हमने आज़ादी के बाद ब्रिटिश का वही सिस्टम फ़ॉलो किया है जो उन्होंने हमें दिया था. उसमें कोई बदलाव नहीं किया है. एक महार रेजीमेंट ज़रूर होती थी. लेकिन उसे वर्ल्ड वॉर 2 के बाद ख़त्म कर दिया गया. इन्फैंट्री को छोड़कर बाक़ी सब रेजिमेंट ऑल इंडिया ऑल क्लास हैं.हमने अपनी बात शुरू की थी कबीर दास के दोहे से. खत्म करते हैं राम धारी सिंह दिनकर की बात से. सुनिए उनके हवाले से कि कर्ण ने जाति के प्रश्न पर क्या जवाब दिया था - 'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड, मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड। नौजवानों, उठो और तैयारी करो. खूब खाओ, दौड़ो और बदन बनाओ. कोविड काल बीत गया है, भर्ती खुलने वाली है. अपने दम पर फौज में भर्ती होकर जो सुकून आपको मिलेगा, वो किसी जाति आधारित रेजिमेंट के बन जाने से नहीं मिल पाएगा. वैसे भी वहां जाकर आपको देखना झंडे की तरफ ही है. क्या फर्क पड़ता है कि रेजिमेंट के नाम में जाति है या नहीं?
सेना में अहीर रेजिमेंट क्यों नहीं हो सकती?
इंडियन आर्मी में Ahir Regiment क्यों नहीं बनाई जा रही?

इंडियन आर्मी में Ahir Regiment क्यों नहीं बनाई जा रही? (फोटो- इंडिया टुडे)
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान. अर्थात - जिस तरह लड़ाई में तलवार का महत्व होता है, मयान का नहीं; उसी तरह एक समझदार व्यक्ति के ज्ञान का महत्व है, न कि उसकी जाति का. इसीलिए साधु से कभी उसकी जाति नहीं पूछी जाती. कबीर दास का लिखा हमारा समाज आत्मसात कर लेगा, ये उम्मीद बेमानी है. तभी तो आज तक हम ये समझ नहीं पाए कि कौन सी बात जातीय स्वाभिमान के खांचे में बैठती है और कौन सी बात सामाजिक न्याय के खांचे में. भारी भरकम कंफ्यूज़न है. तभी तो आज़ादी के 75 साल बाद भी सेना में जातीय आधार पर एक और रेजिमेंट की मांग की जा रही है. समय समय पर अहीर रेजिमेंट की मांग सिर उठाती रहती है. नेता बयान देते रहते हैं. और इसी माहौल में 4 फरवरी से गुरुग्राम के खेड़की दौला टोल के पास धरना चल रहा है. कभी दिल्ली जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल फ्री करवाया जा रहा है तो कभी मार्च निकाला जा रहा है. आज समझेंगे कि अहीर रेजिमेंट की मांग के पीछे कारण क्या हैं? क्या इस मांग में दम है? और उस तर्क का जवाब भी तलाशेंगे, जिसमें कहा जाता है, जब इतनी जातियों की रेजिमेंट हैं, तो एक रेजिमेंट और सही. खेड़की दौला टोल के पास चल रहे धरने की मांग बड़ी सीधी है - सेना में जिस तरह जाट या सिख रेजिमेंट है, उसी तरह एक अहीर रेजिमेंट भी हो. इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है संयुक्त अहीर रेजिमेंट मोर्चा. इंडियन एक्सप्रेस पर छपी पवनीत सिंह चड्ढा की रिपोर्ट के मुताबिक मोर्चे को दक्षिण हरियाणा के अहीर समाज से आने वाले लोग चला रहे हैं. मार्च 2021 में इस मोर्चे को एक ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत करवा लिया गया था. इसी मोर्चे ने 2018 में भी 9 दिन लंबी एक भूख हड़ताल भी की थी. तब नेताओं के आश्वासन के बाद भूख हड़ताल समाप्त हुई