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क्या गोडसे चाहता था कि कोर्ट के लिए उसकी स्पीच सावरकर लिखें?

जेल अफसरों के बर्ताव से क्यों हैरान था नाथूराम गोडसे?

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हालांकि सावरकर कोर्ट के भीतर गोडसे की तरफ़ देख भी नहीं रहे थे लेकिन तुषार गांधी सहित कई विद्वानों की मान्यता है कि यह भाषण या तो सावरकर द्वारा लिखा गया था या फिर उन्होंने इसे अन्तिम रूप दिया था.
गांधी बनाम गोडसे की राजनीति से हम सभी परिचित हैं. कुछ ही दिनों पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि थी. इसपर हमने देखा कि वो तमाम लोग जो गोडसेवादी राजनीति का समर्थन करते हैं, उन सभी ने महात्मा गांधी के चरणों में फूल चढ़ाए. तो ऐसा क्या था कि गांधी मारे नहीं मरते हैं, मिटाए नहीं मिटते हैं? इसका जवाब तो कई लोगों ने दिया, कई किताबें लिखी गईं. खुद महात्मा गांधी की आत्मकथा 'माई एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रूथ' में उन्होंने कई घटनाओं का ज़िक्र किया जो मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनाने के लिए काफ़ी है. माना कि गांधी से तमाम असहमतियां हो सकती हैं, लेकिन जिस नृशंस्ता से उनकी हत्या हुई, वो कतई जायज़ नहीं कही जा सकती. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? नाथूराम गोडसे ने गांधी को क्यों मारा? इसी सवाल का जवाब देती है अशोक कुमार पाण्डेय की पुस्तक 'उसने गांधी को क्यों मारा?'. इस किताब में गांधी की हत्या के बाद के कई ऐसे किस्से, कई ऐसे तर्क हैं जो हमें मदद करते हैं इस सवाल के जवाब तक पहुंचने पर. तो आइए इस पुस्तक का एक अंश पढ़ते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि उसने गांधी को क्यों मारा.

