
कश्मीरी पंडितों के असली गुनाहगार कौन हैं?
कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया, कश्मीरी पंडितों ने उससे भी भयावह भोगा!

कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया, कश्मीरी पंडितों ने उससे भी भयावह भोगा! (फोटो- इंडिया टुडे)
द कश्मीर फाइल्स को लेकर दिन रात तर्क से तर्क टकरा रहे हैं. लड़ते-भिड़ते तर्क कब कुतर्क हो जा रहे हैं, ये तर्कधारियों को भी नहीं पता. एक धड़ा है जो फिल्म के बहाने मुस्लिमों को निशाने पर लेने में लगा है. कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों की बात कर रहा है. तो दूसरा धड़ा सवाल पूछ रहा है कि जब कश्मीरी पंडितों को निकाला गया तो केंद्र में किसकी सरकार थी ? वीपी सिंह की सरकार, जिसे 80 सांसदों वाली बीजेपी का समर्थन मिला हुआ था. और नाम लिया जा रहा है बीजेपी नेता और तब के राज्यपाल जगमोहन का भी. कुल मिलाकर ढेर सारा कंफ्यूज़न है. आज हम फिर इस कंफ्यूज़न को दूर करने की कोशिश करेंगे. ये जानेंगे कि विस्थापन के दौरान वास्तव में हुआ क्या था. वो कौनसे किरदार थे, जिन्होंने आंखें मूंदीं और पुनर्वास के दावों का क्या हुआ. लेकिन कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को आप एक टाइम बम की तरह समझ सकते हैं. जो अचानक नहीं फटा था. उसका काउंटडाउन बहुत पहले शुरू हो गया था. बस इस बात पर मतांतर है कि काउंटडाउन शुरू हुआ कब - स्वतंत्रता के वक्त, या फिर कश्मीर पर डोगरा शासन के वक्त या फिर सदियों पहले, जब कश्मीर की डेमोग्रैफी बदलने की शुरुआत हुई. हमारा काउंटडाउन शुरू होगा 1987 से. जब जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोप लगे. और इससे उपजे असंतोष को घाटी में उग्रवाद पनपने की बड़ी वजह माना जाता है. अब आते हैं 1987 के चुनाव पर. उस वक्त सूबे में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार चल रही थी. मुख्यमंत्री थे फारूक अब्दुल्ला. और राज्यपाल थे जगमोहन. केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. ये एक ओपन सीक्रेट है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन ये चुनाव इसीलिए जीता, क्योंकि केंद्र से लेकर सूबे के तंत्र ने धांधली होने दी. घाटी में पाकिस्तान की आवाज़ बनने वाली हुर्रियत कांफ्रेंस में शामिल कई सारे दल, जैसे जमात ए इस्लामी, पीपल्स कॉन्फ्रेंस और इत्तिहाद उल मुस्लिमीन ने इस चुनाव में हिस्सा लिया था. सैयद सलाहुद्दीन ने भी इस चुनाव में श्रीनगर की अमीरा कदल से चुनाव लड़ा था. नतीजों में उसे हारा बताया गया. यही सैयद सलाहुद्दीन 1991 में हिजबुल मुजाहिदीन नाम के दुर्दांत आतंकवादी संगठन का सरगना बना. ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं. फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनकर सरकार चलाने लगे. लेकिन घाटी में माहौल बिगड़ता गया. बड़े पैमाने पर कश्मीर के युवा पाकिस्तान जाते और आतंकवादी बनकर लौटते. सितंबर 1989 से कश्मीरी पंडितों की टार्गेटेड किलिंग्स शुरू हुईं - भाजपा नेता टीका लाल टपलू, रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू, पत्रकार प्रेम नाथ भट्ट. लिस्ट लंबी होने लगी. दिसंबर 1989 आते आते पंडितों की हिट लिस्ट की चर्चा होने लगी. अगर आपका नाम हिट लिस्ट में है. पंडित दो दो बार मरने लगे. पहली बार हिट लिस्ट में नाम पढ़कर. और दूसरी बार जब हिट लिस्ट पर अमल किया जाता. दिसंबर 1989 में केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह जनता दल सरकार चला रहे थे, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दिया हुआ था. जम्मू कश्मीर के गवर्नर थे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल कोटिकलपुदी वेंकट कृष्णराव (रि.) अति हुई एक गुमनाम ऐलान के बाद, जो कथित रूप से हिजबुल मुजाहिदीन ने घाटी के अखबारों में छपावाया. इसमें घाटी से पंडितों को जाने को कह दिया गया था. कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से निकालकर जुलूसों में आगे चलवाया गया और कश्मीर की कथित आज़ादी के नारे लगवाए गए. माहौल बिगड़ते देख वीपी सिंह ने फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर दिया. और जम्मू कश्मीर के राज्यपाल का चार्ज एक बार फिर जगमोहन को दे दिया. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 19 जनवरी की रात मस्जिदों के लाउड स्पीकर्स से ऐलान होने लगा - रलीवे, सालिव या गलिवे. मतलब या तो इस्लाम कबूल करो, या फिर इस ज़मीन को छोड़ दो, या फिर मरो. 20 जनवरी की सुबह से कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ना शुरू कर दिया. 