिन आज के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की ज़्यादा पहुंच है, इसलिए ज़्यादा स्कोप भी.
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