नंबी नारायणन. ISRO के पूर्व वैज्ञानिक. उनपर जासूसी का झूठा आरोप लगाया गया. ग़ैरक़ानूनी तरीके से उन्हें गिरफ़्तार किया गया. कस्टडी में रखकर पुलिस ने उन्हें टॉर्चर किया. अपने साथ हुए सलूक के विरुद्ध नंबी अदालत गए. उसी केस को सलटाने के लिए केरल सरकार अब उन्हें 1.3 करोड़ रुपये का मुआवज़ा देगी. 26 दिसंबर को केरल में कैबिनेट ने इस मुआवाज़े के लिए अपनी मंज़ूरी दे दी है. ये रकम उस 50 लाख रुपये के मुआवज़े से अलग है, जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नंबी को दिया गया था.
ISRO Spy Case: जब एक वैज्ञानिक को पाकिस्तान के लिए जासूसी के झूठे इल्ज़ाम में फंसाया गया
नंबी नारायणन निर्दोष पाए गए. अब केरल सरकार मुआवज़े के तौर पर उन्हें 1.3 करोड़ रुपया देगी.

ये मामला जुड़ा है ISRO Spy Case से. जिसकी वजह से नंबी नारायण 24 साल तक अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहे. इंसाफ़ मिला, मगर करीब दो दशक से ज़्यादा समय बाद. क्या है ये मामला, विस्तार से बता रहे हैं आपको.
कौन हैं नंबी नारायणन, जिन्हें जासूस कहा गया नंबी नारायणन ISRO के क्रायोजेनिक डिवीज़न में काम करते थे. उन अंतिरक्ष कार्यक्रमों के लिए, जिनमें आगे चलकर इंसानों को अंतरिक्ष में भेजा जाना था. सरल भाषा में समझिए कि वो 1970 के समय से लिक्विड फ्यूल वाले इंजनों के क्षेत्र में काम कर रहे थे, जो आगे चलकर देश को बहुत फायदा पहुंचाते.
कहां से लगा जासूसी का इल्ज़ाम वो साल था 1994, जब ISRO जासूसी कांड की बात सामने आई. आरोप लगा कि नंबी नारायणन और डी. शशिकुमार समेत चार लोगों ने ISRO के स्पेस प्रोग्राम (अंतरिक्ष कार्यक्रम) के सीक्रेट्स दूसरे देशों को बेच दिए थे. अक्टूबल 1994 में केरल पुलिस ने मालदीव की एक महिला को पकड़ा. उसका नाम था, मरियम रशीदा. मरियम पर तय समय से ज़्यादा भारत में रहने का आरोप था. रशीदा से पूछताछ की पुलिस ने. और इसके बाद ही पुलिस ने ISRO के वैज्ञानिकों पर केस बनाया. पुलिस का कहना था कि वैज्ञानिकों ने मालदीव की औरतों के ज़रिये पाकिस्तान को क्रायोजेनिक इंजनों से जुड़ी ख़ुफिया जानकारियां बेची थीं.
इस मामले की शुरुआती जांच केरल पुलिस ने की. तकरीबन 20 दिन तक उनके पास रहा ये केस. फिर जांच सौंपी गई इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) को. उसके पास सीन में आया सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (CBI). दो साल बाद 1996 में CBI ने इस केस पर अपनी क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की. CBI ने कहा, कोई जासूसी नहीं हुई थी. ISRO से जुड़े सीक्रेट्स नहीं बेचे गए किसी देश को.

