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क्या है ये 'आरपू', जिसके चलते मुफ़्त और अनलिमिटेड डेटा वाले दिन लदने वाले हैं

साथ में सांठ-गांठ की एक ऐसी कहानी, जिसके चलते कंपनियां हमेशा फ़ायदे में और ग्राहक हमेशा नुक़सान में रहते हैं.

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तो क्या 'प्री-जियो एरा' लौटने वाला है? (सांकेतिक तस्वीर: PTI)
भारती एयरटेल ने अपनी दूसरी तिमाही के परिणाम ज़ारी किए हैं. और इन परिणामों में ढेर सारी अच्छी बातें छुपी हुई हैं. मतलब हमारे लिए नहीं, कंपनी के लिए. उन अच्छी बातों में शामिल है-
# पिछले साल की इसी तिमाही की तुलना में (ईयर ऑन ईयर) कंपनी के राजस्व में 22% की शानदार बढ़त हुई है.
# घाटे में कमी. यानी जो घाटा पिछली साल इस तिमाही में 230.45 अरब था, अबकी वो घटकर महज़ 7.63 अरब रह गया.
# ARPU में ईयर ऑन ईयर 34 रुपये की बढ़त. मतलब पिछले साल इसी तिमाही में ARPU 128 रुपये था, अब वो 162 रुपये हो गया है.
अब इसे पढ़ते ही दो सवाल मन में आते हैं-
# ये ARPU क्या होता है?
# इस खबर का हमपर क्या असर होगा?
चलिए जानते हैं दोनों सवालों के उत्तर, आसान भाषा में.
27 अक्टूबर को एयरटेल ने अपने त्रैमासिक (जुलाई-सितंबर) परिणाम प्रस्तुत किए. (सांकेतिक तस्वीर: PTI) 27 अक्टूबर को एयरटेल ने अपने त्रैमासिक (जुलाई-सितंबर) परिणाम प्रस्तुत किए. (सांकेतिक तस्वीर: PTI)

# ये ARPU क्या होता है?
एक दुकान है लल्लन की. उसके बग़ल में एक दुकान है लल्ली की. लल्लन की दुकान टॉफ़ी की है. वहां रोज़ 100 के क़रीब कस्टमर आते हैं. और 2-3 रुपये की टॉफ़ी ख़रीदते हैं. यूं लल्लन कि रोज़ की बिक्री क़रीब 200 रुपये की है.
दूसरी तरफ़ लल्ली की दुकान कपड़ों की है. वहां हर रोज़ सिर्फ़ 10 के क़रीब ही ग्राहक आते हैं. लेकिन एक ग्राहक दो-तीन सौ रुपये की शॉपिंग कर जाता है. यूं लल्ली जब शाम को अपने गार्मेंट शॉप का गल्ला देखती है तो रोज़ की कमाई क़रीब 2,000 रुपये के लगभग बनती है.
देखा आपने. बावज़ूद इसके कि लल्लन की दुकान में ज़्यादा कस्टमर आते हैं, कमाई लल्ली की ज़्यादा है. क्यूं? इसलिए क्यूंकि जहां लल्लन की दुकान में प्रति व्यक्ति औसतन 2 रुपये खर्च करता है, वहीं लल्ली की दुकान में हर ग्राहक औसतन 200 रुपये खर्चता है.
यानी सिर्फ़ इस बात से ही किसी दुकान की बिक्री का पता नहीं लग सकता कि वहां कितने ग्राहक आते हैं. बल्कि इस बात का भी उतना ही महत्व है कि दुकान में आने वाला प्रत्येक ग्राहक, औसतन कितने रुपये खर्चता है.
इसीलिए टेलिकॉम इंडस्ट्री न केवल ये देखती है कि उसके कितने ग्राहक हैं या कितने ग्राहक हर महीने जुड़े. बल्कि ये भी देखती है कि हर ग्राहक, अपने फ़ोन बिल पर औसतन कितने रुपये खर्च कर रहा है. और इसे कहा जाता है आरपू. अंग्रेज़ी में बोले तो ARPU. मने, ‘एवरेज रेवेन्यू पर यूज़र’. प्रति उपभोक्ता औसत आय. यानी वही जो लल्लन के लिए 2 रुपया और लल्ली के लिए 200 रुपया था.
रिलायंस जियो के आते ही बाक़ी टेलीकॉम कंपनियों का ARPU ऐसे गिरा कि कइयों को तो अपना बोरिया बिस्तर तक समेटना पड़ गया. (तस्वीर: PTI) रिलायंस जियो के आते ही बाक़ी टेलीकॉम कंपनियों का ARPU ऐसे गिरा कि कइयों को तो अपना बोरिया बिस्तर तक समेटना पड़ गया. (तस्वीर: PTI)

