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मांझी की घर-वापसी बिहार में दलित राजनीति के बारे में क्या बताती है?

कभी मांझी और नीतीश की ठन गई थी. अब फिर दोस्ती हो रही.

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क्या बिहार में एक बार फिर नीतीश-मांझी समीकरण दिखाई देगा? (फोटो- India Today)
भारत में एक मुहावरा खूब चलता है- हार्टलैंड पॉलिटिक्स. मानव शरीर में एक हार्ट होता है. लेकिन भारतीय राजनीति में दो हैं- उत्तर प्रदेश और बिहार. आज हम दूसरे दिल, माने बिहार की बात करने जा रहे हैं. और इस बात का सबब जानने के लिए आप पहले एक बयान पढ़िए.
"राजनीति संभावनाओं का खेल है. कौन, कहां, किस दल में जाएगा..कहा नहीं जा सकता है. और ख़ासकर ऐन चुनाव के अवसर पर. नीतीश कुमार जी के साथ भी बात हो सकती है कि हां साब, सम्मानजनक सीट मिल जाए. कुछ लोग कहते हैं कि पार्टी का विलय करना चाहते हैं. हिंदुस्तान अवाम मोर्चा फिलहाल विलय की स्थिति में नहीं है."
राजनीति संभावनों का खेल है, ये बताने वाले ये नेता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं. मांझी संभावना जता रहे हैं फिर से नीतीश कुमार से गले मिलने की. खबरें आ रही हैं कि मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, जिसे प्यार से ‘हम’ कहा जाता है, उसका जेडीयू में विलय हो सकता है. नेताओं की अपनी स्मृतियां कितने कम समय तक हावी रहती हैं, इसका जीता जागता उदाहरण. इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि नेता तो ये समझते हैं कि वोटर की याद्दाश्त तो कमजोर होती ही है. ऐसा हम क्यों कह रहे हैं? आप पांच साल पहले दिया नीतीश कुमार का ये बयान देखिए. समझ जाएंगे.
"मुझसे ग़लती हुई है. मैं इस बात को स्वीकार करता हूं. इंसान से भूल होती है. हमारी मति मारी गई थी."

2014 में सीएम बने थे मांझी

नीतीश ये सब मांझी के लिए कह रहे हैं. और क्यों कह रहे हैं, इसकी कहानी अभी उतनी भी पुरानी नहीं हुई है. 20 मई 2014 की बात है. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के चार दिन बाद नरेंद्र मोदी को संसदीय दल का नेता चुनने का औपचारिक कार्यक्रम रखा गया था. इस दिन बिहार में भी एक बड़ा कार्यक्रम था. एक नए सीएम को शपथ लेनी थी. बिहार अमूमन खबरों की लाइमलाइट में रहने वाला राज्य है. लेकिन इस सीएम का नाम बिहार के बाहर लोगों ने ज्यादा नहीं सुना था. ये नए सीएम थे - जीतन राम मांझी.

लोस चुनाव में नीतीश की भूल

2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार से एक भारी राजनीतिक चूक हुई थी. उन्होंने मोदी की उम्मीदवारी के विरोध में एनडीए से अलग होकर लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया था. और इसका नतीजा ये निकला कि जेडीयू सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई. नीतीश को अपनी गलती समझ आ गई थी और अब वो अगले चुनाव यानी 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव की मजबूत रणनीति बनाना चाहते थे. इसलिए लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने 18 मई को इस्तीफा दिया और फिर 20 मई 2014 को जीतन राम मांझी को नया सीएम बना दिया.

इत्तेफ़ाक से सीएम

भारतीय राजनीति में इत्तेफ़ाक बहुत देखने को मिलते हैं. इत्तेफ़ाक, जैसे चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनना, इंद्र कुमार गुजराल का प्रधानमंत्री बनना. जीतन राम मांझी को भी ऐसा ही इत्तेफ़ाक कहा गया. चुनावी पंडितों की बात तो दूर, खुद जीतन राम मांझी को भी एक-दो दिन पहले तक नहीं पता था कि वो बिहार के अगले सीएम बनेंगे. लेकिन नीतीश ने जीतन राम मांझी को ही सीएम क्यों बनवाया, इसे लेकर टिप्पणीकारों का मत था कि नीतीश ने बहुत बड़ा दांव चला था. नीतीश आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के मास्टर माने जाते हैं. जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं, जो बिहार में महादलित माना जाता है. बिहार में मुसहर समुदाय के करीब दो फीसदी वोट हैं. नीतीश कुमार इस समुदाय के वोटरों को साधना चाहते थे. दूसरी तरफ नीतीश को लगा था कि उनका रिस्क कैल्कुलेटेड है. क्योंकि, भले ही सीएम मांझी हो, लेकिन सरकार तो फिर भी नीतीश ही चलाएंगे.

