साल 2006. दिल्ली यूनिवर्सिटी का एक कॉलेज. लेडी श्रीराम. पांच सालों की लगातार कोशिश के बाद इस कॉलेज में एक छोटा सा बदलाव आया. क्या हुआ? एक रैंप बनाया गया. सीढ़ियों के साथ. ताकि व्हीलचेयर पर चलने-फिरने वाले स्टूडेंट भी उसका इस्तेमाल कर सकें. क्योंकि वो सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते.
विकलांग लोगों के खिलाफ़ आने वाला बड़ा फैसला पलटा, लेकिन लोग अब भी खुश क्यों नहीं?
क्या है RPwD एक्ट जिस पर बवाल हुआ और सरकार पीछे हट गई?

# किसी भी विकलांग व्यक्ति के साथ उनकी विकलांगता के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा.
# विकलांगता के आधार पर किसी भी व्यक्ति से उसकी निजी स्वतन्त्रता नहीं छीनी जाएगी.
# ये सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो विकलांगता के साथ जीवन-यापन कर रहे लोगों का ख्याल रखे, और उनकी आवश्यकताओं के हिसाब से उनके कल्याण के लिए जरूरी कदम उठाए.
# सरकार ऐसे कदम उठाए जो विकलांग लोगों को अब्यूज और नुकसान से बचाने में मदद करें.
अगर कोई इस एक्ट में बताए गए नियमों का उल्लंघन करता पाया जाता है, तो पहली दफे उसे दस हजार तक का जुर्माना और छह महीने तक की जेल या दोनों, और दूसरी दफे पांच लाख तक का जुर्माना या दो साल तक की जेल या दोनों होंगे. यही अपराध अगर किसी संस्था या कंपनी द्वारा किया जाता है, तो इस मामले से सम्बंधित सभी लोगों पर कार्रवाई होगी. सरकार ने क्या कहा जिस पर बवाल हुआ? जो चिट्ठी सरकार ने NGOs इत्यादि को लिखी, उसमें बदलाव सुझाने के साथ-साथ सरकार ने ये कदम उठाने के पीछे वजहें भी दी. सरकार के अनुसार:छोटे-मोटे दोषों और अपमानों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालना उन मामलों में से एक है जिन पर सरकार जोर डालना चाहती है.ऐसी हरकतों या चूकों के लिए जेल जाने का रिस्क, जो धोखेबाजी या बुरे इरादों से जुड़े नहीं हैं, निवेशकों को आकर्षित करने में एक बड़ा रोड़ा हैं.कानूनी प्रक्रिया में अनिश्चितता, और मामलों को सुलझाने में लगने वाला समय बिजनेस करने में आसानी को नुकसान पहुंचाता है. माइनर ऑफेंसेज (हल्का अपमान या गलती) के लिए जेल जाने जैसी आपराधिक पेनाल्टी एक डेटेरेंट (अवरोधक) के तौर पर काम करती है. ये बिजनेस की भावना को प्रभावित करने वाले बड़े कारणों में से एक है, और देशी के साथ-साथ विदेशी निवेशकों से आने वाले निवेश पर असर डालने वाला समझा जाता है. ख़ास तौर से COVID-19 के बाद उससे निपटने की स्ट्रैटजी को ध्यान में रखते हुए ये और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. ताकि आर्थिक विकास को पुनर्जीवित करने और न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने में मदद मिल सके.
भेदभाव बेहद सब्जेक्टिव होता है. इसे साबित करना बेहद मुश्किल. डिसएबिलिटी के साथ जी रहे लोग रोज भेदभाव झेलते हैं. ये साफ़ है कि अधिकतर लोग तभी कानून का सहारा लेते हैं जब कोई दूसरा उपाय नहीं बचता.लेकिन अगर मंत्रालय को ये लगा कि कुछ मामले आपस में बात करके सुलझाए जा सकते हैं, या कोर्ट के बाहर सेटल हो सकते हैं, तो उसे लिखित परिभाषाओं के साथ ये बताना चाहिए. कि किस तरह के मामलों में ऐसा किया जा सकता है और किस तरह के मामलों में नहीं. लेकिन प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक़ कमिश्नर्स और जजों के निर्णय के अनुसार ये मामले सेटल किए जा सकते हैं. इसे आप ऐसे समझिए. कि एक पॉकेटमार कोर्ट के बहार मामला सेटल करवा सकता है पीड़ित से, लेकिन क्या एक रेपिस्ट या कातिल को इसकी इजाज़त मिलनी चाहिए? क्या दोनों को एक ही नज़र से देखा जा सकता है?निपुण ने ये भी लिखा कि कई एक्टिविस्ट ‘दिव्यांग’ शब्द के इस्तेमाल की भी आलोचना कर रहे थे. कई लोग 2016 के एक्ट से भी खुश नहीं थे. जब एक्सेसिबल इंडिया कैम्पेन चलाया गया तब सबने इसकी तारीफ की थी. लेकिन ये अलग कहानी है कि जो भी वादा किया गया इसमें, वो पूरा नहीं हुआ. निपुण के अनुसार इस संशोधन की बात से एक ही मैसेज जाता है. और वो ये है कि अदालतें बहुत व्यस्त हैं और उनके पास विकलांग लोगों के लिए समय नहीं है. सतेन्द्र सिंह भी डिसएबिलिटी राइट्स एक्टिविस्ट हैं. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए गए स्टेटमेंट में उन्होंने लिखा,
