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वंदे मातरम्: जंग-ए-आजादी में अंग्रेजों की नींद उड़ाने वाला गीत क्यों ना बन सका राष्ट्रगान

History of Vande Mataram: लोकसभा में होने वाली विशेष चर्चा और प्रधानमंत्री Narendra Modi के बयान के बाद वंदे मातरम फिर से बहस के केंद्र में है. लेकिन ये गाना सिर्फ एक नारा नहीं, ये आजादी की लड़ाई का धड़कता दिल रहा है. इसकी कहानी, विवाद और असर उससे कहीं ज्यादा गहरा है जितनी आज की हेडलाइंस बता रही हैं.

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जिस गीत ने अंग्रेजों की नींद उड़ाई, वो राष्ट्रगान क्यों नहीं बना?

1870 के दशक का बंगाल. अंग्रेजों की हुकूमत सिर पर. समाज में बेचैनी, गुस्सा और गुलामी की घुटन. ऐसे वक्त में बांग्ला साहित्य के बड़े नाम Bankim Chandra Chatterjee ने मातृभूमि को मां के रूप में देखने की कल्पना की. यहीं से जन्म हुआ वंदे मातरम का.
ये सिर्फ कविता नहीं थी, एक मानसिक क्रांति थी जहां देश को ईश्वर रूप माना गया.

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कब लिखा गया और लिखने में कितना समय लगा

वंदे मातरम की रचना 1870 के दशक के मध्य मानी जाती है. माना जाता है कि इस गीत के शुरुआती शब्द बहुत कम समय में लिखे गए, कुछ स्रोत बताते हैं कि मूल भाव कुछ ही दिनों में आकार ले चुका था. लेकिन इसका साहित्यिक रूप कई बार तराशा गया.

पहली बार कब और कहां छपा

इसे पहली बार 7 नवंबर 1875 को साहित्यिक पत्रिका Bangadarshan में प्रकाशित किया गया. उस दौर में इतनी आग वाली रचना का छपना ही एक क्रांतिकारी कदम था.

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पहली बार कब गाया गया

1896 में Rabindranath Tagore ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार इसे सार्वजनिक रूप से गाया. उस दिन वंदे मातरम सिर्फ गीत नहीं रहा, आंदोलन बन गया.

धुन किसने बनाई

शुरुआती दौर में इसकी धुन पारंपरिक भारतीय शैली में स्वतः गाई जाती थी. बाद में कई संगीतकारों ने इसकी अलग अलग धुनें तैयार कीं. सबसे प्रसिद्ध आधुनिक धुन की रचना A. R. Rahman ने की, जिसने इसे वैश्विक पहचान दी.

आजादी की लड़ाई में इसका योगदान

वंदे मातरम सिर्फ भाषणों और जुलूसों तक सीमित नहीं रहा, ये भारत की आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े टर्निंग पॉइंट्स का साथी बना. 1905 में बंगाल विभाजन के खिलाफ चले स्वदेशी आंदोलन के दौरान, हजारों लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाते वक्त एक साथ वंदे मातरम के नारे लगाए. कोलकाता, ढाका और बनारस की सड़कों पर यही शब्द डर और दमन के सामने ढाल बन गए. 1916 के होम रूल मूवमेंट में, जब तिलक और एनी बेसेंट का आंदोलन तेज हुआ, तब सभाओं की शुरुआत और अंत इसी गीत से होने लगी. इससे आंदोलन को एक औपचारिक पहचान मिली.

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आजादी की लड़ाई में वंदे मातरम का बड़ा योगदान रहा (फोटो- इंडिया टुडे आरकाइव)

1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान, जब लोगों ने सरकारी स्कूल, अदालतें और नौकरियां छोड़ीं, तब हर सभा में वंदे मातरम गूंजा. 1930 में नमक सत्याग्रह और दांडी मार्च के दौरान, तटीय गांवों में चलते सत्याग्रहियों के कदमों की ताल इसी नारे से मिलती थी. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय तो यह अंग्रेजी हुकूमत के लिए सबसे खतरनाक शब्दों में बदल चुका था. मुंबई से पटना तक, लाहौर से मद्रास तक, जब भी पुलिस ने जुलूस तोड़े या गोलियां चलीं, लोगों के मुंह से डर की जगह वंदे मातरम निकला. इस तरह ये गीत हर बड़े संघर्ष का साउंडट्रैक बन गया और आजादी की लड़ाई में सिर्फ भावनात्मक नहीं, रणनीतिक तौर पर भी लोगों को जोड़ने वाला हथियार साबित हुआ.

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इसे छोटा क्यों और कब किया गया

1937 में कांग्रेस के फैजाबाद अधिवेशन में विवाद उठा. कहा गया कि मूल गीत के कुछ अंतरे धार्मिक भाव लिए हुए हैं, जिससे सभी वर्ग सहज महसूस नहीं कर पाएंगे.

