लड़का शिमला में पढ़ता था. वहां से भगाया गया. ये वही स्कूल था जहां उसका बाप पढ़ता था. वो आज अपने बाप की शकल कितने ही सालों बाद देखने वाला था. स्टेशन पर भीड़ थी, उसका बाप नहीं. वो शायद फैक्ट्री में होगा. फैक्ट्री जिसमें लोहा पिघलता था. फैक्ट्री जिसमें लोहा पीटा जाता था. लोहे से. वर्कर्स के पसीने की बदबू और गरम लोहे की गंध उसके बाप की ज़िन्दगी का हिस्सा थे. लेकिन अब जो होने वाला था, वो नहीं था. उसका बेटा घर आ रहा था. उसे स्कूल से निकाला गया था. उसका बेटा रात को चोरी-छुपे ब्लू फ़िल्म देखने गया था. ये एक मात्र बाप-बेटे की जोड़ी नहीं थी. असल में ये हिंदुस्तान के लगभग हर बाप-बेटे की जोड़ी की कहानी थी. मैथ्स में नम्बर आने ही चाहिए. लड़कियों को इसमें छूट मिलती है. गणित में उनकी कच्ची लोई होती है. रिपोर्ट कार्ड में हर बाप अपने लड़की के सबसे पहले मैथ्स के नम्बर ही खोजता है. उसमें ठीक नम्बर आये यानी लड़का सच में लड़का है. वरना वो लड़की है. लेकिन उस बाप का बेटा तो लेखक बनना चाहता था. वो शायद सच में लड़की ही था. रोहन की शक्ल में एक लड़की. बाप को ऐसा शक था. एक दिन रात में कुछ ज़्यादा ही शराब पी लेने के बाद उसने अपने बेटे से पूछा, "सेक्स किया है?" पीछे की सीट पर रोहन का छोटा भाई बैठा हुआ था. वो छोटा भाई जिसके बारे में रोहन को स्कूल से वापस आने के बाद मालूम चला. बेटे का जवाब आया, "नहीं." बाप परेशान था. और हो गया. उसने कन्फ़र्म करने के लिए रिपीट किया, "सेक्स नहीं किया?" "नहीं. आप सो जाइए." "आवाज़ नीचे रखो."

गाड़ी अब भी चल रही थी. और एक बाप ने अपने बेटे पर पूरी धौंस जमा दी थी. वहां बताया जा चुका था कि किसे कैसे और क्या बोलना है. एक बेटे को अपने बाप के सामने तेज़ आवाज़ में नहीं बोलना है. ये एक बाप-बेटे के बीच में अनलिखा, अनकहा नियम है. उस नियम को फिर से याद दिलाया जा चुका था. जब जब ये नियम टूटा, डायरियां जला दी गईं. वो डायरियां जिसके पन्नों को रोहन ने अपने गुस्से की स्याही से स्याह कर रखा हुआ था. वो डायरी जिसमें कभी, किसी रोज़ अपने बाप को याद करते हुए उसने लिखा था,
जो लहरों से आगे नज़र देख पाती
तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूं
वो आवाज़ तुम्मको भी जो भेद जाती
तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूं
ज़िद का तुम्हारे जो पर्दा सरकता,
खिड़कियों से आगे भी तुम देख पाते
आंखों से आदतों की जो पलकें हटाते
तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूं
मेरी तरह होता अगर खुद पर ज़रा भरोसा
तो कुछ देर तुम भी साथ साथ आते
रंग मेरी आंखों का जो बांटते ज़रा सा
तो कुछ दूर तुम भी साथ साथ आते
नशा आसमान का जो चूमता तुम्हें
हसरतें तुम्हारी नया जन्म पातीं
खुद दूसरे जन्म में मेरी उड़ान छूने
कुछ दूर तुम भी साथ साथ आते
रोहन को राइटर बनना था. उसके बाप को उसे इंजीनियरिंग पढ़ानी थी. उसे लगता था उसका लड़का लड़कियों का काम पसंद करता है. वो रोहन को मर्द बनाना चाहता था. और इसके लिए वो उसे रोज़ सुबह दौड़ाता था. खुद से कम्पटीशन करवाता था. लड़का हांफता था, पीछे रह जाता था. हर रोज़.

लेकिन एक दिन उसने अपने बाप को तमाचा जड़ा. ये तमाचा हर उस शराब की बोतल को जड़ा गया था जिसके नशे में उसके बाप ने उसके छोटे भाई को बेल्ट से इतना पीटा था कि कई दिनों तक उसकी पीठ पर निशान मौजूद रह गए थे. ये तमाचा उसके बाप की उस शर्त को था जिसके तहत रोहन को उसे पापा नहीं सर कहना था. ये तमाचा उसने अपने बाप की कही उस बात को भी मारा था जब रोहन की कविता सुनने के बाद उसने कहा था,
"छोड़ दो. गृहशोभा या सरिता में छपेगी. या कोई अठन्नी डालकर चला जायेगा." ये कविता उसने अपने बाप की दी हुई उस घड़ी को भी मारा था जो असल में उसके दादा की थी और रोहन को परम्परा आगे बढ़ाने के लिए मिली थी. उस तमाचे के बाद वो सड़क पर दौड़ा. उसके पीछे उसका बाप दौड़ रहा था. वो बाप जो रोज़ रेस जीतता था अब हांफ रहा था. रोहन आगे था. वो असल में दौड़ रहा था. उसकी होने वाली सौतेली मां और बहन तमाशा देख रहे थे. लेकिन वो उड़ रहा था. अपने दोस्त के साथ जाकर उसे उनके बिज़नेस में हाथ बंटाना था. बाप, बाप की खुन्नस, सारी ऐंठ, सारा फ्रस्ट्रेशन, सारी हेकड़ी निकल चुकी थी. जली हुई डायरी की राख अब उसके फेफड़ों में घुस रही थी और उसे सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी. उसका बेटा नई सांसें ले रहा था.
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