अगर हम ख़बर में वापस लौटें तो पिछले साल इसी तिमाही की तुलना में एयरटेल का ARPU, 34 रुपये बढ़ा है. अब अगर मान के चलें कि एयरटेल का एक भी ग्राहक नहीं बढ़ा तो भी इस 34 रुपये को एयरटेल के ग्राहकों से गुना कीजिए ज़रा. 15 करोड़ ग्राहक भी लगा लें तो भी कुल कमाई में लगभग 510 करोड़ रुपये की वृद्धि.
और इसीलिए लल्ली, लल्लन और टेलीकॉम कंपनियां अपने यूज़र बेस पर ही नहीं, ARPU पर भी पैनी नज़र रखती हैं और उसे अपने त्रैमासिक-वार्षिक रिज़ल्ट्स में प्रदर्शित भी करती हैं.
# इस खबर का हमपर क्या असर होगा?
वो कहते हैं न कि एक का घाटा, दूसरे का प्रॉफ़िट. यहां पर भी कुछ ऐसी ही बात है. कैसे? शुरू से शुरू करते हैं.
चलिए बताइए आपके आसपास कितने लोग हैं जो मोबाइल यूज़ करते हैं?
आप कहेंगे कि ये सवाल ही ग़लत है. सवाल तो ये होना चाहिए कि आपके आसपास कितने लोग हैं जो मोबाइल नहीं यूज़ करते? मने अगर मोबाइल की फ़्लैश-लाइट ऑन करके भी ढूंढ़ने जाएंगे तो इक्का-दुक्का लोग मिलेंगे ऐसे. और, ‘जियो के आ जाने के बाद…’ से शुरू होने वाली हर बात ने तो अब मुहावरों का रूप ले लिया है. लोग हचक के मोबाइल यूज़ कर रहे हैं क्यूंकि डेटा और कॉलिंग सब-कुछ सस्ता हो गया है. लेकिन हर यूज़र को डर भी है, वो टाइड के विज्ञापन की तरह, ‘कब तक रहेगी सफ़ेद’. मने कब तक ये रेट सस्ते रहेंगे? और इसी सवाल का उत्तर छुपा है ARPU में.
अगर किसी टेलिकॉम कंपनी का ARPU बढ़ रहा है तो इसका मतलब साफ़ है कि उसकी प्रति ग्राहक से होने वाले आय बढ़ रही है. लेकिन इस फ़ैक्ट को यूं भी तो कह सकते हैं कि अब ग्राहक अपने मोबाइल (सर्विस) पर औसतन पहले से ज़्यादा खर्च कर रहे हैं. फ़िगर्स में बोलें तो एयरटेल का ग्राहक पिछले साल, 128 रुपये प्रति माह अपने मोबाइल बिल पर खर्च करता था. लेकिन इस साल उसके खर्च में 34 रुपये प्रति माह की बढ़त दर्ज हुई है और अब वो 162 रुपये खर्च करता है.
ARPU बढ़ने का मतलब, ग्राहकों के जेबें ज़्यादा ढीली होना. मतलब पहले के मुक़ाबले कम इंटरनेट का यूज़. (तस्वीर: PTI) ARPU बढ़ने का मतलब, ग्राहकों के जेबें ज़्यादा ढीली होना. मतलब पहले के मुक़ाबले कम इंटरनेट का यूज़. (तस्वीर: PTI)

अगर ये 34 रुपये आपको कम लगते हैं तो जान लिजिए कि टेलीकॉम कंपनियां अपना ARPU बढ़ाने के लिए अपने टैरिफ़ बढ़ाने पर कबसे विचार कर रही हैं. वो तो बीच में कंपटीशन आ जा रहा है वरना ये कब का हो जाता है. बल्कि कंपटीशन था तभी रेट सस्ते भी हुए. वरना वो दौर याद है न, ढाई सौ रुपये का एक जीबी डेटा.
फाइनेंशियल एक्सप्रेस के 29 अक्टूबर के अख़बार के फ़्रंट पेज की एक ख़बर
से पता चलता है कि जिस तरह ग्राहकों को टैरिफ़ बढ़ने का डर है उसी तरह टेलिकॉम कंपनियां बिल्ली के गले में घंटी बांधने से डर रही हैं. इस ख़बर के मुताबिक़, एयरटेल ने कहा है कि वो सबसे पहले टैरिफ़ नहीं बढ़ाएगी. एयरटेल ने जो कहा है, उससे तो दीवार का फ़ेमस डायलॉग याद आता है-
लेकिन मैं अकेले नहीं करुंगा. मैं सबसे पहले साईन नहीं करुंगा.
मैं अकेला टैरिफ़ नहीं बढ़ाऊंगा. मैं सबसे पहले टैरिफ़ नहीं बढ़ाऊंगा. मैं अकेला टैरिफ़ नहीं बढ़ाऊंगा. मैं सबसे पहले टैरिफ़ नहीं बढ़ाऊंगा.