“मेरी मति मारी गई थी, जो मांझी को सीएम बनाया”

लेकिन कुछ ही महीनों में नीतीश की गणना उल्टी पड़ गई. मांझी ने खड़ाऊं रखकर राज नहीं किया. मांझी सीएम की ताकत को अपना हक समझने लगे. नीतीश से बात बिगड़ने लगी. कहा जाता है कि मांझी को बीजेपी ने अपने फेर में ले लिया था. नीतीश ने जब मांझी को सीएम बनवाया था, तो ये कार्यकाल नंबबर 2015 के चुनावों तक होना था, यानी करीब 18 महीने का. नीतीश को जल्दी ही अहसास हो गया कि उनसे फिर एक गलती हो गई है. नौ महीने बाद भी जीतन राम मांझी से मुख्यमंत्री का भार वापस ले ले लिया गया और उन्हें जेडीयू  भी निकाल दिया गया. तभी नीतीश कुमार ने कहा था कि मेरी मति मारी गई थी, जो मांझी को सीएम बनाया. कुर्सी जाने के बाद मांझी ने खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की. और इसमें जोड़ने लगे वो अपनी जातीय अस्मिता. मांझी कहने लगे कि नीतीश उन्हें सिर्फ रबर स्टाम्प सीएम बनाना चाहते थे. मांझी ने कहा था-
"उन्हें लगा कि जीतन राम मांझी को चीफ मिनिस्टर बना देंगे, तो वो रबर स्टाम्प हो जाएगा और जो चाहेंगे, वो कर लेंगे. हमारा स्वाभिमान जगा कि भई हम मुख्यमंत्री हैं. कल को ग़लत होगा, तो लोग हमको गाली देंगे. हम अपने स्वाभिमान के अनुसार काम करने लगे, तो उनके पेट में दर्द होने लगा. वो महादलित को, दलित को अपमानित करने का प्रयास कर रहे हैं."
जुलाई 2015 में मांझी ने हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा नाम की पार्टी बनाई. 2015 के विधानसभा चुनाव में वो खुद भी जहानाबाद की मखदुमपुर सीट और गया की इमामगंज सीट से चुनाव लड़े थे. लेकिन सिर्फ इमामगंज सीट ही जीत पाए. उनके अलावा कोई भी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा से नहीं जीत पाया. कुल मिलाकर, जीतन राम मांझी को सीएम बनने पर जो पहचान मिली थी, उसे वो कैश नहीं कर पाए. उन्होंने एनडीए से गठबंधन किया था. लेकिन 2019 का चुनाव वो आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन के साथ लड़े थे, जिसमें वो खुद गया सीट से लोकसभा चुनाव लड़े और हारे. उसके बाद से जीतन राम मांझी की सियासत सिमटी हुई ही दिख रही है. अब नीतीश कुमार पुरानी अदावतें भुलाकर एक बार फिर मांझी और उनके मुसहर समुदाय के दो-ढाई फीसदी वोट पर नज़र जमाए हैं.

अब बात श्याम रजक की

बिहार की दलित राजनीति के मुख्य किरदार सिर्फ मांझी ही नहीं हैं. एक और नाम है श्याम रजक का. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का झंडा उठाकर चलने वाले नेता श्याम रजक. 90 के दशक में जनता दल में आ गए. 1995 में फुलवारी शरीफ से पहली बार विधायक बने. लालू यादव के साथ 2009 तक रहे. श्याम रजक की गिनती कभी लालू यादव के सबसे करीबी नेताओं में होती थी. उन्हें लालू का खास कहा जाता था और उनके साथ रामकृपाल यादव की जोड़ी लालू के राम-श्याम के रूप में प्रचलित थी. लेकिन फिर आरजेडी छोड़कर जेडीयू में चले गए. 2010 में नीतीश सरकार में मंत्री बने. और फिर नीतीश कुमार की तीसरी सरकार में भी मंत्री रहे और अब एक बार फिर अपनी पुरानी पार्टी आरजेडी में आ गए हैं. अब श्याम रजक कह रहे हैं कि दलितों के मुद्दों को उठाया, इसलिए नीतीश कुमार को खटकने लगा था.
"मैं आज भावुक हो रहा हूं अपने घर आकर (आरजेडी के लिए). जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए हम राजनीति में आए थे, वो लड़ाई यहां से जाने के बाद भटक गई थी." - श्याम रजक
और जब श्याम रजक जेडीयू छोड़कर गए, तो उसके अलगे ही दिन जेडीयू ने भी तीन नेताओं को आरजेडी से तोड़ लिया. ये हैं प्रेमा चौधरी, महेश्वर यादव और डॉक्टर अशोक कुमार. ये तीनों ही आरजेडी से विधायक हैं.

चिराग के बयानों के क्या मायने?