इसी दौर में पार्टी ने कुछ अंतरों को आधिकारिक उपयोग से हटाने का फैसला किया. इस मुद्दे पर आज भी राजनीति गरमाती रहती है. हाल में Indian National Congress पर लगे आरोपों पर प्रधानमंत्री मोदी ने तीखा हमला बोला.
कांग्रेस का पक्ष रहा कि ये फैसला Rabindranath Tagore की सलाह पर सभी समुदायों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए लिया गया.

जन गण मन को राष्ट्रगान कब और क्यों बनाया गया

1947 में देश आजाद हुआ तो सिर्फ सत्ता नहीं बदली, देश की पहचान गढ़ने का काम भी शुरू हुआ. सबसे बड़ा सवाल था कि आजाद भारत का राष्ट्रगान क्या होगा. क्योंकि गीत सिर्फ गीत नहीं होते, वो देश की आत्मा बनते हैं.

एक तरफ था “वंदे मातरम”. ये गीत दशकों से आजादी की लड़ाई की आवाज बन चुका था. आंदोलन, जेल यात्राएं, लाठी चार्ज, फांसी के फंदे तक जाते क्रांतिकारी इसे गाते थे. लोगों के दिल में ये गीत पहले से राष्ट्रगान जैसा ही बैठ चुका था. लेकिन इसके पूरे मूल संस्करण में कहीं कहीं मातृभूमि को देवी दुर्गा और लक्ष्मी जैसे रूप में दिखाया गया था. देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा था जिसे डर था कि धार्मिक प्रतीकों वाला गीत आधिकारिक राष्ट्रगान बना तो अल्पसंख्यक समुदाय खुद को अलग महसूस कर सकते हैं.

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संविधान सभा में बड़ी बहस के बाद हुआ राष्ट्रगान पर फैसला (फोटो- इंडिया टुडे आरकाइव)

दूसरी तरफ था “जन गण मन”, जिसे Rabindranath Tagore ने लिखा था. इसका स्वरूप ज्यादा समावेशी माना गया, क्योंकि इसमें भारत के अलग अलग क्षेत्रों, भाषाओं और लोगों का सीधा उल्लेख था. इसे पहले भी कई मंचों पर गाया जा चुका था और इसकी भाषा को अपेक्षाकृत “सेक्युलर” समझा जाता था.

इस मुद्दे पर संविधान सभा में लंबी बहस हुई. कई सदस्यों का कहना था कि वंदे मातरम त्याग और बलिदान का प्रतीक है, इसलिए वही राष्ट्रगान बने. वहीं दूसरे वर्ग का तर्क था कि नए भारत की पहचान ऐसी होनी चाहिए, जिसमें कोई भी नागरिक खुद को अलग महसूस न करे.

आखिरकार 24 जनवरी 1950 को, यानी संविधान लागू होने से ठीक दो दिन पहले, संविधान सभा ने आधिकारिक फैसला लिया. “जन गण मन” को भारत का राष्ट्रगान घोषित किया गया और “वंदे मातरम” को “राष्ट्रीय गीत” का दर्जा दिया गया. यह फैसला किसी एक को हटाने के लिए नहीं, बल्कि दोनों की गरिमा बनाए रखने के लिए किया गया.

इसके पीछे मुख्य सोच यही थी कि आजादी की लड़ाई की आत्मा वंदे मातरम में सुरक्षित रहे और आजाद भारत की संवैधानिक पहचान जन गण मन में दिखे. इसी संतुलन को भारत की एकता की नींव माना गया.

यानी वंदे मातरम को किनारे नहीं किया गया, बल्कि उसे सम्मानित स्थान देकर जन गण मन को राष्ट्रगान बनाया गया, ताकि देश की विविधता किसी एक धार्मिक दायरे में बंधी न लगे.

बॉलीवुड में वंदे मातरम

हिंदी सिनेमा ने वंदे मातरम को सिर्फ बजाया नहीं, जिया है. फिल्मों में ये गीत हर दौर में देशभक्ति का सबसे ताकतवर हथियार बना रहा. सबसे पहले ज़िक्र 1952 में बनी फिल्म Anand Math का. यही वो फिल्म थी जिसने वंदे मातरम को बड़े पर्दे पर ऐतिहासिक रूप में दिखाया. गीत को आवाज दी थी महान गायिका Lata Mangeshkar ने. इस गाने ने सिनेमा हॉल को भी आंदोलन का मैदान बना दिया था.

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आनंद मठ नाम की फिल्म में हुआ इस्तेमाल

इसके बाद वंदे मातरम अलग अलग फिल्मों में अलग अलग अंदाज में गूंजता रहा. कभी बैकग्राउंड स्कोर में, कभी फुल सॉन्ग के रूप में. 1997 में संगीतकार A. R. Rahman ने अपना मशहूर नॉन फिल्म एलबम Vande Mataram लॉन्च किया. ये एलबम भारत की आजादी के 50 साल पूरे होने पर आया और सीधे युवाओं के दिल में उतर गया. स्कूल, कॉलेज, रैलियों और टीवी चैनलों पर यही वर्जन सबसे ज्यादा बजा.

