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देश के लिए पति को मार डाला, कहानी नीरा आर्या की, जिन्होंने आजादी के बाद फूल बेचकर गुजारा किया

नीरा का जन्म 5 मार्च 1902 को उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के खेकड़ा में हुआ था. उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बचाने के लिए अपने पति की जान ले ली थी. अंग्रेजों ने उन्हें काला-पानी की सजा सुनाई, काफी टार्चर किया फिर लालच भी दिए, लेकिन वो टस से मस नहीं हुईं.

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नीरा आर्या को सुभाष चंद्र बोस ने पहली महिला जासूस कहा था (PHOTO-Wikipedia)

ये हिंदुस्तान के आजाद होने से पहले का वक़्त था. ब्रिटिश हुकूमत को भारत से हटाने के लिए कई मोर्चों पर संघर्ष ज़ारी था. इन्हीं में से एक था आजाद हिंद फौज का मोर्चा. सुभाष चंद्र बोस की इस सेना ने हिंसक विद्रोह का तरीका चुना था. और इसी के रास्ते उन्होंने तय किया था कि वो अंग्रेजों को भारत से खदेड़ कर ही मानेंगे. आजाद हिंद फौज में महिला क्रांतिकारियों के लिए एक ख़ास रेजिमेंट थी. नाम ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ था. इसी रेजिमेंट में थी नीरा आर्या. भारत की पहली महिला जासूस. जिनकी बस इतनी ख़्वाहिश थी कि ‘ऐ वतन, वतन मेरे, आबाद रहे तू. मैं जहां रहूं, जहां में याद रहे तू.’

इसी ख़्वाहिश के लिए नीरा आर्या ने अपने पति तक की हत्या कर दी. क्योंकि, एक देशभक्त के लिए उसके देश से बढ़कर कोई इंसानी रिश्ता नहीं होता. और जब बात देश की हो तो उसे जान देने और जान लेने दोनों में से किसी बात से कोई परहेज नहीं होता है. जासूस शब्द जब भी जेहन में आता है तो एक बड़े तबके के मन में आज भी अमूमन पुरुष की छवि ही उभरती है. लेकिन, देशभक्ति का कोई जेंडर नहीं होता. इतिहास में ऐसी कई कहानियां मौजूद हैं जो इस बात की गवाही देती है. 

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1940 के दशक में ट्रेनिंग के दौरान रानी झांसी रजिमेंट की एक महिला सिपाही (PHOTO-Wikipedia)

नीरा का जन्म 5 मार्च 1902 को उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के खेकड़ा में हुआ था. पिता का नाम था सेठ छज्जूमल. पेशे से व्यापारी थे. सेठ छज्जूमल अपने दोनों बच्चों को बेहतरीन शिक्षा मुहैया करवाना चाहते थे. और इसलिए उन्होंने नीरा और उनके भाई बसंत को पढ़ाई के लिए कोलकाता भेजा. लेकिन, नीरा के मन में तो देशभक्ति के बीज बचपन में ही पड़ गए थे. वो देश की आजादी के लिए कुछ करना चाहती थीं. इसलिए पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने तय किया कि वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बनेंगी. फिर, क्या स्कूल खत्म होते ही वो आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हो गईं. पर परिवार उनके इस फैसले से अनजान था और किस्मत को भी कुछ और ही मंजूर था.

कुछ समय बाद नीरा की शादी ब्रिटिश सेना के अधिकारी श्रीकांत जय रंजन दास से हो गई. श्रीकांत उस समय भारत में सीआईडी इंस्पेक्टर थे. नीरा और श्रीकांत के विचार एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे. एक तरफ जहां नीरा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग में शामिल थीं. वहीं दूसरी तरफ उनके पति अंग्रेजों के ही वफादार बने हुए थे. वो उन हिन्दुस्तानियों में से थे, जो जन्म से भारतीय थे. लेकिन, मन से अंग्रेजों के गुलाम हो चुके थे.

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सुभाष चंद्र बोस की बाईं तरफ खड़ी नीरा आर्या (PHOTO- Azadhind Fouz Smriti Mahavidyalaya)

नीरा का राज ज्यादा दिनों छिपा नहीं रह सका. जल्द ही श्रीकांत को पता चल गया कि नीरा आजाद हिंद फौज में हैं. उसे लगा वो नीरा का इस्तेमाल कर के नेताजी के बारे में जानकारी हासिल कर लेगा. लिहाजा उसने नीरा पर दबाव बनाना शुरू किया. पर नीरा टस-से-मस नहीं हुईं. एक बार जब नीरा नेताजी से मिलने गईं, तो श्रीकांत ने उनका पीछा किया. उसका इरादा था कि जैसे ही नेताजी दिखेंगे वो उन्हें मार डालेगा.

जैसे ही उसे मौका लगा उसने गोली चला दी. लेकिन, गोली नेताजी के ड्राइवर को लगी और सुभाष चंद्र बोस बच गए. नीरा ने जब ये देखा तो उसे लगा कि वक्त आ गया है. उन्हें अपने रिश्ते और देश में से किसी एक को चुनना होगा. उन्होंने हिम्मत दिखाई और श्रीकांत पर टूट पड़ीं. नीरा ने चाकू घोंप कर श्रीकांत को जान से मार दिया और नेताजी की जान बचा ली.

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अंडमान-निकोबार की सेल्यूलर जेल (PHOTO-Wikipedia)

इसके बाद नीरा को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें अंडमान-निकोबार की सेल्यूलर जेल में डाल दिया गया. वहां उन्हें लालच दिया गया कि अगर वे नेताजी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानकारी देंगी, तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा. लेकिन जिस औरत ने देश के लिए अपने पति को मौत के घाट उतार दिया हो, वो अपनी रिहाई के लिए गद्दारी नहीं ही करने वाली थी. नीरा देश के प्रति वफादार बनी रहीं. किसी भी तरह की जानकारी को उन्होंने अंग्रेजों से साझा नहीं किया. नीरा की इस वीरता को देखकर नेताजी ने उन्हें आजाद हिंद फौज की पहली महिला जासूस कहा और नाम दिया ‘नीरा-नागिनी’.

देश के आजाद होने तक नीरा आर्या अंडमान जेल में काला-पानी की सजा काटती रहीं. इस दौरान अंग्रेजों ने उन्हीं बुरी तरह टॉर्चर किया. आजादी के बाद जब वो काला-पानी से रिहा हुईं. तो भारत सरकार ने उन्हें कुछ मदद पहुंचानी चाही. लेकिन उन्होंने किसी भी तरह की सरकारी मदद लेने से इंकार कर दिया. अपने अंतिम दिनों तक वे हैदराबाद की सड़कों पर फूल बेचते हुए ख़ुद का गुजारा करती रहीं. हैदराबाद के लोग उन्हें प्यार और सम्मान से ‘पेडम्मा’ कहकर याद करते हैं. 26 जुलाई 1998 को नीरा आर्या ने हैदराबाद के उस्मानिया अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. लेकिन, उनकी कहानी आज भी ज़िंदा है.

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