इसरो का लोगो
निर्दोष निकले नंबी
CBI ने नंबी को निर्दोष करार दिया. कहा, उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिला. ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला, जो साबित करे कि मालदीव की उन महिलाओं ने नंबी को पैसे दिए थे. इतना ही नहीं, CBI ने ये भी कहा कि IB ने ग़लत तरीके से जांच की. नंबी पर लगे आरोपों की अच्छे से तफ़्तीश ही नहीं की. इस वजह से वैज्ञानिकों की बहुत बदनामी हुई. नंबी और उनके साथी वैज्ञानिक निर्दोष तो साबित हुए. मगर उन्होंने बहुत यंत्रणा झेली थी. जासूसी का इल्ज़ाम लगना, पैसे लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चीजें दूसरे देशों को बेचने का आरोप लगना, उनके लिए ये बहुत तकलीफ़ देने वाली बात थी. समाज, संस्थान, हर जगह उन्हें अपमान झेलना पड़ा. उनकी मानसिक स्थिति क्या रही होगी, उनपर क्या कुछ बीती होगी, इसकी बस कल्पना की जा सकती है.
इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हुई बाद के बरसों में इस केस की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई की खूब मांग हुई. जांच होनी चाहिए थी. मगर ये जो मांगें थीं, उनके पीछे राजनैतिक ऐंगल था. मांग कर रहे थे के मुरलीधरन. जो 1994 में मुख्यमंत्री रहे के. करुणाकरण के बेटे थे. इस केस की वजह से करुणाकरण को CM का पद छोड़ना पड़ा था. उनके बाद AK एंटनी बने थे मुख्यमंत्री.
बाद में आरोप लगे कि जासूसी के मामले की जांच कर रहे कुछ अफसरों ने जान-बूझकर ऐसे हालात बनाए कि करुणाकरण को हटना पड़ा. इसके पीछे राजनैतिक साज़िश होने की बातें हुईं. हालांकि, बाद के दिनों में केरल के CM बने कांग्रेस नेता ओमान चांडी कुछ और कहते थे. उनके मुताबिक, करुणाकरण के इस्तीफ़े के पीछे ISRO वाला केस नहीं था. बल्कि राज्यसभा उम्मीदवारों के चयन में असहमतियां होने की वजह से करुणाकरण को जाना पड़ा था.

केरल के पूर्व मुख्यमंत्री के. करुणाकरण
नंबी की मुआवजे की लड़ाई हमने बताया. कि नंबी पर लगे आरोप ग़लत पाए गए थे. उनकी गिरफ़्तारी ग़ैर-क़ानूनी मानी गई. मगर निर्दोष पाए जाने के बावजूद नंबी का नाम डूब चुका था. उन्हें और उनके साथियों को करीब 50 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था. ये कोई सामान्य सी बात नहीं. किसी निर्दोष का जीवन बर्बाद कर दिया जाना, भूल जाने की बात नहीं हो सकती थी. कम-सम-कम इसका हर्ज़ाना देना तो बनता था. तो ये मामला पहुंचा अदालत में.
साल 1998 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. उसने नंबी और बाकी के लोगों को एक लाख रुपये का मुआवज़ा दिए जाने का निर्देश दिया. लेकिन नंबी इससे संतुष्ट नहीं थे. जो दिमागी उत्पीड़न उन्होंने सहा था, उसके लिए वो और हर्ज़ाना चाहते थे. नंबी पहुंचे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के पास. NHRC ने दस लाख रुपए मुआवज़ा देने का आदेश दिया. नंबी को ये भी कम लगा. वो फिर सुप्रीम कोर्ट गए. और इस बार अदालत ने कहा कि उन्हें 50 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाए.

अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का लोगो
इतनी लंबी लड़ाई क्यों? नंबी का कहना है कि उन्हें फंसाया गया था. अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसी CIA ने पुलिस और इंटेलिजेंस अफसरों की मदद से उन्हें फंसाया. बस इतना ही नहीं, बल्कि ISRO का भी नाम ख़राब किया. नंबी का कहना है कि क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन के क्षेत्र में भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा था. ये पूरी साज़िश उसी को रोकने के लिए हुई थी. नंबी नारायण ने केरल के पूर्व DGP सिबी मैथ्यू और बाकी अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की. सिबी मैथ्यू वो अफसर थे, जिन्होंने इस जासूसी कांड की जांच की थी. CBI ने भी अपनी रिपोर्ट में नंबी की गिरफ्तारी के लिए इन्हीं अफसरों को ज़िम्मेदार ठहराया था.
ये मामला मुआवज़ा मिल जाने पर ही ख़त्म नहीं होना चाहिए था. सो ये भी तय हुआ कि नंबी को फंसाने के मामले में पुलिस अधिकारियों की भूमिका की जांच होगी. इसके लिए एक न्यायिक कमिटी का गठन किया गया.