थी. लेकिन इस बार मोर्चे के नेताओं का दावा है कि आंदोलन तभी रुकेगा, जब एक अलग अहीर रेजिमेंट बन जाएगी. आंदोलनकारियों ने आज एक मार्च भी निकाला जिसमें पार्टियों के नेताओं ने शिरकत की. गुरुग्राम ट्रैफिक पुलिस ने 21 मार्च को ही एक एडवाइज़री निकाल दी थी. इसके मुताबिक 23 मार्च को दिल्ली गुरुग्राम हाइवे पर भारी जाम रहने की आशंका थी. पुलिस ने एहतियातन हीरो हॉन्डा चौक से लेकर खेड़की दौला टोल तक की सड़क को आज सुबह 7 से शाम 5 तक के लिए बंद भी कर दिया था. हममें से ज़्यादातर लोगों को यही लगता है कि सेना जाति और धर्म से ऊपर है. वहां कोई भेदभाव नहीं होता. किसी को आरक्षण नहीं मिलता. सेना एक धर्मनिरपेक्ष और समरस समाज का उदाहरण है. और उसके लिए एक ही चीज़ का महत्व है - देश की सुरक्षा. कितने ही लोगों ने ये बातें स्कूल के दौरान निबंध में भी लिखी होंगी. ऐसे में आपको एक जाति के आधार पर अलग रेजिमेंट की मांग सरासर गलत लग सकती है. लेकिन फिर हमारे सामने अहीर रेजिमेंट मोर्चा का वो तर्क आ जाता है - कि जब जाट, डोगरा, राजपूत और महार रेजिमेंट हो सकती हैं, तो फिर अहीर रेजिमेंट क्यों नहीं हो सकती. अहीर रेजिमेंट मोर्चा की बात सही है. लेकिन आधी. ये बात सही है कि भारत की सेना में जाति के आधार पर भर्तियां होती हैं, रेजिमेंट भी हैं. लेकिन ये हमारे औपनिवेशिक इतिहास की देन है. जब हम अंग्रेज़ों के गुलाम थे. सेना और जाति के विषय पर सभी बिंदुओं को छूना एक बुलेटिन में संभव नहीं हैं. इसीलिए हम संक्षेप में अपनी बात रखेंगे. तीनों सेनाओं में से सिर्फ थलसेना में ही जाति आधारित रेजिमेंट हैं. और थलसेना में भी ये रेजिमेंट मुख्यतया इंफ्रेंट्री में देखने को मिलती हैं. माने पैदल सेना. तोपखाने और आर्मर्ड कोर में भी जाति आधिरित भर्ती के कुछ उदाहरण देखने को मिलते हैं, लेकिन प्रायः ये मिक्स्ड रेजिमेंट्स होती हैं. माने इनमें कोई भी भर्ती हो सकता है. सेना का ये स्वरूप कैसे बना, इसकी वजहें अनेक हैं. आज़ाद भारत के पास जो सेना है, उसे अंग्रेज़ों ने बनाया था. और अंग्रेज़ अपने लिए पूरी फौज इंग्लैंड से नहीं लाए थे. वो कुछ अफसरों और जवानों के साथ यहां आए. फिर उन्होंने भारत में अपने अनुभवों के आधार पर सेना का निर्माण किया. एक अच्छा उदाहरण है सिख रेजिमेंट का. सिख साम्राज्य से अंग्रेज़ों को तीन तीन बड़ी लड़ाइयां लड़नी पड़ीं. तब जाकर वो अपने अधीन कर पाए. इन लड़ाइयों के दौरान अंग्रेज़ अफसरों ने देखा कि सिख सैनिक महाराजा रणजीत सिंह जैसे कुशल रणनीतिकार के अभाव में भी बहादुरी से लड़ते रहे. तो उन्होंने सोचा कि सिखों से लड़ते रहने के बजाय उन्हें अपनी फौज में शामिल करना बेहतर होगा. इस तरह 1 अगस्त, 1846 को सिख रेजिमेंट को रेज़ किया गया. माने उसका गठन हुआ. अब ये समझने वाली बात है कि सिख रेजिमेंट में ज़्यादातर सिख ही शामिल हुए. लेकिन क्या अंग्रेज़ों की बनाई सारी रेजिमेंट्स में सिर्फ एक जाति या धर्म के लोग ही थे? इसका जवाब आपको मिलेगा राजपूत रेजिमेंट की कहानी में. 