दलित नेताओं की इस आवाजाही से दूर असली खेल चल रहा है नीतीश कुमार और चिराग पासवान में. रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी और नीतीश कुमार की जेडीयू, दोनों ही एनडीए का हिस्सा हैं. लेकिन पिछले कुछ दिनों से दोनों पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ मुखर हैं. रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान कोरोना को काबू करने में बिहार सरकार के काम-काजों पर सवाल उठाते रहे हैं. चिराग ने 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' यात्रा के दौरान जेडीयू को असहज करने वाले बयान दिए. बाढ़ को लेकर भी वो नीतीश सरकार में कमी निकाल रहे हैं, तो जेडीयू सांसद ललन सिंह ने चिराग पासवान को कालिदास बता दिया है. नीतीश से झगड़े की शिकायत चिराग ने दो-तीन दिन पहले बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से की, ऐसी भी खबरें हैं. सूत्रों से जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक चिराग पासवान और नीतीश कुमार में सीटों के बंटवारे को लेकर झगड़ा है. लोक जनशक्ति पार्टी विधानसभा चुनाव में कम से कम 43 सीटों पर लड़ना चाहती है, मगर नीतीश कुमार एलजेपी को 30 सीट से ज्यादा देने के पक्ष में नहीं है. सीटों के झगड़े के पार हमें इस राजनीति के कुछ और मायने भी दिखते हैं. बिहार वाले बताते हैं कि चिराग पासवान भविष्य की राजनीति में खुद को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर देखते हैं. तेजस्वी की तरह एनडीए में अगर किसी युवा चेहरे की तलाश की जाए, तो बात चिराग पर आती है. एनडीए के नेता ऐसा सोच रहे हैं या नहीं, ये तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कम से कम चिराग पासवान तो खुद को भविष्य के लिए इसी तरह से तैयार कर रहे होंगे. और सीएम का चेहरा बनने के लिए बड़ा जनाधार चाहिए. ज्यादा सीटें अगर एलजेपी को मिलती हैं, तो कम से कम वो 2025 के चुनाव में गठबंधऩ के लिए बेहतर डील कर सकते हैं. दूसरी तरफ नीतीश कुमार को चिराग पासवान खटक रहे हैं. क्यों खटक रहे हैं, इसमें कई सारी थ्योरी हो सकती हैं. एक थ्योरी ये भी है कि अगर चुनाव में जेडीयू और बीजेपी की सीटें बराबर आईं, तो सीएम बनाने को लेकर एलजेपी का झुकाव बीजेपी की तरफ होगा. यहां नीतीश को नुकसान है. एक थ्योरी ये भी है कि एनडीए चाहती है कि रामविलास पासवान, पप्पू यादव और औवेसी जैसे नेताओं की पार्टियों के साथ गठबंधन करके लड़ें, ताकि महागठबंधन के वोटों में सेंध लगाई जा सके.

बिहार की दलित पॉलिटिक्स यूपी से अलग

बिहार में दलित राजनीति वैसी नहीं है, जैसे यूपी में है. इसलिए बिहार में कोई दलित चेहरा भी स्थापित नहीं हो पाया. फिर चाहे वो रामविलास पासवान की बात हो या जीतन राम मांझी की. और ये ही चुनौती चिराग पासवान के लिए रहेगी. आजादी के बाद 70 के दशक तक बिहार के दलित वोटर कांग्रेस के साथ रहे. बाबू जगजीवन राम के कांग्रेस छोड़ने पर दलित वोट शिफ्ट हुए. 90 के दशक से दलित वोटर लालू के जनता दल औऱ फिर लालू की आरजेडी की तरफ चले गए. 2005 में सीएम बनने के बाद नीतीश कुमार ने दलितों का बंटवारा कर दिया. महादलित एक वर्ग बना दिया, जिसे मोटा-मोटी ये कह कहते हैं कि दलित माइनस पासवान महादलित में आते हैं. इसके बाद दलित वोट जेडीयू की तरफ शिफ्ट हुआ. उसके बाद से हर चुनाव में दलित वोटों को जोड़ने का गणित बिहार की राजनीति में चलता रहता है. बिहार में करीब 16 फीसदी दलित वोटर हैं और उसी पर मजबूत पकड़ के लिए अब नीतीश कुमार को अपने पुराने दुश्मन जीतन राम मांझी से भी करीबी बढ़ानी पड़ी है. बिहार में संक्रमण और बाढ़. दोनों का तगड़ा असर है. त्राहिमाम है. लेकिन सियासत है कि रुकने का नाम नहीं ले रही. और इसलिए हम छोड़े जाते हैं आपको धूमिल की एक कविता के साथ..
"एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूं- 'यह तीसरा आदमी कौन है?' मेरे देश की संसद मौन है."

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने कहा- बिहार में विधानसभा चुनाव तय समय पर ही होंगे