जब सावरकर ने गोडसे से कहा - मुझे तुम्हारे लिए लिखने की कोई आवश्यकता नहीं

नथूराम गोडसे सैकड़ों लोगों के सामने गांधी (Mahatma Gandhi) की हत्या करते हथियार सहित पकड़ा गया था. एकदम साधारण भाषा में कहें तो दफ़ा 302 का मामला था यह. अंग्रेज़ी में कहते हैं—कोल्ड ब्लडेड मर्डर. जिस जंगल के क़ानून का समर्थक था गोडसे उसके आधार पर तो वहीं उसे मार दिया जाना था. लेकिन संयोग से भारत ऐसे हाथों में था जिनका भरोसा लोकतंत्र पर था, जहां न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान था. तो न केवल उस पर मुक़दमा चला, सरकारी ख़र्च पर वकील उपलब्ध कराए गए बल्कि जेल में रहते हुए सुविधाओं की उसकी मांगें भी पूरी की गईं. दूसरे दिन की सुनवाई के दौरान उसने अतिरिक्त पानी की मांग करते हुए कहा कि वैसे जिस तरह का सभ्य व्यवहार मुझसे किया जा रहा है, मैं ख़ुद आश्चर्यचकित हूं. और इसका पूरा फ़ायदा उठाया उसने. 8 नवम्बर, 1948 को उसे जब अपना पक्ष रखने की अनुमति दी गई तो उसने बानबे पेज़ का हस्तलिखित बयान पढ़ा. इसके बाद जब बाक़ी आरोपियों ने पंजाब हाईकोर्ट में अपील की तो नथूराम ने सिर्फ़ यह साबित करने के बहाने अपील की कि गांधी हत्या का कोई षड्यंत्र नहीं था, लेकिन असल में उसका उद्देश्य इसी बयान को दुबारा पढ़ने का मौक़ा हासिल करना था. मुक़दमे की कार्यवाही पढ़ते हुए आश्चर्य होता है कि एक ऐसे अपराधी को जिसने दिनदहाड़े हत्या की थी, अदालत ने घंटों एक ऐसा भाषण देने की अनुमति दी जिसमें वह अपने कुकृत्य के कारण गिना रहा था. क्या गांधी पर लगाया गया कोई भी आरोप क़ानून के तहत हत्यारे को सज़ा से छूट दे सकता था? क्या उसका यह लिखित बयान सीधे कोर्ट की कार्यवाही में शामिल कर उसे अदालत का उपयोग गांधी पर बेबुनियाद आरोप लगाने के लिए करने और घृणा के उन मूल्यों के प्रसार से रोका नहीं जा सकता था जिनका प्रतिरोध करके भारत ने अभी-अभी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण किया था? पंजाब हाईकोर्ट के तीन सदस्यीय बेंच के सदस्य रहे जस्टिस खोसला ने लिखा है कि उन्होंने कई बार इस भाषण के अप्रासंगिक होने की बात कहकर रोकने की कोशिश की लेकिन बाक़ी दोनों जज़ जैसे मंत्रमुग्ध होकर उसका यह मेलोड्रामा देख रहे थे. डगलस लिखते हैं—
"यह तथ्य कि जस्टिस आत्माचरण ने गांधी की हत्या का ज़ुर्म स्वीकार कर चुके हत्यारे नथूराम गोडसे को गांधी पर वैचारिक हमले और सावरकर के बचाव में नौ घंटे बोलने की इजाज़त दी, यह बताता है कि अदालत गांधी के हत्यारों की राजनैतिक शक्ति से कितनी प्रभावित थी."
हालांकि सावरकर कोर्ट के भीतर गोडसे की तरफ़ देख भी नहीं रहे थे लेकिन तुषार गांधी सहित कई विद्वानों की मान्यता है कि यह भाषण या तो सावरकर द्वारा लिखा गया था या फिर उन्होंने इसे अन्तिम रूप दिया था. वह चालीस साल पहले यही काम मदनलाल धींगरा के लिए कर चुके थे. हालांकि तब लन्दन की अदालत ने धींगरा को वह बयान पढ़ने नहीं दिया था. यह बयान जेल से छूटने के बाद गोपाल गोडसे ने मराठी में लिखी किताब ‘गांधी हत्या आणि मी’ में शामिल किया. किताब के रूप में छपने से पहले यह एक लेखमाला के रूप में मराठी पत्रिका ‘पैंजन’ में प्रकाशित हुए थे. 6 दिसम्बर, 1967 को इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. गोपाल ने बम्बई हाईकोर्ट में इस आदेश के ख़िलाफ़ अपील की और तीन जज़ों की बेंच ने 6 अगस्त, 1969 को दिए एक फ़ैसले में यह प्रतिबन्ध हटा दिया और उसके बाद से यह किताब तो लगातार छप तो रही ही है, इसमें मनचाहे बदलाव कर अलग-अलग नामों से भी छापा और बेचा जा रहा है. उदाहरण के लिए 2019 में दिल्ली के किसी भगतसिंह विचार मंच द्वारा छापी गई किताब का नाम है ‘मैंने गांधी वध क्यों किया?’ इस किताब में नथूराम के बयान के साथ उसके पत्राचार कुछ स्रोतरहित ‘झलकियां’ तो हैं ही, साथ में एक खंड अलग से दिया गया है जिसमें सावरकर को निर्दोष ठहराने की कोशिशें हैं। यह पूरा खंड ढेर सारी स्रोतरहित कथाओं के साथ मूलतः मालगांवकर द्वारा दिए गए तथ्यों का संकलन है. हालांकि इसमें एक मज़ेदार बात यह है कि इसमें सावरकर की तारीफ़ के चक्कर में अनजाने में इस आरोप की पुष्टि की गई है कि गोडसे का बयान सावरकर चेक करते थे. अनाम सम्पादक महोदय लिखते हैं—
"नथूराम अपना वक्तव्य स्वयं तो मराठी में लिखते थे फिर उनका बाद में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया जाता था. नथूराम चाहते थे सावरकर जी कुछ भाग लिखें. सावरकर जी कहते—तुम्हारे लिए मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं. अपना लिखा हुआ मुझे दिखाते जाओ, यदि आवश्यकता हुई तो कुछ हेर-फेर मैं सुझा दूंगा."
सम्पादक ने अपनी कल्पना में यह भी मान लिया है कि नथूराम अंग्रेज़ी में नहीं बोल सकता था! जबकि सच्चाई यह है कि उसने अदालत में अंग्रेज़ी में ही बयान दिए. हिन्द पॉकेट बुक्स से छपी ‘गांधी वध क्यों?’ को प्रामाणिक माना जा सकता है. इसमें कॉपीराइट गोपाल गोडसे का है. मैंने इसी को आधार बनाया है. वैसे, इसी नाम से एक और किताब राष्ट्रहितैषी प्रकाशन, चेन्नई से छपी है. ‘सम्पूर्ण प्रामाणिक’ होने का दावा करने वाली इस पुस्तक में न तो आईएसबीएन नंबर है, न कोई प्रकाशन वर्ष दिया गया है न ही प्रकाशक का कोई पता. आख़िरी तीन अध्यायों में जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के सम्बन्ध में कुछ तस्वीरों के सहारे वही दुष्प्रचार है जो आप व्हाट्सेप पर देखते हैं और सही इतिहास के स्रोत बताते हुए पुरुषोत्तम नागेश ओक की किताबों का ज़िक्र है. ये बस कुछ उदाहरण हैं. गोडसे का वह बयान दरअसल गांधी के शरीर के बाद उनके विचारों पर हमले का एक पतित प्रयास था और स्वाभाविक है कि असत्य आरोपों और तथ्यहीन उदाहरणों के उस प्रोपेगंडा का उपयोग लोकतंत्र विरोधी ऐसी ताक़तें करें जो नथूराम की वारिस हैं. आदतन झूठ बोलने वाले गोडसे ने सिर्फ़ सावरकर की संलिप्तता या फिर किसी षड्यंत्र के न होने का झूठ नहीं बोला था बल्कि गांधी पर लगाए उसके आरोप उस प्रशिक्षण के स्पष्ट उदाहरण हैं जिसमें उसके जैसे लोगों के मस्तिष्क को इतना विषाक्त कर दिया जाता है कि वे झूठ को सच और कुतर्क को तर्क समझने लगते हैं. ये सवाल कई पीढ़ियों के दिलो-दिमाग में ज़हर की तरह भर दिए गए हैं जो देश में बार-बार साम्प्रदायिक हिंसा में प्रतिफलित होते हैं. इसीलिए गांधी के वारिसों के लिए उनका बार-बार जवाब देना भी ज़रूरी हो ही जाता है. सत्य और असत्य, हिंसा और अहिंसा, सत्याग्रह और दुराग्रह का यह संघर्ष आख़िरी उस मनुष्य के रह जाने तक चलेगा जिसका हृदय परिवर्तित हो सत्य के पक्ष में न झुक गया हो. सारनाथ से लिये गए हमारे राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तम्भ के साथ उत्कीर्ण मुंडक उपनिषद् के श्लोक से उद्धृत—सत्यमेव जयते—राष्ट्र ही नहीं नैतिक जीवन के लिए भी एक लाइट हाउस की तरह है.

सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः। येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥

(विजय सत्य की ही होती है, असत्य की नहीं। जिस मार्ग पर जाने से मनुष्य आप्तकाम बनता है, वही सत्य का परम धाम है)