1778 में कानपुर में 31 बंगाल नेटिव इंफेट्री को रेज़ किया गया. पहले अफसर थे कैप्टन मसराक. और उनके तुरंत बाद आए मेजर सैम्युएल किलपैट्रिक. इन्हीं के नाम पर 31 बंगाल नेटिव इंफ्रेंट्री को कहा जाने लगा किलपैट्रिक की पल्टन. किलपैट्रिक की पल्टन को ही आज हम 3 राजपूत के नाम से जानते हैं. इसमें मुख्यतया उत्तर प्रदेश और बिहार से राजपूत, ब्राह्मण, मुस्लिम और सिख सैनिकों को भर्ती किया गया. कारण था - इन समाजों से आने वाले सैनिकों की ऊंचाई, रौबदार व्यक्तित्व और मार्च करने का तरीका. ऊंचाई और रौबदार व्यक्तित्व के लिए जाति नहीं चाहिए. लेकिन ध्यान दीजिए कि हम 18 वीं सदी की बात कर रहे हैं. तब के भारत में ऊंचाई और रौब के लिए पोषण चाहिए था. और पोषण के लिए संसाधन. तब समाज के सभी वर्गों के पास ये नहीं होते थे. आज जिन पल्टनों को हम 1, 2, 4 और 5 राजपूत के नाम से जानते हैं, उनका गठन 1825 तक हो गया था. और इन सबमें राजपूत, ब्राह्मण, मुस्लिम और सिख सैनिक ही मुख्यतया भर्ती किए गए. तो हमने देखा कि अंग्रेज़ों ने रेजिमेंट कैसे बनाईं, और जिन्हें उनमें भर्ती किया, उसके क्या कारण थे. इस भर्ती नीति में एक बड़ा बदलाव आया 1857 की क्रांति से. क्रांति ने अंग्रेज़ों को भीतर तक हिला दिया. अब वो किसी भी कीमत पर इतने बड़े विद्रोह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे. तब जॉनथन पील कमीशन बनाया गया. पील कमीशन का काम था ऐसे इलाकों और जातियों की पहचान करना, जहां से ''वफादार'' सैनिकों की भर्ती हो सके. चूंकि क्रांति पूर्व और दक्षिण के इलाकों से हुई थी, पील कमीशन ने सलाह दी कि भर्ती ऊत्तर और पश्चिम से की जाए. चूंकि 1857 की क्रांति में मुस्लिम सैनिकों और राजाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था, इसीलिए क्रांति के बाद अंग्रेज़ फौज ने मुस्लिम सैनिकों से दूरी बनानी शुरू कर दी. 1879 में एश्ले ईडन कमीशन आया, जिसने पील कमीशन की सिफारिशों को सही माना. और 1880 के दशक में मार्शल और नॉन मार्शल रेस का सिद्धांत दिया गया. मार्शल रेस माने वो जातियां, जो लड़ने के काबिल थीं और नॉन मार्शल माने वो जातियां, जो लड़ने के काबिल नहीं थीं. इस सिद्धांत के हिसाब से कोई व्यक्ति तभी बहादुर हो सकता था, जब वो एक बहादुर जाति या समाज से आता था. मिसाल के लिए सिख, पठान, बलूच, गोरखा और डोगरा. 1857 की क्रांति के बाद हुए सैनिक सुधारों के नतीजे में ही बंगाल आर्मी में चमार समुदाय के सैनिक कम किए गए और मज़हबी सिखों की संख्या बढ़ाई गई. वैसे ज़्यादातर मार्शल रेस अगड़ी जातियों को ही माना गया. इस तरह अंग्रेज़ों के ज़माने में जाति आधारित रेजिमेंट्स बनीं. कुछ रेजिमेंट्स में सिर्फ एक जाति से सैनिक लिए जाते, कुछ में दो या तीन जातियों से. ऐसी रेजिमेंट्स भी थीं, जो इलाके के आधार पर बनीं. मिसाल के अंग्रेज़ सेना के गढ़वाली सैनिकों को मिलाकर गढ़वाल रेजिमेंट बना दी गई. जिसमें आधुनिक उत्तराखंड के गढ़वाल इलाके के सैनिक शामिल हुए. 