कुछ हमलावरों ने ईरानी पार्लियामेंट औरअयातुल्लाह खोमैनी की कब्र पर एक साथ हमला किया. इन दोनों हमलों में 13 लोग मारे गए और करीब 35 लोग घायल हो गए. सुन्नी मिलिटेंट ग्रुप ISIS ने इसकी ज़िम्मेदारी ली है. चूंकि ईरान शिया मुस्लिम ज्यादा हैं तो माना ये जाता है कि सुन्नी संगठन इससे चिढ़ते हैं. पार्लियामेंट और अयातुल्लाह खोमैनी की कब्र दोनों जगह पर एक साथ हमला करने के पीछे हमलावरों का मकसद सरकार और उनके विरोधी कट्टरपंथियों के खिलाफ मोर्चा खोलना है. अयातुल्लाह खोमैनी ने ईरान को इस्लामिक रिपब्लिक बनाया था. अयातुल्लाह खोमैनी का इंतकाल 4 जून 1989 को हुआ था. तब से यहां लोग इस दिन खोमैनी की मज़ार पर आते हैं. यहां खोमैनी की कब्र के साथ-साथ उनकी बीवी खदीजा सक़ाफी और लड़के अहमद खोमैनी की भी कब्र है. अयातुल्लाह खोमैनी ने किस तरह वहां की सत्ता पर आसीन शाह रेज़ा पहलवी को बाहर कर दिया और खुद ईरान के सुप्रीम लीडर बन गए.
कहानी ईरान के उस नेता की जिसने देश पर इस्लामिक लॉ थोप दिया
ईरान की संसद पर हुए हमले के पीछे की राजनीति


ईरान में पार्लियामेंट के बाहर पुलिस सुरक्षा के लिए तैनात स्थिति में
फ्रांस में रहकर लिखी स्क्रिप्ट
1953 में अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसेद्देक को गद्दी से हटा दिया. इसकी जगह शाह रेज़ा पहलवी को गद्दी पर बैठा दिया. शाह पूरी तरह से वेस्ट सपोर्टर था और काफी हद तक अमेरिका के हाथों की कठपुतली भी. इसी बीच उसने 'व्हाइट रिवोल्यूशन' चलाया. जिसके तहत शाह ने अमेरिका की मदद से तमाम तरह के बदलावों लाने की कोशिश की. उसने भूमि सुधार शुरू किए और सरकारी अधिकारियों के लिए कुरान की शपथ खाने के नियम को खत्म करने की कोशिश भी की. यह बात अयातुल्लाह खोमैनी को पसंद नहीं आई. इसके अलावा एक औऱ बात जो खोमैनी को पसंद नहीं आई वो ये थी कि शाह ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर तमाम नियमों को पारित करना शुरू कर दिया. इसलिए खोमैनी ने इसका बड़े स्तर पर विरोध शुरू कर दिया. जिसके चलते इन्हें देश से बाहर निकाल दिया गया. देश निकाला मिलने पर खोमैनी इराक चले गए और वहां अल-नजफ शहर में बस गए. यहीं से खोमैनी ने शाह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. ईरान की जनता में लगातार शाह के खिलाफ विरोध का भाव बढ़ता जा रहा था. वेस्ट को ये पसंद नहीं आया. इसलिए उसने सद्दाम हुसैन पर दबाव बनाया कि वो खोमैनी को देश से बाहर निकाल दें. सद्दाम हुसैन ने खोमैनी को देश छोड़कर बाहर निकल जाने को कहा.

4 जून 2007 को अयातुल्लाह खोमैनी की मज़ार के बाहर ईरानी जनता 18वीं सेरेमनी में भाग लेते हुए
यहां से खोमैनी सीरिया जाने की सोचने लगे लेकिन उनके दोस्तों ने उन्हें राय दी कि मिडिल ईस्ट के देश में जाने पर उनके ऊपर नज़र रखी जा सकती है. इसलिए य़ूरोप के किसी देश में जाना ठीक रहेगा और वहां से यूरोपियन देशों के फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का अच्छा उपयोग किया जा सकता है. खोमैनी ने फ्रांस से शरण मांगी जो मिल भी गई. खोमैनी फ्रांस मेंं जाकर पेरिस के पास एक छोटे से कस्बे में रहने लगे. इनके समर्थक खोमैनी का रिकॉर्डेड टेप जनता तक संदेश के रूप में पहुंचाते थे औऱ शाह के खिलाफ ईरान की जनता को तैयार करते रहे.
खोमैनी की देश वापसी
ईरान में जनता की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही थी. शाह अपनी शाहखर्ची में डूबा हुआ था औऱ जनता भूखी मर रही थी. वेस्ट की ओर शाह के झुकाव के कारण भी लोगों में भारी नाराजगी थी. 16 जनवरी 1979 को शाह देश में बढ़ते हुए विरोध के चलते मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए देश छोड़कर भाग गये. अब खोमैनी के लिए रास्ता साफ हो चुका था. 1 फरवरी 1979 को खोमैनी वापस ईरान आ गए. चार दिन बाद उन्होंने सरकार बनाई और यहीं रहने लगे. दिसंबर में एक रेफरेंडम पास करके इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान बना दिया गया. खोमैनी ने पहले अपने राजनीतिक विरोधियों को खत्म किया. जिन लोगों ने शाह का साथ दिया था उन्हें फांसी पर चढा दिया. बाकी विरोधियों को भी या तो जेल में डाल दिया गया या फिर मार दिया गया और पूरी तरह से इस्लामिक लॉ लागू कर दिया गया. औरतों के लिए बुर्का पहनना ज़रूरी हो गया. वेस्टर्न म्यूज़िक और शराब पर पूरी तरह से रोक लगा दी. मशहूर लेखक सलमान रूश्दी की किताब 'सटैनिक वर्सेज़' के खिलाफ ईरान की तरफ से इसलिए फतवा जारी कर दिया क्योंकि इनका मानना था कि ये किताब इस्लाम विरोधी है.

अयातुल्लाह खोमैनी
शाह की फॉरेन पॉलिसी को भी पूरी तरह से बदल दिया. अपनी इस्लामिक पॉलिसी पड़ोसी देशों में भी खोमैनी ने पहुंचाने की कोशिश की. खोमैनी की लोकप्रियता ईरान में काफी थी. ये नाम ईरान का वो नाम बन चुका था जिसका बराबर दखल देश की राजनीति औऱ धर्म के मामलों में था. अभी ईरान में सुप्रीम लीडर अली खुमेनी भी उन्हीं के फॉलोअर हैं.
यूपी के बाराबंकी शहर में हैं जड़ें-
कहा जाता है कि खोमैनी के पूर्वज यूपी के बाराबंकी से रहे हैं. इनके दादा सैय्यद अहमद मूसवी हिंदी बाराबंकी के किन्तूर गांव के रहने वाले थे. 1790 में वो अवध के नवाब के साथ धर्मयात्रा पर ईरान गए हुए थे. उन्हें ईरान इतना पसंद आया कि वो वहीं खुमैन गांव में बस गए. इनके पिता भी धार्मिक नेता थे.
ये भी पढ़ेः
वो ईरान को हाफ पैंट से बुर्के तक लाया और फिर न्यूक्लियर बम पर बैठाकर चला गया
ईरानी प्रेसिडेंट के सामने नंगी मूर्तियों को कराया पर्दा
नौकरी करने के लिए सबसे धांसू कंपनियां, जहां आदमी का घर जाने का मन न करे