सरस्वती से संवादित अपने गले से अहले अदब को झंकृत और हमारे दादा के पीढ़ी से अब तक को भोर में सुकून देने वाली विदुषी गिरिजा देवी जी इस अहद के पार हैं. बनारस के पास साहित्य के तुलसीदास हैं. शिक्षा का काशी हिंदू विश्वविद्यालय है. धर्म के विश्वनाथ हैं लेकिन अब संगीत की गिरिजा देवी नही हैं. अदब में आवाज की मौलिकता ही पहचान होती है. उनकी ठुमरी, उनकी चैती, उनके आलाप और उनकी हंसी ने मौलिकता खो दी. तमाम किवदंतियां जन्म लेंगी, तमाम किस्से उठेंगे पर गिरिजा देवी ने खुद कई बातों से अवगत कराया है और विभिन्न माध्यमों से उन्हें हम तक पहुंचाया है.

अप्पा के जाने से ठुमरी जगत में एक खाली जगह बन गई है, जिसे भरा नहीं जा सकता.
एक बार के मिलने में ही सुभाशीष भी प्राप्त हुआ और गजब का प्रभावित कर देने वाला संवाद भी. उस्ताद फैयाज खान बनारस के कामेश्वर नाथ मंदिर में ललित का आलाप कर रहे थे. आठ वर्ष की गिरिजा देवी सुनकर रोने लगीं और तब उस्ताद फैयाज खान की निगाह पड़ी और उन्होंने उनके पिता को बुलाकर कहा कि आपके घर में देवी आई है. इसको साधो और पिता पं. बाबू राम राव दास ने गम्भीरता से उनको संगीत सिखाया और उस समकालीन दौर को ठुमरी की साक्षात् सरस्वती से परिचित कराया.
उनका नाम अप्पा पड़ने का भी एक बेहद रोचक किस्सा है. गिरिजा जी को गुड्डे गुड़िया बहुत पसंद थे. इस दौर तक वो उन्हें सजाकर रखती थीं. कलकत्ता में बड़ी बहन को एक खूब सुंदर बेटा हुआ. उसे बेहद मानती थीं, दिन भर उसे दुलराती रहतीं. थोड़े दिन बाद वो 'अप्प अप्प' बोलने लगा और जब बड़ा हुआ तो विधिवत 'अप्पा' ही कहने लगा. देखा-देखी घर में, फिर रिश्तेदार और अब समूचा राष्ट्र ही उन्हें अप्पा कहने लगा.
सुनिए उनकी एक प्रस्तुति:
बातों बातों में गिरिजा देवी कहती हैं, 'मेरे पति बेहद मानते थे मुझे. 20 साल बड़े थे. संगीत, उर्दू, हिंदी इन सब की बहुत समझ थी उन्हें. मैंने उनके साहित्य और संगीत की तरफ रुझान के लिए ही शादी भी की थी. अंग्रेजी भी वैसे ही बोलते थे जैसे उर्दू या हिंदी. व्यापारी थे.' ये कहने में वो आत्मविश्वास और गम्भीरता आकर्षित करती हैं.
अंत तक उनको एक ही दुख रहा. काशी घराने के बिखरने को लेकर. कहती रहीं कि यह घराना तो चौमुखी है. हर तरह के ध्रुपद, छंद, प्रबन्ध, ख्याल, टप्पा, तराने ये सब इतनी चीजें भरी हुई थीं मगर अभी वहां बेहद बिखराव हो चुका है. कहती रहीं समर्पण नहीं रहा.
ख़ैर, दाग देहलवी का यह शेर और बात खत्म.
कहीं हमने पता पाया न हरगिज़ आज तक तेरा यहां भी तू, वहां भी तू, जमीं तेरी, फलक तेरा.
ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्टुडेंट शाश्वत उपाध्याय ने भेजी है.