सिबी मैथ्यूज़, जो खुद को केस का पीड़ित बताते हैं.
न्याय में इतनी देरी क्यों? इसके जवाब के लिए आप कुछ मिसालें पढ़िए. ये 6 दिसंबर, 1993 की बात है. बाबरी मस्ज़िद ढहने की पहली बरसी पर एक ट्रेन धमाका हुआ. दो लोगों की मौत हुई. इस मामले में पुलिस ने एक 20 साल के लड़के को पकड़ा. नाम- निसारउद्दीन अहमद. लंबा मुकदमा चला. निसार पर कई इल्ज़ाम लगे. बरसों-बरस बीत गए और फिर साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निसार पर लगे आरोप साबित नहीं हुए. कि वो निसार है और बरी किया जाता है. 20 साल का निसार जब जेल से निकला, तो उसकी उम्र 43 साल हो चुकी थी. उसकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी थी. इसका क्या मोल, क्या क़ीमत, कोई हिसाब लगा सकता है क्या? जेल से रिहा होकर निसार बोला-
मेरी ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी है. आप जिसे देख रहे हैं, वो एक ज़िंदा लाश है.

तस्वीर में है निसार. बम धमाके में उसपर मुकदमा चला. 20 साल बाद जेल से रिहाई मिला. वो निर्दोष पाया गया था.
ऐसा ही एक मामला देहरादून का है. रतिराम पर 100 रुपये की घूस लेने का इल्ज़ाम लगा. इस आरोप के कारण उनके चार प्रमोशन रुक गए. केस चलता रहा. वो रिटायर भी हो गए. 1982 के इस केस में 32 साल बाद फैसला आया. रतिराम निर्दोष माने गए. मगर ये फ़ैसला आने के समय उनकी उम्र 74 साल की हो गई थी. 100 रुपये की रिश्वत लेने के झूठे आरोप ने उनका कितना कुछ ख़राब किया, कोई हिसाब हो सकता है क्या इसका?
हिसाब तो हनीफ का भी नहीं हो सकता. 29 मई, 2002. अहमदाबाद में पांच बसों के अंदर टिफिन ब्लास्ट हुए. मामले में क्राइम ब्रांच ने हनीफ नाम के एक शख्स को गिरफ़्तार किया. साल 2006 में हनीफ को अहमदाबाद ट्रायल कोर्ट ने 10 साल की सज़ा सुनाई. इस सदमे से अगले दो साल के अंदर हनीफ की मां और बीवी गुज़र गए. निचली अदालतों से होता हुआ ये मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट. फरवरी 2017 में वहां फैसला आया. अदालत ने हनीफ़ को निर्दोष माना और रिहा कर दिया. मगर बरी किए जाने तक हनीफ ने 14 साल जेल में बिता दिए थे. उसपर जो बीती, उसने जो खोया, इसका क्या हिसाब हो सकता है?

रिहाई के बाद अपने परिवार के साथ हनीफ (सफ़ेद कपड़ा पहने, बीच में)
इन सब मामलों में एक चीज़ कॉमन है. ये सारे निर्दोष थे. उन्हें ख़ुद को बेगुनाह साबित करने, न्याय पाने में उन्हें सालों-साल लग गए. नंबी के मामले में भी यही हुआ था.
ISRO का वो साइंटिस्ट, जिसे 24 साल पहले जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया