"1934 में जब असम में सर सैय्यद सादुल्लाह के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग की सरकार थी तब असम में मदरसा शिक्षा की शुरुआत हुई थी. हमारी सरकार ने कैबिनेट मीटिंग में एजुकेशन सिस्टम बदलने और वास्तव में सेक्युलर बनाने का निर्णय किया है. सभी मदरसों को बंद किया जाएगा और इसे सामान्य स्कूलों में तब्दील किया जाएगा."राज्य में कितने सरकारी मदरसे?
राज्य के मदरसा एजुकेशन बोर्ड (SMEBA) के मुताबिक, असम में 614 सरकारी मान्यता प्राप्त मदरसे हैं. SMEBA की वेबसाइट कहती है कि इनमें से 400 उच्च मदरसे, 112 जूनियर मदरसे और 102 सीनियर मदरसे हैं. इनमें 57 लड़कियों के लिए हैं, तीन लड़कों के लिए और 554 को-एजुकेशनल मतलब लड़के-लड़कियों दोनों के लिए हैं. इसके अलावा राज्य में करीब 900 प्राइवेट मदरसे हैं, जिन्हें जमीयत उलेमा की तरफ से चलाया जाता है. असम में राज्य द्वारा संचालित करीब 100 संस्कृत स्कूल हैं, जिन्हें टोल कहा जाता है.

असम राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड की वेबसाइट
कैबिनेट मीटिंग के बाद तय किया गया है कि स्टेट मदरसा एजुकेशन बोर्ड को एकेडमिक ईयर 2021-22 के रिजल्ट आने के बाद खत्म कर दिया जाएगा. इसके बाद सारे रिकॉर्ड्स, बैंक अकाउंट्स और सारे स्टाफ स्टेट एजुकेशन बोर्ड को ट्रांसफर कर दिए जाएंगे. संस्कृत विद्यालयों को भारतीय विरासत और सभ्यता केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा. दो साल पहले राज्य सरकार ने संस्कृत विद्यालयों और मदरसों को नियंत्रित करने वाली बॉडी में बदलाव किए थे. स्टेट मदरसा एजुकेशन बोर्ड के सभी मदरसों को सेकेंडरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन, असम के तहत और संस्कृत बोर्ड को कुमार भाष्कर वर्मा संस्कृत एंड एंशियंट स्टडीज यूनिवर्सिटी के अंतर्गत कर दिया गया था.
असम में अगले साल चुनाव भी प्रस्तावित हैं. आरोप लगाया जा रहा है कि जान-बूझकर मदरसों को टारगेट किया जा रहा है, क्योंकि इससे मुसलमान समुदाय जुड़ा है. वहीं, दूसरा पक्ष कहता है कि संस्कृत स्कूल भी तो बंद हो रहे हैं तो हिंदू-मुसलमान का सवाल ही नहीं उठता. तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या आधुनिक शिक्षा में धार्मिक शिक्षा का रोल होना चाहिए? धार्मिक शिक्षा को लेकर हमारा संविधान क्या कहता है और क्या असम सरकार का फैसला संवैधानिक है?
धार्मिक शिक्षा में सरकार की भूमिका पर संविधान क्या कहता है?
हमारा संविधान 'सेक्युलरिज़्म' की बात करता है. मतलब राज्य किसी धर्म में ना तो हस्तक्षेप करेगा और ना ही किसी धर्म को बढ़ावा देगा. संविधान राज्य की तरफ से धार्मिक शिक्षा की मनाही करता है. लेकिन अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार भी दिए गए हैं. मदरसों के संदर्भ में इसे और अच्छे से समझने के लिए संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 30 तक का ज़िक्र ज़रूरी है. अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की बात की गई है. वहीं, अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों के हितों की बात करते हैं. इनके बारे में आपको बताते हैं.
# अनुच्छेद 25 धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है.
# अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता की बात करता है. ये व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना और उसका पोषण करने, धर्म से जुड़े कार्यों का प्रबंध करने, चल-अचल संपत्ति अर्जित करने और उनके स्वामित्व का, संपत्ति का कानून के हिसाब से प्रशासन करने का अधिकार देता है.
# अनुच्छेद 27 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे टैक्स देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, जिनका इस्तेमाल किसी खास धर्म या धार्मिक संप्रदाय को बढ़ावा देना, उसका पोषण करने में किया जाए.
# और सबसे ज़रूरी अनुच्छेद 28, जो कहता है कि राज्य के फंड से पोषित किसी शिक्षण संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी. हालांकि राज्य द्वारा संचालित ऐसे संस्थानों को इससे छूट दी गई है, जो किसी ट्रस्ट के तहत बनाए गए हों. इसके अलावा राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य के फंड से पोषित शिक्षण संस्थाओं में उपस्थित होने या किसी अनुष्ठान में भाग लेने के लिए विद्यार्थियों को बाध्य नहीं किया जाएगा.
# अनुच्छेद 29 कहता है कि कोई अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्था में प्रवेश से नहीं रोका जाएगा.
# सबसे अंत में अनुच्छेद 30 जो कि अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार देता है. कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्था चला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करेगी.
साल 2002 में TMA पई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक सरकार' मामले में सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की एक बेंच ने अनुच्छेद 29 और अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पड़ताल की थी. अनुच्छेद 30 में सरकार की तरफ से अल्पसंख्यक संस्थाओं की फंडिंग पर कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यकों का ये अधिकार असीमित नहीं है. मतलब सरकार इन संस्थाओं को आर्थिक मदद करते हुए इन्हें कानूनी रूप से रेग्युलेट कर सकती है ताकि शैक्षिक गुणवत्ता से समझौता ना हो. लेकिन कोर्ट ने इस पर भी ज़ोर दिया कि इसकी वजह से अल्पसंख्यक संस्थाओं के अधिकार खत्म नहीं होने चाहिए.

मदरसे में खेलते बच्चे. (सांकेतिक तस्वीर)
लेकिन असम सरकार के फ़ैसले पर ये बहस बनी हुई है. संविधान के आधार पर तर्क दिए जा रहे हैं कि सरकार धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं दे सकती. उन्हें असम सरकार का फैसला सही लग सकता है. लेकिन ये भी कहा जा रहा है कि सरकार से आग्रह है कि वो अपने इस फैसले में सभी पक्षों को साथ लेकर चल सकें. मुस्लिम गुटों की चिंताओं का समाधान कर सकें. जानकार ये मांग उठाते हैं कि सरकार ये फैसला लेते हुए सुनिश्चित करे कि मदरसों और संस्कृत स्कूलों की जगह जो स्कूल आएंगे, उनमें बच्चों के सार्वांगीण विकास पर ध्यान दिया जाएगा. ये ज़रूरी है कि देश के सभी सूबों के बच्चों में वैज्ञानिक चेतना पैदा हो. उन्हें ऐसी शिक्षा मिले जो उन्हें नागरिक भी बनाए और रोज़गार भी दे.