21 जनवरी को सीआरपीएफ की टुकड़ी की फायरिंग में 160 कश्मीरी मुस्लिमों की जान चली गई, जिसे गौकदल नरसंहार के नाम से बुलाया जाता है. इन सारी घटनाओं ने कश्मीरी हिंदुओं और कश्मीरी मुस्लिमों के बीच दरार को चौड़ा कर दिया. पाकिस्तान की तरफ से लगातार इस आग में घी डाला जाता रहा. पाकिस्तान की प्रधानमंत्री फरवरी 1990 में कब्ज़े वाले कश्मीर की राजधानी मुज़फ्फराबाद पहुंची. वहां खड़े होकर उन्होंने नियंत्रण रेखा के इस पार के कश्मीरियों को संबोधित किया. इसके बाद घाटी में पागलपन चरम पर पहुंच गया. विस्थापन को भोग चुके लेखक राहुल पंडिता के मुताबिक 7 मार्च को राज्यपाल जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों से घाटी में रुक जाने की अपील की. बावजूद इसके, ये तथ्य है कि मार्च और अप्रैल 1990 में ही सबसे बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ी. क्योंकि हत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. हर हत्या में जान एक शख्स की जाती थी. लेकिन उस शख्स को जानने वाले 10 लोगों की हिम्मत तोड़ देती थी. लोग घरों से निकले, तो उन्हें अपना सामान नहीं ले जाने दिया गया. औरतों ने औने-पौने दामों में गहने तो बेच दिए, लेकिन घर नहीं बिक पाए. कश्मीर की बर्फ के आदी कश्मीरी पंडितों ने मैदान की गर्मी पहली बार भोगी. इंडिया टुडे मैगज़ीन के लिए हरिंदर बवेजा साल 1992 में जम्मू कश्मीर गए. वो अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि विस्थापन के पहले ढाई साल में 430 पंडित लू लगने से मारे गए. नदी के किनारे तंबू थे. 24 लोगों की जान डूबने से गई. 12 लोगों की जान सांप और बिच्छुओं ने ले ली. मानसिक तनाव के मरीज़ बढ़ने लगे और लोग खुदकुशी के बारे में सोचने लगे. जिस जम्मू को हिंदुओं के लिए सुरक्षित माना जाता था, वहां रेफ्यूजियों के आते ही ज़मीन के भाव और मकान का किराया बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा. पंडित बहुत पैसे जोड़कर भी एकाध कमरे से ज़्यादा का इंतज़ाम नहीं कर पाते थे. सरकारी इंतजाम बेहद बेकार, तैयारियां नाकाफी. हाथ में कुछ था नहीं तो नौबत यहां तक आई कि महिलाओं को अपने गहने बेचकर गुजर-बसर करना पड़ा. रेफ्यूजी कैंप्स की मायूसी को इन तस्वीरों में देखिए.
एक छोटी सी बच्ची. मासूम चेहरा और बोलती आंखें. हाथ में एक गुड़िया, गुड़िया के माथे पर तिलक. प्यारी सी तस्वीर होती, अगर पीछे से कैंप न झांक रहा होता. जब हम लाइब्रेरी की तस्वीरों को खघांलते हैं तो हमारी नजर एक और तस्वीर पर ठिठक गई, जहां एक बच्चा आंसूओं से भीगे गाल के साथ जैसे अतीत को याद कर रहा था या फिर भविष्य की सोच कर बिलख रहा था. खैर लौटते हैं किरदारों पर. फारूख अब्दुल्ला सरकार के बर्खास्त होने के बाद साढ़े छह साल जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन रहा. जगमोहन मलहोत्रा के बाद गीरीश चंद्र सक्सेना गवर्नर बने. उनके बाद एक बार फिर जनरल केवी कृष्णराव (रि). इन्हीं के ज़माने में 1996 में एक बार फिर चुनाव करवाए गए. फारूख अब्दुल्ला फिर छह साल के लिए सीएम बने. यहां तक आते आते दिल्ली ने दो प्रधानमंत्री और देख लिए - चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव. फारूख अब्दुल्ला अक्टूबर 2002 तक जम्मू कश्मीर में सरकार चलाते रहे. इस दौरान एच डी दैवेगौडा, इंद्रकुमार गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. कश्मीर के संदर्भ में वाजपेयी का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि उनकी कश्मीर नीति ने नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ तारीफ पाई थी. वाजपेयी ने इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की बात की थी. आंतकवाद से बुरी तरह से प्रभावित कश्मीर में इस बयान को बड़ी उम्मीद से सुना गया था. बावजूद इसके विस्थापित पंडितों की हालत में ज़्यादा बदलाव नहीं हुआ. 2002 से 2008 तक मुफ्ती मुहम्मद सईद और गुलाम नबी आज़ाद तीन-तीन साल के लिए मुख्यमंत्री रह लिए. स्थिति जस की तस रही. ये तब की बात है, जब दिल्ली में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हो गए थे. घाटी की पार्टियां कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के साथ मिलकर हुकूमत करती रहीं. जिस पीडीपी ने कांग्रेस की गुलाम नबी आज़ाद को समर्थन दिया था, वही पीडीपी 2015 में भाजपा के साथ चली गई, ताकि उमर अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस को सत्ता से बाहर रख सके. ये देश में मोदी युग की शुरुआत का समय था.