“इस एक्ट के तहत दंड के नियम SC/ST समुदाय से आने वाले लोगों के लिए बनाए गए कानून की तरह काम करने के लिए बनाए गए थे. जिस तरह वो एक्ट बेहद कड़ा है, और इसलिए ये अपराधों के लिए एक अवरोधक का काम करता है. वैसे ही RPwD एक्ट को भी हमारे लिए यही करना था. दंड के नियम हटाने की बात करके सरकार न सिर्फ एक्ट को हल्का कर रही है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और संयुक्त राष्ट्र के साथ इसने जो वादा किया था, उसके भी खिलाफ जा रही है.”जब ये प्रस्ताव वापस लिया गया, तो सतेन्द्र सिंह ने अपने फेसबुक पोस्ट पर इसकी जानकारी देते हुए कहा कि ये डिसएबिलिटी सेक्टर की जीत है. दी लल्लनटॉप ने बात की आदित्य नरसिम्हन से. इनके भाई को ऑटिज्म है. एक्ट में संशोधन को लेकर उसके अधिकारों में क्या बदलाव आयेंगे, उसके लिए वो चिंतित थे. उन्होंने कहा,
"आप ज़रा सोच कर देखिए. आप सड़क पर जा रहे हैं. वहां एक विकलांग व्यक्ति है. अब अगर कोई आकर उस व्यक्ति को परेशान करना शुरू कर दे. तो वर्तमान कानून के अनुसार वो जेल में डाला जाएगा. लेकिन वर्तमान सरकार इस प्रावधान को हटाने की बात कर रही है. वो भी बिजनेस को बेहतर करने के नाम पर. मैं इकॉनमी का पूरा ख्याल करता हूं. इस देश का नागरिक हूं, लेकिन मुझे ये समझ नहीं आता कि इस तरह की हरकतों को अपराध की श्रेणी से हटाना किस तरह बिजनेस को बेहतर बना सकता है. इन्वेस्टमेंट ला सकता है. मेरे भाई हरि को ऑटिज्म है. मैं और मेरा परिवार, मेरी मां, उसके टीचर्स, हम सबने उसके अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है. सिर्फ उसके लिए ही नहीं, बल्कि इस एक्ट के तहत आने वाले सभी लोग जो किसी न किसी शारीरिक या मानसिक विकलांगता से जूझ रहे हैं. उनकी सुरक्षा के लिए ये एक्ट लाया गया था. अब सरकार इसे बदल देना चाहती है.”जब सरकार ने इसमें बदलाव के प्रस्ताव को वापस ले लिया. तब दी लल्लनटॉप ने उनसे इस बारे में भी राय ली. उन्होंने कहा,
"व्यक्तिगत तौर पर मैं इस बात से बेहद खुश हूं कि देश के लोग इस संशोधन को रोकने के लिए साथ आए. ये समर्थन मुझे भीतर तक छू गया. मुझे उम्मीद है कि इस कानून में और बदलाव आएंगे, लेकिन मुझे ज़मीनी हकीकत पता है. इसलिए मुझे मालूम है कि इन बदलावों को लागू करने में काफी समय लगेगा. हमें उस स्तर पर पहुंचने में कई सुधारों की ज़रूरत है, जहां पर विकलांगता के साथ रह रहे लोग समाज में सचमुच स्वीकृत महसूस करेंगे. सबसे पहले शुरुआत इससे करनी होगी कि हमारी इमारतें शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए सुविधाजनक हो जाएं. अभी ये अनिवार्य नहीं है, और ये नियम जल्द ही लागू करना चाहिए."दी लल्लनटॉप ने लक्ष्मी नरसिम्हन से भी बात की. ये स्पेशल एजुकेटर हैं. पिछले दो दशकों से डिसएबिलिटी और इसके अलग-अलग पहलुओं पर लोगों को जागरूक करती आई हैं. इनके बेटे को ऑटिज्म है. इन्होंने बताया,
“ये एक्ट वैसे ही बहुत देर से आया. इससे पहले जो एक्ट था वो 1995 में आया था. लेकिन इस नए एक्ट ने 21 प्रकार की विकलांगताओं को कवर किया. सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन की बात की. इसमें पेनल्टी के जो प्रावधान थे, वो ठीक थे. एक्ट चाहे जैसा हो, असलियत कुछ और होती है. अभी भी विकलांग लोगों के साथ काफी भेदभाव होता है. हायर एजुकेशन हो, जॉब हो, सबमें परेशानी होती है. प्रावधान बना दिए गए हैं, लेकिन उनका असर ग्राउंड पर नहीं दिख रहा.”क्या करना चाहिए इस एक्ट को और मजबूत बनाने के लिए. ये पूछने पर लक्ष्मी नरसिम्हन ने बताया कि डिसएबिलिटी सर्टिफिकेट मिलना एक तो बहुत मुश्किल है. विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के लिए बहुत ही कम सोशल स्कीम्स और सपोर्ट सिस्टम्स हैं, दूसरे देशों के मुकाबले. इन पर ध्यान देने की ज़रूरत है. संशोधन का प्रस्ताव वापस लेने की बात पर लक्ष्मी नरसिम्हन ने कहा कि वो इस बात से खुश हैं. कि लोगों की सामूहिक आवाज़ सुनी गई.
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