RU में एक निर्दलीय द्वारा NSUI-ABVP को हराना विधानसभा चुनाव के लिए क्या संकेत देता है?
अब तक जो यूनिवर्सिटी जीतता, उसी की सरकार बनती थी.

नवीन चौधरी प्राइवेट नौकरी वाले हैं. 14 साल से मार्केटिंग के पेशे में है. लेकिन राजस्थान की स्टूडेंट पॉलिटिक्स की हर ख़बर रखते हैं क्योंकि खुद भी उन गलियों से होकर आए हैं. जल्द ही राजस्थान छात्र राजनीति पर बेस्ड इनकी किताब भी आने वाली है - 'जनता स्टोर', नवीम ट्विटर हैंडल @naveen1003 पर चौड़ में एक्टिव रहते हैं.
राजस्थान विश्वविद्यालय छात्रसंघ के इतिहास में पहली बार एक निर्दलीय अनुसूचित जाति का अध्यक्ष बना है. इस साल जब राजस्थान में चुनाव हो रहे हैं इस परिणाम के कई मायने हैं खासकर तब जब ये इतिहास रहा है कि चुनावी साल में जो पार्टी जयपुर में छात्रसंघ जीती, उसी की सरकार बनी. अगर आप को नहीं पता हो तो बता दूँ राजस्थान विश्वविद्यालय का नया अध्यक्ष विनोद जाखड़ (मेघवाल) NSUI का बागी है. अब इसे आप NSUI की जीत मानें या ABVP की हार ये आप पर है क्योंकि अभी भी NSUI के मुकाबले ABVP ज्यादा विश्वविद्यालय जीती है.

जीत के बाद अपने समर्थकों के साथ विनोद जाखड़.
मैं 1995 से 2000 तक राजस्थान विश्वविद्यालय की राजनीति में सक्रिय रहा और 1998 में एक पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ा. तब से अब तक में राजस्थान विश्वविद्यालय की राजनीति कई रूपों में सामने आयी और बदली भी है. इस साल का चुनाव परिणाम इसी बदलाव की ओर संकेत कर रहा है. पार्टियों द्वारा दिए जाने वाले टिकट को लेकर हमेशा कोई न कोई असंतोष रहता है और ये चीज छात्र राजनीति में भी नज़र आती है. पिछले कुछ सालों से दोनों ही पार्टियां ABVP और NSUI बागियों का गुस्सा झेल रही हैं. इस साल तो NSUI से टिकट न मिलने पर नाराज़ दो प्रत्याशियों ने यूनिवर्सिटी में उपद्रव मचाया था. टिकट को लेकर होने वाली नाराजगी का उपद्रव पहली बार मैंने विश्वविद्यालय में देखा, वरना ये ज्यादा से ज्यादा छात्र संगठन के दफ्तर तक ही सिमट जाता था.
नाराजगी के इस स्तर पर जाने की एक बड़ी वजह टिकट वितरण में पैसों का बढ़ता प्रभाव भी है. NSUI हमेशा ही राजस्थान विश्वविद्यालय में कमजोर रही है क्योंकि उसके प्रत्याशी अक्सर ऊपर से टपकाये जाते थे या पैसे वाले को टिकट दिया जाता था. ABVP की विशेषता सबसे बड़ी यही रही कि वो कैडर से चलती है और जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता को टिकट देती थी. इसलिए टिकट को लेकर मनमुटाव के बावजूद भी अधिकतर कार्यकर्ता जुट कर काम करते थे.
पिछले कुछ सालों से NSUI ही नहीं ABVP पर भी आरोप लग रहे हैं कि वो पैसे वाले प्रत्याशी को टिकट दे रही है और कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रही है. इस आरोप में कितनी सच्चाई है पता नहीं पर ये सच है राजस्थान विश्वविद्यालय का सबसे प्रभावी छात्र संगठन लगातार तीसरी बार अध्यक्ष पद पर हारा है. 1990 से 2000 तक में परिषद ने ज्यादा से ज्यादा 2 बार अध्यक्ष पद गंवाया होगा लेकिन बाकी तीनों पद में से 2 तो जीत ही लेती थी.

