पहले समझिए नोट आखिर होता क्या है.
नोट मतलब वादा. इस बात का वादा कि अमुक सेवा या वस्तु की कीमत अदा कर दी गई. बड़ी सेवा, बड़ी कीमत मतलब बड़ी रकम या बड़ा नोट. नोट एक तरह से सरकार के भरोसे का प्रतीक है. इस भरोसे पर ही दुनिया चल रही है. दुनियाभर के अलग-अलग देशों में भले ही नोट के नाम अलग-अलग हों लेकिन उनका काम एक ही है. किसी वस्तु या सेवा की कीमत चुकाना. आप दफ्तर में नौकरी कर रहे हैं तो आपकी सेवा के लिए कंपनी पैसे देती है. घर के दाल-चावल से लेकर कार तक के लिए एक कीमत अदा की जाती है. इस भरोसे के सिस्टम को कायम रखना ही सरकार की ड्यूटी है. करेंसी या नोट को मैनेज करने के लिए भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया नाम की एक संस्था है. इसलिए आपके नोट पर एक गारंटी छपी होती है. दस रुपए के नोट पर लिखा होता है, ‘मैं धारक को दस रुपए अदा करने का वचन देता हूं’. गारंटी कौन देता है? रिज़र्व बैंक के गवर्नर. उन्हीं के साइन होते हैं नोट पर. यानी अगर नोट नहीं चला तो रिज़र्व बैंक आपको उतने मूल्य का सोना देगा. सिस्टम यही है, हालांकि इसका प्रोसेस बहुत लंबा है. और ये तभी होगा, जब सरकार फेल हो जाए, जो लगभग असंभव है. तो आपको जो नोट मिला है, उसके बदले में गारंटी RBI के पास जमा है.

नोट चाहें कोई भी हो उसका काम कीमत अदा करना ही है.
जब घर का बैंक है तो जितने चाहो, छापो नोट!
बचपन में मेरी छोटी बुद्धि का अर्थशास्त्र भी ऐसे ही सोचता था. जब घर का बैंक है तो नोट छापो और बांट दो. नौकरी और मार्केट की मारामारी का झंझट ही खत्म. बाद में पता चला कि ऐसा करने से भट्टा बैठ जाएगा. अर्थशास्त्री बताते हैं कि कोई भी देश मनमाने तरीके से नोट नहीं छाप सकता है. नोट छापने के लिए नियम-कायदे बने हैं. अगर देश में ढेर सारे नोट छपने लगें तो अचानक सभी लोगों के पास काफी ज्यादा पैसा आ जाएगा. किसी भी चीज की कीमत पैसों के मुकाबले कम होने लगेगी. इससे महंगाई सातवें आसमान पर पहुंच जाएगी. कुल मिलाकर यह डिमांड-सप्लाई का सिस्टम है. मतलब अगर पैसों की सप्लाई ज्यादा हो गई तो उनकी डिमांड घट जाएगी. पैसा अपनी कीमत खोने लगेगा. ऐसा ही कुछ दक्षिण अफ्रीकी देश जिम्बाब्वे में हुआ था. उन्होंने भी एक समय बहुत सारे नोट छापकर ऐसी गलती की थी. इससे वहां की करेंसी की वैल्यू इतनी गिर गई कि लोगों को ब्रेड और अंडे जैसी बुनियादी चीजें खरीदने के लिए भी थैले भर-भरकर नोट दुकान पर ले जाने पड़ते थे. नोट ज्यादा छापने की वजह से वहां एक अमेरिकी डॉलर की वैल्यू 2.5 करोड़ जिम्बाब्वे डॉलर के बराबर हो गई थी. दक्षिणी अमेरिकी देश वेनेजुएला में भी यही हुआ. वेनेजुएला के सेंट्रल बैंक ने अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए ढेर सारे नोट छाप डाले. इससे वहां महंगाई हर 24 घंटे में बढ़ने लगी, यानी खाने-पीने की चीजों के दाम रोजाना डबल हो जाते थे. बाजार में रोजमर्रा का सामान मिलना बंद हो गया. एक लीटर दूध और अंडे खरीदने की खातिर लोगों को लाखों नोट खर्च करने पड़ रहे थे. तो कुल मिलाकर ये ज्यादा नोट छापने का आइडिया है सुपर रद्दी.

