हालांकि आज उनकी तमाम फिल्मों के बीच 'जाने भी दो यारों' का नाम बिना वजह याद नहीं आ रहा. अक्सर फिल्म के निर्देशक कुंदन शाह और फिल्म की स्टार कास्ट दोहराती रही है कि दोबारा ऐसी फिल्म नहीं बन सकती. लोग आहत हो जाते हैं. ओम पुरी भी आहत थे. कुछ महीनों पहले उनकी बातों को मीडिया के एक हिस्से ने आधा-अधूरा दिखाया. इसके बाद उनको जिस तरह से ट्रोल किया गया, देशद्रोही जैसे लेबल उन पर चिपका दिए गए. वो रोए, फूट-फूट कर रोए. उस शहीद के घर पर गए जिसके अपमान का आरोप उन पर लगाया गया. उस गलती के लिए प्रायश्चित करते रहे जो उन्होंने की ही नहीं थी.
अभिनेता रजा मुराद ने बताया है कि वो शराब बहुत पी रहे थे. इसके चलते उनकी सेहत काफी खराब हो गई. वैसे ओम पुरी लंबे समय तक गहरे डिप्रेशन में थे. 2003 में घुटने की एक सर्जरी हुई जिसके बाद करीब 2 साल तक वो छड़ी के सहारे चलने को मजबूर रहे शारीरिक दिक्कतों ने उन्हें जो तोड़ा वो अलग मगर बॉलीवुड के काम करने के तरीकों ने भी हिंदी सिनेमा के इस खास अभिनेता को कम तकलीफें नहीं दीं.
ओम अक्सर कहते कि उनके सबसे बेहतरीन काम के लिए उन्हें पैसे नहीं मूंगफलियां मिली हैं. कुछ स्टार पुत्रों के लिए भी बोला कि सरनेम न होता तो कब के इंडस्ट्री से बाहर हो चुके हैं. इन सबका खामियाजा भी उन्होंने भुगता. काम मिलना कम हुआ. तमाम ऐसी फिल्में की जो उनके जैसा अभिनेता कभी अपने पोर्टफोलियो में नहीं दिखाता. मगर इन सबके बाद भी वो बदले नहीं, एक तबके की भाषा में कहें तो सुधरे नहीं.सुधरते भी कैसे, ढाबे पर प्लेट धोने वाला लड़का मेहनत करके सरकारी नौकरी पा लेता है. फिल्मों में काम करने के लिए वो क्लर्क की नौकरी छोड़ देता है, ये कहते हुए कि कुछ नहीं हुआ तो वापस प्लेट धोने लगूंगा. चेचक के दाग भरे चेहरे और ढंग की अंग्रेज़ी न जानते हुए भी ‘सिटी ऑफ जॉय’ ‘द रिलेक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ जैसी तमाम हॉलीवुड फिल्मों में काम करता है. आतंकवादी और पुलिस वाले के किरदार बराबर शिद्दत से निभा जाता है साथ ही 'चुप चुप के' 'मालामाल वीकली' जैसी मसाला फिल्मों में भी न भूलने वाली कॉमेडी कर जाता है. तमाम उपलब्धियों के बाद इंटरव्यू में बतता है कि उसकी ख्वाहिश बस एक ढाबा खोलने की है, जिसका नाम दाल-रोटी हो.
क्या आज भी ऐसी तंज कसती फिल्म बन बन सकती है.

सिटी ऑफ जॉय
ओम पुरी के जाने की खबर अभी टीवी पर चल रही और टिकर पर ऐसे तमाम लोगों के नाम सामने आ रहे हैं जो कुछ महीनों पहले ही सत्ता के गलियारों से अपनी नज़दीकियां बढ़ाने के लिए ओमपुरी जैसों के ऊपर पैर रख कर चढ़ रहे थे. उनकी फिल्मों और उनके सिनेमाई योगदान को थोड़ा फुर्सत से याद करेंगे और करते रहेंगे. अभी तो मिर्च मसाला का वो क्लाइमैक्स याद आ रहा है जहां दुनाली लिए ओमपुरी पूरे गांव के सामने खड़े रहते हैं वो पक्ष चुनते हुए जो उन्हें सही लगता है. कहते हुए कि.
बूढ़ा ही सही इस गांव में एक मर्द बाकी है.