NSUI और ABVP के बीच में से निर्दलीय जीत रहे हैं.
इस साल भी अध्यक्ष उपाध्यक्ष और महासचिव तीनों पद पर निर्दलीय जीते हैं और परिषद को सिर्फ संयुक्त सचिव पद मिला है. पिछले 2 सालों में जीते पवन यादव और अंकित धायल परिषद के बागी थे और इस बार के जाखड़ NSUI के. 3 सालों से दिख रहे इस ट्रेंड ने एक चीज स्पष्ट कर दी है कि राजस्थान विश्वविद्यालय का छात्र पैसे के दम पर बने प्रत्याशियों को नकार रहा है.
विनोद जाखड़ ने इस बार बहुत शानदार तरीके से पैसे के मुद्दे को उठाया. उन्होंने विश्वविद्यालय में अपने चुनाव के लिए 1-1 रुपये का चंदा माँगा. ध्यान दें विद्यार्थी परिषद के सदस्यता अभियान में भी सदस्यता शुल्क यही हुआ करता था जो अब 5 रूपया है. कैंपस में पैदल घूम कर प्रचार किया और प्रचार सामग्री दोस्तों से बनवायी. इन सब बातों ने छात्रों पर काफी प्रभाव डाला. पैसे के दम पर बने प्रत्याशियों को नकारना एक सकारात्मक खबर है क्योंकि पैसे के आधार पर टिकट देने का ये ट्रेंड 3 कारणों से बहुत घातक है:
पहला जिसने जेब से पैसा लगाया वो उस पैसे को वसूलने की पूरी कोशिश करता है और उसके लिए कई हथकंडे अपनाता है. मैंने अपने आने वाले उपन्यास ‘जनता स्टोर’ में इस मुद्दे को छुआ है कि किन तरीकों से पैसा ये नेता इकठ्ठा करते हैं.
दूसरा दुष्परिणाम ये है कि पैसे के बल पर आने वालों की वजह से स्टूडेंट एक्टिविज्म ख़त्म हो रहा है. देश के बहुत से मुद्दों पर छात्र आंदोलनों ने नयी दिशा दी है.
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है कि पैसे के बल पर आये प्रत्याशियों ने कोई संघर्ष ही नहीं किया छात्रों के लिए जिसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि अब बन रहे अध्यक्ष राज्य की राजनीती में जगह ही नहीं बना पा रहे. जिस राजस्थान विश्वविद्यालय छात्रसंघ ने राज्य को इतने नेता दिए वहां पिछले 18 सालों से कोई छात्रसंघ अध्यक्ष राज्य की राजनीति में चुनाव जीत कर नहीं पहुंचा.

1947 में बने इस विश्वविद्यालय ने राजस्थान को कई नेता दिए हैं.
ऐसा नहीं कि पहले पैसे वाले प्रत्याशी नहीं थे. 90 के दशक में बने कई छात्रसंघ अध्यक्ष प्रभावशाली और पैसे वाले परिवारों से थे और उनमें से अधिकतर विधायक और मंत्री बने. प्रताप सिंह खाचरियावास राजनीतिक परिवार से थे और पैसों का प्रदर्शन करते हुए 100 कारों और मोटरसाइकिलों की रैली निकाली थी, अशोक लाहोटी एक व्यावसायिक परिवार से थे और चुनाव में बहुत खर्चा किया था, महेंद्र चौधरी और हनुमान बेनीवाल राजनीतिक परिवारों से सपोर्ट के साथ थे, लेकिन इन सब नेताओं ने जमीन पर बहुत काम किया. राजकुमार शर्मा और रणवीर गुढ़ा ने तो 3-3 बार चुनाव लड़ा तब अध्यक्ष बने. सिर्फ अध्यक्ष ही क्यों कुछ महासचिव जैसे मनीष पारीक और रामलाल शर्मा भी क्रमशः डिप्टी मेयर और विधायक बने. अशोक, मनीष पारीक, राजकुमार शर्मा और मैं तो एक साथ आंदोलन करते हुए जयपुर की सेंट्रल जेल में भी रहे. हनुमान बेनीवाल इस वॉट राजस्थान की राजनीति में कितना महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहे हैं ये किसी से छुपा नहीं है.
विनोद जाखड़ की खासियत ये भी रही कि वो कुछ सालों से जमीनी तौर पर सक्रिय है और इस मेहनत ने भी उसे चुनाव जीतने में काफी मदद की. सिर्फ राजस्थान विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि राजस्थान के 5 विश्वविद्यालयों में निर्दलीय जीते हैं. इस ट्रेंड को देखते हुए छात्र संगठन तो जो सीख लें सो लेते रहें पर भाजपा और कांग्रेस को इस बार टिकट देते समय नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि राजस्थान का युवा ऊपर से टपकाये प्रत्याशियों को स्वीकार नहीं कर रहा है.