इसके अलावा खुद Lata Mangeshkar ने भी वंदे मातरम का अलग एलबम और कई स्टेज परफॉर्मेंस दिए. उन्होंने इसे सिर्फ गाया नहीं, एक प्रार्थना की तरह प्रस्तुत किया.

देशभक्ति फिल्मों में जब भी भारत माता या आजादी का जिक्र आया, वंदे मातरम एक स्थायी संगीत बन गया. 90 के दशक के बाद तो कोई भी बड़ी देशभक्ति फिल्म या टीवी स्पेशल इसके बिना अधूरा सा लगने लगा.

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वंदे मातरम पर कब-कब बवाल हुआ?

वंदे मातरम का सफर जितना गौरव भरा रहा, उतना ही विवादों से भी भरा है. हर दौर में ये गीत राजनीति, धर्म और पहचान की बहस के बीच खड़ा रहा.

1905: बंगाल विभाजन और पहला बड़ा टकराव

16 अक्टूबर 1905 को जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, तब पूरे बंगाल में बड़े आंदोलन शुरू हुए. इसी दौर में वंदे मातरम सड़कों पर गूंजने लगा. अंग्रेज अफसरों को ये नारा इतना खतरनाक लगा कि कई जगह इसे गाने और कहने पर लाठियां चलीं और गिरफ्तारियां हुईं. यहीं से ये गीत पहली बार सत्ता के लिए चुनौती बना.

1923: कांग्रेस अधिवेशन में आपत्ति की पहली आवाज

1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक अधिवेशन के दौरान कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसके कुछ अंतरों पर आपत्ति जताई. उनका तर्क था कि गीत में मातृभूमि को देवी के रूप में पूजा गया है, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं से मेल नहीं खाता. यहीं से ये बहस संगठित रूप में सामने आई.

1937: फैजाबाद कांग्रेस सेशन और आधिकारिक कटौती

1937 में कांग्रेस के फैजाबाद अधिवेशन में बड़ा फैसला हुआ. पार्टी ने वंदे मातरम के केवल पहले दो अंतरों को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी और बाकी अंतरों को सार्वजनिक मंचों से हटाने का निर्णय लिया. वजह बताई गई कि बहु धार्मिक समाज में संतुलन बनाए रखना जरूरी है. ये वही फैसला है जो आज तक सियासी बहस का मुद्दा बना हुआ है.

1950: संविधान के साथ नई पहचान, नई बहस

24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने फैसला लिया कि जन गण मन राष्ट्रगान होगा और वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत का दर्जा मिलेगा. इसके साथ ही नई बहस शुरू हुई कि क्यों वंदे मातरम को राष्ट्रगान नहीं बनाया गया. कुछ संगठनों ने इसे ऐतिहासिक अन्याय तक कहा.

2006: वंदे मातरम अनिवार्य करने पर बवाल

2006 में केंद्र सरकार की उस वक्त की सिफारिश पर कुछ राज्यों ने स्कूलों में वंदे मातरम गाना अनिवार्य करने की कोशिश की. इसके खिलाफ देश में विरोध शुरू हुआ. मामला अदालत तक पहुंचा. अंत में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि वंदे मातरम गाना मजबूरी नहीं हो सकता.

2014 से 2020 के बीच: संसद से सोशल मीडिया तक सियासी तकरार

2014 के बाद वंदे मातरम फिर से राजनीतिक बहस का बड़ा मुद्दा बना. कई बार संसद और चुनावी रैलियों में बयान आए कि इसे पूरी तरह अपनाया जाए. दूसरी तरफ विपक्ष ने इसे राजनीतिक हथियार बनाने का आरोप लगाया. सोशल मीडिया पर भी कई बार ट्रेंड और काउंटर ट्रेंड चले.

2023–2024: 150 साल पर नया विवाद

गीत के 150 साल पूरे होने पर, खासतौर से 2024 में संसद और सार्वजनिक मंचों पर फिर बहस तेज हुई. प्रधानमंत्री Narendra Modi ने 1937 के फैसले को लेकर Indian National Congress पर आरोप लगाए कि उसी समय देश की एकता कमजोर हुई. विपक्ष ने इसे इतिहास का राजनीतिक इस्तेमाल बताया.

वंदे मातरम आज भी जिंदा क्यों है

वंदे मातरम सिर्फ गीत नहीं, भाव है. ये मां की तरह पुकार है. यही वजह है कि 150 साल बाद भी संसद में, सड़क पर और सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा गर्म है.

जब जब देश पर बात आएगी, वंदे मातरम अपने आप जुबान पर आएगा.

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