खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी को लेकर पंजाब पुलिस लगातार छापेमारी कर रही है. पंजाब के कई जिलों में अब भी धारा-144 लागू है. देश में हो रही इस कार्रवाई की चर्चा विदेशों में खूब हो रही है. खालिस्तान का समर्थन करने वाले इसका विरोध कर रहे हैं. 19 मार्च को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में अमृतपाल सिंह के समर्थन में रैली निकाली गई. कनाडा में भी कुछ सांसदों ने विरोध जताया है. पिछले कुछ सालों में विदेशों में रह रहे लोगों ने खालिस्तान की मांग के लिए खूब आवाज लगाई है. ये लोग रैलियां आयोजित कर रहे हैं, झंडा फहरा रहे हैं और जनमत संग्रह तक करवा रहे हैं. लेकिन ये सब पहली बार नहीं हो रहा है. इसका इतिहास काफी पुराना है.
खालिस्तान आंदोलन के विदेश में पहुंचने की पूरी कहानी, आजादी से पहले ही होने लगी थी मांग
विदेश में 'खालिस्तान पासपोर्ट' जारी होने लगा. उसके नाम से डाक टिकट और पैसे जारी किए गए.

साल 1930 के आसपास ही पंजाब में सिखों के बीच सिख होमलैंड की मांग उठने लगी थी. इस मांग को उठाने में सबसे आगे था ‘शिरोमणी अकाली दल’. 1920 में बना ये संगठन खुद को सिखों का प्रतिनिधि मानता था. और मानता था कि सिखों का अपना अलग देश होना चाहिए. साल 1940 में लाहौर प्रस्ताव पास हुआ. जिसमें मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने की मांग उठाई. मौका देखकर अकाली दल ने भी सिखों के लिए अलग देश की मांग उठाना शुरू कर दिया. पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखा,
“सिखों में ‘अलग राज्य’ की कल्पना हमेशा से ही थी. रोज़ की अरदास के बाद गुरु गोविंद सिंह का ‘राज करेगा खालसा’ नारा लगाया जाता है. इस नारे ने अलग राज्य के ख्व़ाब को हमेशा जिंदा रखा.”
आजादी के बाद हुए विभाजन ने अलग राज्य की उम्मीदों को धूमिल कर दिया था. हालांकि, इसकी मांग किसी ना किसी रूप में लगातार होती रही. लेकिन 'खालिस्तान' को लेकर एक चौंकाने वाली बात 1971 में सामने आई. तारीख थी 13 अक्टूबर. अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन छपा. इस विज्ञापन में खालिस्तान नामक नए देश की घोषणा की गई थी. और दुनिया भर में रहने वाले सिखों से मदद देने को कहा गया था. इस विज्ञापन को छपवाने वाले शख्स का नाम था, जगजीत सिंह चौहान. जगजीत 1960 के दशक से पंजाब की राजनीति में सक्रिय था. एक समय में पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर रह चुका था.
1969 में चुनाव हारने के बाद वो ब्रिटेन गया. और यहां उसने खालिस्तान के समर्थन में अभियान चलाना शुरू किया. जगजीत जिस खालिस्तान की मांग कर रहा था, उसमें पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के भी कुछ हिस्से आते थे. ब्रिटेन में जगजीत की मुहिम को कोई खास समर्थन नहीं मिला. इसी बीच 1971 का युद्ध हुआ और पाकिस्तान ने इस युद्ध में खालिस्तान आंदोलन को हवा देने की कोशिश की. जगजीत सिंह को पाकिस्तान आने का निमंत्रण मिला. यहां उसने फिर से खालिस्तान की बात की. जिसे पाकिस्तान की प्रेस ने खूब जोर-शोर से उछाला.