यूनिवर्सिटी के चुनावों लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों की जमकर धज्जियां उड़ाई जाती हैं.
कांग्रेस के लिए इस बार गलती की गुंजाईश नहीं क्योंकि इस चुनाव का असर 2019 में पड़ेगा वहीं भाजपा की हालत यूँ ही इस बार बहुत टाइट है. समान विचारधारा के घनश्याम तिवारी अलग हो गए. पूर्व भाजयुमो शहर अध्यक्ष विमल अग्रवाल हवामहल विधानसभा से तिवारी की पार्टी से खड़े हो रहे हैं. युवा नेता भारत शर्मा ने 350 साल पुराने मंदिर तोड़ने से लेकर शहर के हेरिटेज को बचाने के लिए जमीन पर काम किया और जबरदस्त समर्थन प्राप्त किया है. भारत अब किशनपोल से निर्दलीय खड़े हो सकते हैं जहाँ वसुंधरा के खास मोहन लाल गुप्ता विधायक है. अपने ही विचारधारा वाले युवाओं के ऐसे छिटकने के बाद विश्वविद्यालय के परिणाम खतरे का संकेत है. ऐसी स्थिति में भाजपा को और भी ज्यादा सतर्क रहते हुए लक्ष्मीकांत भारद्वाज और हेमंत लाम्बा जैसे युवा और पूर्व छात्र नेताओं को जो जमीन पर सालों से सक्रिय रहे हैं उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए. पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चंद कुलिश ने एक बार भाजपा के कुछ नेताओं को कोल्ड स्टोरेज का आलू कहा था. भाजपा को इन कोल्ड स्टोरेज के आलूओं के चक्कर में युवाओं और युवा नेताओं को अनदेखा नहीं करना चाहिए.

जनता की नाराजगी और अपनों की बगावत से परेशान हैं वसुंधरा.
जयपुर में विश्वविद्यालय के परिणामों ने एक और जबरदस्त बदलाव दिखाया है वो है पहली बार अनुसूचित जाति के लड़के को अध्यक्ष पद पर बिठाने का. राजस्थान विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष पद पर ब्राह्मण, जाट और राजपूतों का वर्चस्व रहा है, हालाँकि पिछले कुछ सालों में अनुसूचित जनजाति के 2 अध्यक्ष बने हैं. अगर आप छात्र संगठनों के टिकट देने के पैटर्न को देखें तो जातिगत समीकरणों को हमेशा बिठाया गया है. अपनी किताब की मार्केटिंग फिर कर रहा हूँ पर ‘जनता स्टोर’ में एक चैप्टर चुनाव टिकट को लेकर होने वाले खेल पर ही है. छात्रसंघ में 4 पद हैं और सभी पार्टियां इन चार पदों पर ब्राह्मण, बनिया, जाट या राजपूत और एस.सी. या एस. टी. को टिकट देती हैं. यहाँ पर एक चीज गौर करने वाली है कि अगर जाट को टिकट मिला तो पैनल में राजपूत के होने की सम्भावना नगण्य हो जाती है और राजपूत को मिलने पर जाट के क्योंकि जाट और राजपूत पारम्परिक रूप से एक दूसरे के विरोधी माने जाते हैं. यहीं स्थिति एससी और एसटी के टिकट में भी है.
अगर ABVP का टिकट पहले घोषित हो गया तो NSUI और NSUI का पहले घोषित हुआ तो ABVP एक दूसरे के प्रत्याशियों के सामने उसकी विरोधी और मजबूत जाति का प्रत्याशी खड़ा करती हैं ताकि वोटों का जातिगत आधार और समेकन किया जा सके. मैं जाट नहीं हूँ पर अपने सरनेम से माना जाता हूँ इसलिए मेरे सामने राजपूत को खड़ा किया गया.
था. कई बार ऐसा भी होता है कि दोनों ही पार्टियां गलती या किसी खास रणनीति के तहत एक ही जाति के आदमी को टिकट दे दें तो दोनों जाति वाले गोत्र के ऊपर वोट मांगने लगते हैं. इस बार ABVP और NSUI दोनों ने ही जाट को टिकट दिया जिससे जाटों के वोट का तो बंटवारा हुआ पर आश्चर्यजनक ये रहा कि ब्राह्मण और बनिया और अन्य सवर्ण जातियों ने भी इन्हें वोट नहीं दिए. दोनों पार्टी के प्रत्याशियों के वोट को मिला दें तो भी जाखड़ के वोट ज्यादा हैं. यूपी बिहार भले ही जाति आधारित व्यवहार को बदनाम हों पर राजस्थान इनसे किसी तरह से कम नहीं ऐसे में ये परिणाम चौंकाने वाला है. मतलब स्पष्ट है कि इस बार सवर्णों ने भी जाति को दरकिनार कर उस प्रत्याशी को वोट दिए हैं जो जमीन पर काम करता दिखा है.