भाजपा ने जून 2018 में महबूबा मुफ्ती का साथ छोड़ दिया और 6 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया गया. राज्य को दो हिस्सों में तोड़कर यूनियन टेरीटरी बना दिया गया. और अब तक दिल्ली से सरकार चल रही है. हालिया लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं मनोज सिन्हा. यहां तक आते आते हमने आपको जितने नाम गिनवाए, उन सब ने यही कहा कि कश्मीरी पंडितों के साथ न्याय करेंगे. ये सब मिलकर कितना न्याय कर पाए, अब इसपर आते हैं. कश्मीर के लिए लगातार राहत पैकेज का ऐलान हुआ है. 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए 3 हज़ार नौकरियों का ऐलान किया. इस योजना में तकरीबन डेढ़ हज़ार पंडितों को नौकरी मिली भी. इसी तरह का ऐलान 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने भी किया. मोदी सरकार के ऐलान में एक नई चीज़ थी ट्रांज़िट अकॉमोडेशन. माने कश्मीरी पंडितों को घाटी में दोबारा बसाने के लिए टाउनशिप्स. कितने पंडित वाकई वापस जा पाए, इसका अनुमान आपको एक दूसरे आंकड़े से मिलेगा. मार्च 2021 में सरकार ने संसद को बताया कि 1990 से 2021 तक 3 हज़ार 800 युवा कश्मीर वापस लौटे थे. मीडिया रिपोर्ट्स की पड़ताल करने पर नज़र आता है कि लौटे हुए लोगों में बड़ी संख्या उनकी है, जिन्हें राहत पैकेज के तहत घाटी में नौकरियां दी जा रही हैं. अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद पहले डेढ़ साल में तकरीबन साढ़े पांच सौ युवा इसी तरह वापस लौटे थे. 2021 में ही सरकार ने ये दावा भी किया था कि इन लोगों के लिए एक हज़ार घर बनाए जा चुके हैं और 6 हज़ार और बनाए जा रहे हैं. लेकिन अब भी घाटी लौटने से पहले कश्मीरी पंडित हज़ार बार सोचते हैं. क्योंकि सुरक्षा का अभाव है. कई कश्मीरी पंडितों ने जम्मू या देश के दूसरे हिस्सों में अपने लिए पक्के घर भी बना लिए हैं. ये सब छोड़कर वो कश्मीर जाने के बारे में तभी सोच सकते हैं, जब इस बात की गैरंटी हो कि अब उनके साथ कुछ बुरा नहीं होगा. ऐसा नहीं है कि जो कश्मीरी पंडित कश्मीर से दूर हैं, उनके सामने कोई समस्या नहीं है. उनके दुख को हथियार बनाकर जिस तरह राजनीति हो रही है, उसने ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि उनपर अब सिर्फ एक तरह की बात करने का दबाव बन गया है. द कश्मीर फाइल्स को लेकर सोशल मीडिया की चर्चाओं में ये साफ देखने को मिला. लेखक राहुल पंडिता ने ट्विटर पर अपने इस्टाग्राम अकाउंट से कुछ स्क्रीनशॉट शेयर किए. इनको हम बिना ब्लर किए दिखा भी नहीं सकते. भाषा के स्तर को आप समझ सकते हैं. इसे ट्वीट करते हुए राहुल पंडिता ने लिखा कश्मीरी पंडितों से सहानुभूति वाले रखने वालों का प्यार सुबह-सुबह उमड़ आया है. इसके बाद वही लोग जो कश्मीर पंडितों के नाम के कलमे पढ़ रहे थे, गालियां देने लग गए.
इंस्टाग्राम से बढ़कर वैसे ही लोग ट्विटर पर भी आ गए. शिकारा फिल्म के लिए उन्हें टारगेट किया जाने लगा. इसके अलावा इंडिया टुडे की संवाददाता पूजा शाली ने जब सरकार की पुर्नवास नीति पर सवाल किया, तो उनके लिए इस तरह से पोस्टर बनाए जाने लगे. कश्मीरी पंडितों का गद्दार कहते हुए फोटो वायरल किए गए. एक तरफ कश्मीर पंडितों से सहानुभूति का दिखावा और दूसरी तरफ अगर कश्मीरी पंडित सवाल पूछ ले तो उन्हीं को गाली. फूहड़ जिंगोइज्म का इससे नायाब नमूना आपको खोजने से भी नहीं मिलेगा.