जगजीत के अनुसार, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसे प्रस्ताव दिया था कि ननकाना साहिब खालिस्तान की राजधानी बनेगा. अगले कुछ सालों में जगजीत की मुहिम को यूरोप और अमेरिका के एक सिख धड़े द्वारा समर्थन मिलने लगा और जगजीत की हैसियत बढ़ती गई. हालांकि, जगजीत की कोशिशों के बावजूद हिंदुस्तान में अभी तक अलग देश की मांग नहीं पैदा हुई थी. अकाली दल 'अलग राज्य' से हटकर पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह अनुच्छेद-370 के तहत विशेष दर्जे देने की मांग करने लगा.
इधर, अकाली दल पर नकेल कसने के लिए 1972 में इंदिरा गांधी ने सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया. जैल सिंह पंजाब में अकालियों का वर्चस्व तोड़ना चाहते थे. गुरुद्वारों, कॉलेज और स्कूलों में अकालियों का प्रभाव था. इसकी काट के लिए जैल सिंह ने सिख जनता को खुश करने के लिए सरकारी कार्यक्रम चलवाए. सिख गुरुओं के नाम पर सड़कों और स्कूलों के नामकरण हुए. शहीदी दिवसों पर सरकारी कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा. लेकिन ये सब भी काफी नहीं था. इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस की छवि इतनी खराब हुई कि 1977 में जैल सिंह पंजाब से रुखसत हो गए. अकाली दल एक बार फिर सत्ता में आ गया.
खालिस्तान का पासपोर्ट जारी कर दिया1977 में ही एक और शख्स की वापसी हुई. जगजीत सिंह चौहान भारत लौटा. यहां उसने खालिस्तान की मांग को हवा दी और 1979 में ब्रिटेन जाकर खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना कर दी. 1980 में उसने खालिस्तान नामक कथित नए देश का ऐलान कर दिया. इतना ही नहीं 'खलिस्तान हाउस’ नाम की एक इमारत से उसने कथित खालिस्तान के ‘पासपोर्ट’, ‘डाक टिकट’ और ‘खालिस्तान डॉलर’ भी जारी कर दिए. उसने ब्रिटेन और यूरोप के दूसरे देशों में कथित खालिस्तान के दूतावास भी बना डाले. इसी दौरान वो जरनैल सिंह भिंडरावाला के संपर्क में आया. इसी गठजोड़ से पंजाब में इस आंदोलन को हवा मिल गई.
भिंडरावाला को खालिस्तान मूवमेंट का चेहरा माना जाता है. लेकिन असल में इस मूवमेंट की जड़ें विदेश में थीं. जैसा कि पहले बताया कि जगजीत सिंह चौहान, जो ब्रिटेन में ‘खालिस्तान’ की घोषणा कर चुका था, उसने 1984 के बाद भी इस आग को जिंदा रखने की कोशिश की. इधर 1984 से लेकर अगले एक दशक तक पंजाब उग्रवाद की चपेट में रहा. लेकिन इस एक दशक में जनता भी इस अशांति से तंग आ चुकी थी.
धीरे-धीरे पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की आग बुझती चली गई. जगजीत सिंह के ऊपर राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगा. सरकार ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया. फिर 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उसे माफी मिली और वो भारत वापस आ गया. भारत आकर भी उसने खालिस्तान की मांग छोड़ी नहीं. बल्कि उसने खालसा राज पार्टी का गठन किया और बोला कि लोकतांत्रिक तरीके से खालिस्तान की मांग को आगे बढ़ाएगा. इस बार उसे कोई खास सपोर्ट नहीं मिला. 2007 में हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई.
इस तरह भारत में खालिस्तान आंदोलन लगभग खत्म होता गया. लेकिन जगजीत की लगाई आग, विदेशों में खूब फली-फूली. विदेशों में खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स, खालिस्तान लिबरेशन फ़ोर्स जैसे कई संगठन खड़े हुए. जिनमें से ज्यादातर को आतंकी संगठनों का दर्जा दिया गया. ये संगठन लगातार विदेशों में इस मुद्दे को उठाते रहे. जिसके चलते खालिस्तान की आग 21वीं सदी में भी पूरी तरह नहीं बुझ पाई है.
(ये स्टोरी हमारे साथी कमल ने लिखी है.)
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