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध तक भर्ती का ये तरीका चलता रहा. लेकिन लंबे खिंचते युद्ध में ये देखा गया कि मार्शल रेस थ्योरी में ज़्यादा दम था नहीं. जाति और इलाके के आधार पर बनाई गई रेजिमेंट्स ने बेजोड़ वीरता का परिचय दिया, लेकिन इसका कारण उनकी पहचान नहीं, उनकी ट्रेनिंग थी. जहां ट्रेनिंग या मोटिवेशन में कमी थी, वहां जाति या इलाका काम नहीं आया. इन्हीं अनुभवों के आधार पर गौर ब्राह्मण, लिंगायत या चमार रेजिमेंट्स जैसे विचारों को त्याग दिया गया. ये ज़रूर देखने को मिला कि जिन कथित पिछड़ी जातियों से अंग्रेज़ फौज दूर रहती थी, युद्ध के समय उनसे बंपर भर्ती की जाने लगी. 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तो अंग्रेज़ सेना में जाति आधारित, इलाका आधारित और मिक्स्ड रेजिमेंट्स थीं. एक सवाल ये पूछा जाता है कि जब भारत में संविधान जाति का भेद नहीं करता तो फिर आज़ादी मिलते ही जाति आधारित रेजिमेंट्स को भंग क्यों नहीं कर दिया गया. इसका जवाब ये है कि भारत को आज़ाद होते ही बड़े-बड़े युद्ध लड़ने पर मजबूर किया गया. दुनिया तब कहती थी कि भारत जैसा विविध देश अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह पाएगा और हज़ार टुकड़ों में बिखर जाएगा. इसीलिए तब ये फैसला लिया गया कि सेना में अचानक कोई ऐसा बदलाव न किया जाए, जिससे उसकी ताकत या अनुशासन पर असर पड़े. जो भी सुधार किए जाएं, उनमें संयम रखा जाए. लेकिन ऐसा नहीं था कि सुधार किए नहीं गए. 15 जनवरी 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा आज़ाद भारत की सेना के पहले कमांडर इन चीफ बने. पहली बार सेना की कमान किसी भारतीय अफसर के हाथ में आई. इस दिन की याद में 15 जनवरी को सेना दिवस मनाया जाता है. फील्ड मार्शल करियप्पा एक दूरदृष्टा थे. वो जानते थे कि सेना की ताकत को बनाए रखना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है एक नए भारत के लिए सेना तैयार करना, जहां सैनिक, सिर्फ सैनिक हों - जाति, धर्म, इलाके का प्रश्न न उठे. फील्ड मार्शल ने नेशनल कैडेट कोर को मज़बूत किया और टेरिटोरियल आर्मी के गठन में अहम भूमिका निभाई. इन दोनों संगठनों में जाति या इलाके का मोल नहीं है. लेकिन फील्ड मार्शल का सबसे बड़ा सुधार था ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स. मेकेनाइज़्ड इंफ्रेंट्री की इस रेजिमेंट में सभी धर्मों, समुदायों और इलाके के लोगों को भर्ती किया जाता है. और ये प्रयोग सफल रहा. ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स, आज़ादी के बाद सबसे कामयाब रेजिमेंट्स में से एक है. और इसकी बहादुरी के किस्से, किसी दूसरी रेजिमेंट से कम नहीं हैं. यहां तक आते आते हम दो चीज़ें बहुत अच्छे से समझ गए हैं. कि सेना में जाति आधारित रेजिमेंट्स कैसे बनीं. और ये भी कि आज़ादी के बाद जाति आधारित रेजिमेंट्स क्यों नहीं बनीं. सीधा सा जवाब है, इनकी आवश्यकता महसूस नहीं हुई. ये देखा गया कि जाति से ज़्यादा महत्वपूर्ण है ट्रेनिंग और बहादुरी. और इन दोनों चीज़ों के लिए जाति या इलाका मायने नहीं रखता. एक और चीज़ समझिए. रेजिमेंट चाहे मिक्स्ड हो या प्योर. अफसर कोई भी हो सकता है. अफसर का कोई धर्म नहीं होता. जो रेजिमेंट के जवानों का धर्म है, वही अफसर का धर्म बन जाता है. मिसाल के लिए अगर किसी जाट पल्टन को मुस्लिम कमांडिंग अफसर मिल जाए, तो सीओ साहब सिर्फ मंदिर परेड का हिस्सा ही नहीं बनेंगे, वो यूनिट के यज्ञ में भी बैठेंगे और सारे विधि विधान पूरे करेंगे. जिस काम से भी ट्रूप मोराल बेहतर होता है, उसमें सीओ साहब ज़रूर शामिल होंगे. उनका निजी धर्म या मान्यता इसके आड़े नहीं आ सकता. ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं, जब अफसरों ने अपनी धार्मिक मान्यता से ठीक उलट काम किया, क्योंकि जवानों की मान्यता कुछ और थी. आज तक इस परंपरा का अपवाद सामने नहीं आया है. अब लौटते हैं आज के मुद्दे पर. अहीर समाज बंगाल से लेकर हरियाणा तक के पूरे पट्टे में बसता है. बड़ी संख्या है, और इस समाज के पास राजनैतिक प्रतिनिधित्व भी है. रही बात सेना में प्रतिनिधित्व की, तो सेना में अहीर बहुत बड़ी संख्या में पहले से हैं. अहीर समाज के लोग कुमाउं रेजिमेंट, जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स, पंजाब रेजिमेंट, राजपूताना रेजिमेंट और जाट रेजिमेंट में शामिल हो सकते हैं. बस इस बात का ध्यान में रखते हुए कि वो जिस इलाके में बसते हैं, वहां से कौनसी रेजिमेंट भर्ती करती है. सेना में अहीर समाज से आए सैनिकों की ढेरों शौर्य गाथाएं हैं. मिसाल के लिए 1962 ये युद्ध के दौरान हुई रेज़ांग ला की लड़ाई को लीजिए. 100 से ज़्यादा अहीर सैनिकों ने अंतिम बलिदान देकर चीन की विशाल सेना को दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया. ये सैनिक इसलिए नहीं लड़े कि वो अहीर थे. बल्कि इसलिए, क्योंकि पल्टन की इज़्ज़त का सवाल था. और पल्टन की इज़्ज़त से बड़ा सैनिक के लिए कुछ नहीं होता. चाहे वो अहीर हो या कायमखानी मुसलमान. अब आप पूछ सकते हैं. कि अगर ये सारी बातें सही हैं, तो फिर अहीर रेजिमेंट की बात आई कहां से. वहीं से, जहां से बहुत सारी समस्याएं आई हैं. वोट बैंक पॉलिटिक्स. अहीर समाज को एक भावुक नैरेटिव में बांधकर उनसे संसाधन और वोट जुटाए जा सकते हैं. और इसीलिए अलग अलग राजनैतिक पार्टियों ने इस मांग को शह दी. इसी साल की बात है. 12 फरवरी बसपा सांसद श्याम सिंह यादव ने लोकसभा में शून्यकाल के दौरान अहीर रेजिमेंट की मांग उठा दी. इन सारे बयानों का असर ये हुआ है कि अब युवा भी ये मानने लगा है कि सेना में भर्ती के लिए अहीर रेजिमेंट बनना ज़रूरी हो गया है. ये बात हमने यूपी चुनाव की अपनी कवरेज में भी देखी थी. जब जब अहीर रेजिमेंट की मांग उठी है, राजनैतिक दलों और नेताओं ने समझाइश देने की बजाय आग में घी डालने का काम किया है. नतीजा आप गुरुग्राम में देख ही रहे हैं. ऐसा इसीलिए है क्योंकि न पार्टियां और न नेता जाति को भुनाने का मोह छोड़ पाते हैं. रही बात जातीय स्वाभिमान के प्रश्न की, तो वो इस मामले में लागू नहीं होता, क्योंकि अहीर पहले से सेना में हैं. उन्हें सेना में लिया न जा रहा होता, तब इस मांग को स्वाभिमान का प्रश्न बनाकर रखा जा सकता था. इस मामले में विशेषज्ञ क्या सोचते हैं, हमने बात की ब्रिगेडियर संदीप थापर (रि) से उन्होंने हमें बताया