दक्षिण अफ्रीकी देश की मुद्रा का हाल ये हुआ कि थोड़ा सामान लेने के लिए भी झोला भर के पैसे ले जाने होते थे. फोटोः सोशल मीडिया
अब सवाल ये उठता है कि नोट छापने का गणित क्या है
हमें नोट कितने और कब छापने हैं, यह रिजर्व बैंक तय करता है. इसे तय करने के लिए वह अपने पास मौजूद मुद्रा या रुपए की स्थिति और देश की आर्थिक स्थिति के आंकड़ों को मिलाता है. इसमें तालमेल बिठाकर उतने ही नोट छापता है, जिससे डिमांड-सप्लाई का संतुलन बना रहे और रुपए की कीमत न सिर्फ देश के मार्केट में बल्कि दुनियाभर में भी अच्छी बनी रहे. नोटों की छपाई मिनिमम रिजर्व सिस्टम के आधार पर तय की जाती है. यह प्रणाली भारत में 1957 से लागू है. इसके अनुसार RBI को यह अधिकार है कि वह आरबीआई फंड में कम से कम 200 करोड़ रुपये मूल्य के सोने और विदेशी मुद्रा का भंडार हमेशा बनाए रखे. इसमें से कम-से-कम करीब 115 करोड़ रुपये का सोने का भंडार होना चाहिए। इतनी संपत्ति रखने के बाद आरबीआई सरकार की सहमति से जरूरत के हिसाब से नोट छाप सकती है. सोना और विदेशी मुद्रा इसलिए क्योंकि सोने को दुनिया की किसी भी मुद्रा में कभी भी बदला जा सकता है. विदेशी मुद्रा इसलिए क्योंकि इससे किसी भी संकट के वक्त दूसरे देशों से जरूरत का सामान मंगाया जा सके.

क्या है 2000 रुपए के नोट न छापने का चक्कर
इस पूरी कहानी को समझने से पहले समझिए कि कौन-सी रिपोर्ट है, जिससे लोगों को लग रहा है कि 2000 का नोट बंद होने वाला है. आरबीआई ने 25 अगस्त को अपनी वित्त वर्ष 2019-20 की रिपोर्ट जारी की है. उसमें बताया गया है कि 2019-20 में 2000 का कोई नोट नहीं छापा गया. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2000 रुपए के नोट मार्केट से कम होते जा रहे हैं. मार्च 2018 के खत्म होते वक्त जहां मार्केट में 2000 के 33,632 लाख नोट चलन में थे. मार्च 2019 में ये घटकर 32,910 लाख और मार्च 2020 में घटकर 27,398 लाख ही रह गए. जानकारों के अनुसार, इसे भले ही लोगों द्वारा इन नोटों की जमाखोरी कहा जाए लेकिन इसे नोट के चलन से बाहर हो जाना कतई नहीं माना जा सकता.
जब 8 नवंबर 2016 में सरकार ने नोटबंदी की थी और उसके बाद 2000 नोट के लाने की घोषणा की तो इस पर भी कई तरह से सवाल उठे. कई एक्सपर्ट्स ने सवाल उठाए कि इसकी वजह से काला धन बढ़ेगा. उनका कहना था कि बड़े नोटों की वजह काला धन जमा करना और आसान हो जाएगा. इस पर सरकार के समर्थक बाबा रामदेव ने भी सवाल खड़े किए थे. उनका कहना था कि इस नोट को तत्काल बंद कर देना चाहिए. लेकिन सरकार ने नोट वापस नहीं लिया.

(फोटो: रॉयटर्स)
क्यों गायब होते जा रहे हैं 2000 रुपए के नोट
नोटों का छापना और न छापना पूरी तरह रिजर्व बैंक पर निर्भर करता है. हालांकि 2000 के नोटों की जमाखोरी जरूर एक चिंताजनक ट्रेंड की तरफ इशारा करती है. दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स के प्रोफेसर सुधीर शाह ने 'दी लल्लनटॉप' को बताया कि-
बड़े नोटों का इस तरह से मार्केट से गायब हो जाना ब्लैकमनी के जमा होने की तरफ इशारा करता है. चूंकि बड़े नोटों में रकम को जमा करना आसान है और सबसे बड़ा नोट 2000 का ही है, ऐसे में काले धन के रूप में इसे जमा करके रखना और हिसाब-किताब से बाहर रखना ज्यादा सहूलियत भरा माना जाता है.असल में आरबीआई जरूरत के हिसाब से नोट छापने का काम करती है. कुछ नोट ज्यादा छापती है, कुछ कम. इसके पीछे कारण अर्थव्यवस्था की स्थिति के साथ-साथ नोट छपाई पर होने वाला खर्च भी हो सकता है. जी हां, नोट छापने पर भी खर्चा होता है. RBI एक रुपये के नोट को छोड़कर सभी करेंसी नोट को प्रिंट करती है. अपनी मार्च 2019 की सालाना रिपोर्ट में आरबीआई ने कहा है कि 200 रुपये के एक नोट को छापने पर 2.93 रुपये खर्च होते हैं. वहीं 500 के नोट की प्रिंटिंग कॉस्ट 2.94 रुपये और 2000 रुपये की लागत 3.54 रुपये बैठती है. मतलब 2000 रुपए का नोट छापना महंगा भी पड़ता है. इसे लेकर उस वक्त के इकॉनमिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने जनवरी 2019 में ही ट्वीट करके बता दिया था कि- "हमारे पास 2,000 रुपये के पर्याप्त नोट हैं, जिनकी कीमत अर्थव्यवस्था में 2,000 रुपये के प्रचलन में 35 प्रतिशत से अधिक है। हाल ही में 2,000 रुपये के नोट छापने के बारे में कोई निर्णय नहीं हुआ है।"