दूसरी तरफ़ एयरटेल का ये भी कहना है कि जब तक ARPU 200-300 रूपये के फेर में नहीं आ जाता, तब तक टेलीकॉम कंपनियों का सरवाइव करना मुश्किल है.
आपको याद हो न हो, मुझे याद है जियो के आ जाने से पहले टेलीकॉम कंपनियों में न जाने क्या अंदरूनी सांठ-गांठ थी कि अगर एक कंपनी में कोई प्लान 198 रुपये का था तो दूसरी में 199 और तीसरी में 200 का. यानी ऑल्मोस्ट सेम रेट. पेप्सी और कोक के बीच भले ही कितना कंपटीशन हो, लेकिन रेट दोनों के सेम रहते हैं. जाते-जाते मैनजमेंट में पढ़ाए जाने वाले इस कॉन्सेप्ट को भी समझ लेते हैं, कि ऐसा क्यूं होता है?
# विन-विन सिचुएशन-
माताप्रसाद और कचरा दोनों थोक मंडी से प्याज़ ख़रीद के लाते हैं. 50 रुपये प्रति किलो के हिसाब से. माताप्रसाद उस प्याज़ को 100 रुपये में और कचरा उसी प्याज़ को 60 रुपये में बेचता है. माताप्रसाद ARPU का भक्त है और कचरा ‘इकॉनमी ऑफ़ स्केल’ का. मतलब कचरा मानता है हर किलो में छोटे-छोटे ही प्रॉफ़िट हों लेकिन इस रेट में उसके प्याज़ बिकेंगे भी तो ज़्यादा.
अब कचरा के दाम कम हैं, इसलिए उसके 9 किलो प्याज़ बिक जाते हैं, और यूं उसे 90 रुपये का प्रॉफ़िट होता है. जबकि मातप्रसाद शाम होने तक सिर्फ़ एक किलो प्याज़ बेचकर 50 रुपये का प्रॉफ़िट कमाता है.
लेकिन क्या इससे भी बढ़िया कोई स्ट्रेटेजी हो सकती है? कई होंगी. किसी में कचरा को ज़्यादा प्रॉफ़िट होगा किसी में माताप्रसाद को. पर एक स्ट्रेटेजी ऐसी है जिसमें दोनों के फ़ायदे में काफ़ी वृद्धि हो जाएगी. कैसे?
दोनों एक दिन मिलते हैं और तय करते हैं कि चलो हम दोनों ही 90 रुपये प्रति किलो के हिसाब से प्याज़ बेचेंगे. अब क्या होता है कि रेट सेम हैं दोनों के. तो दोनों के बराबर प्याज़ बिकते हैं. 5-5 किलो. लेकिन इस स्थिति में दोनों को 200-200 रुपये का फ़ायदा होता है. जो पहले होने वाले फ़ायदे से कहीं अधिक है. दोनों को. विन-विन सिचुएशन. और जब ये दोनों मिल गए तो रेट 90 क्या 100 या 110 भी कर सकते हैं. अगर मार्केट में प्याज़ बेचने वाले सिर्फ़ ये दो ही हैं.
प्याज़ के दामों में आग लगी हुई है. 'सो मच सो' कि बिहार में ये चुनावी मुद्दा बन चुका है. इसलिए हमने सोचा कि प्याज़ के उदाहरण से ही आपको ये कॉन्सेप्ट समझाएं. (तस्वीर: PTI) प्याज़ के दामों में आग लगी हुई है. 'सो मच सो' कि अब ये राजनीतिक मुद्दा बन चुका है. इसलिए हमने सोचा कि प्याज़ के उदाहरण से ही आपको ये कॉन्सेप्ट समझाएं. (तस्वीर: PTI)

इस तरह से, बावज़ूद इसके कि मार्केट में दो प्याज़ बेचने वाले हैं, आपसी गठबंधन करके कचरा-माताप्रसाद ने एक ‘मोनोपॉली’ ही निर्मित कर दी. और ये कब तक रहेगी? जब तक कोई ‘जियोप्रसाद’ उस मार्केट में प्याज़ बेचने न आ जाए. वो भी 50 का ख़रीदकर 40 में बेचने. उसके पास बहुत पैसा है. उसे तो माताप्रसाद और कचरा को मार्केट से आउट करना है. हालांकि जियोप्रसाद का इन दोनों से कोई बैर या दुश्मनी नहीं. वो तो इनको कंगाल करके मार्केट से आउट करना चाहता है ताकि जब अकेला रह जाए तो प्रॉफ़िट कमाए. जियोप्रसाद ‘लॉस लीडिंग स्ट्रेटेजी’ का क़ायल है. यानी जियोप्रसाद भी ठीक उसी तरह सिर्फ़ अपने प्रॉफ़िट की सोच रहा है जिस तरह एयरटेल और वोडफ़ोन, आई मीन माताप्रसाद और कचरा सोच रहे थे.
और ग्राहक? कभी वो दो बंदरों के बीच की लड़ाई में बिल्ली बनकर फ़ायदा उठाता है. कभी ‘दो पाटन के बीच में, जीवित बचो न कोई’ गाते हुए रोता है.


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