राजकुमार शर्मा उन चुनिंदा लोगों में से जो 2013 में भाजपा की लहर के बावजूद निर्दलीय विधायक बने थे.
वैसे छात्र राजनीति को पीछे से राजनेता चलाते रहे हैं और सुनने में आ रहा है कि पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष राजकुमार शर्मा जो कांग्रेस में मंत्री भी रहे उन्होंने NSUI के इस बागी को जितवाने में बड़ी भूमिका रही है. राजकुमार मेरे साथ छात्र राजनीती के समय में रहे हैं और उन्होंने वोटों के लिए ब्राहाण छवि का भरपूर इस्तेमाल किया था. इस बार पार्टी लाइन से अलग एक बागी को लड़वाने में उनका ये रोल भविष्य के कुछ और जातिगत समीकरणों की ओर इशारा करता है. विनोद जाखड़ मेघवाल जाति से है और मेघवाल राजनीतिक रूप से मजबूत हैं राजस्थान में. वसुंधरा राजपूतों से बेटी और जाटों से बहू बन कर वोट मांगती आयी हैं. इस बार उनके मायके वाले ज्यादा नाराज हैं और ससुराल वाले भी खासे खुश नहीं. ऐसे में अगर ब्राह्मण बनिया और एससी मिलकर एक होते हैं तो परिणाम आप सोच लीजिये.
राजस्थान के चुनावों का परिणाम क्या होगा ये तो समय ही बताएगा लेकिन दोनों ही पार्टियों को इन चुनावों से कुछ तो सबक लेना चाहिए खासकर भाजपा को जो सचिन पायलट और अशोक गहलोत के मनमुटाव के भरोसे बैठी है. अभी आयी एक तस्वीर में पायलट मोटरसाइकिल पर गहलोत को पीछे बिठा कर चलते हुए वोटरों को एक संदेशा अप्रत्यक्ष रूप से दे चुके.

एकजुटता का संदेश देने के लिए कभी बाइक, कभी बस और कभी एक गाड़ी में बैठ रहे हैं गहलोत-पायलट.
कांग्रेस और भाजपा को छात्रसंघ चुनावों से सामने आये इन बदलते समीकरणों को देखना होगा और जाति के अलावा वो लोग चुनने होंगे जिन्होंने जमीन पर काम किया है. चुने हुए उन विधायकों से निजात पानी होगी जो अपने क्षेत्र में दिखे नहीं भले ही जातिगत आधार पर कितने ही मजबूत रहे हों. युवा इस बार जाति से हटकर वोट कर सकता है.
वीडियो-धार्मिक संतों का राजनीति में कूदना क्यों हम सभी के लिए ग़लत है?