दुनिया को समझ आ गया था कि इस नई महाभारत में ये इकलौता ब्रह्मास्त्र है. जिसके पास परमाणु हथियार हैं, वो ही शक्तिशाली है.
भारत को आज़ाद होने में अभी दो साल बाक़ी थे. लेकिन अंग्रेजों की वापसी तय हो गई थी. और अब आगे की राह भारत को खुद ही तय करनी थी. ऐसे में एंट्री हुई डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा की. वे कैम्ब्रिज से पढ़ कर आए थे. और न्यूक्लियर फिजिक्स के प्रति उनका लगाव जुनूनी स्तर तक था. मार्च 1944 में डॉक्टर भाभा ने सर दोराब टाटा ट्रस्ट में एक प्रपोज़ल सबमिट किया. ये एक न्यूक्लियर रिसर्च इंस्टिट्यूट बनाए जाने का प्रपोज़ल था. प्रपोज़ल को मंज़ूरी मिली और दिसंबर 1945 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई. और यहीं से भारत में परमाणु ऊर्जा पर रिसर्च का काम शुरू हो गया.
1947 में भारत आज़ाद हुआ. नई सरकार ने 15 अप्रैल, 1948 को एटॉमिक एनर्जी ऐक्ट पास किया. जिसके तहत इंडियन अटॉमिक एनर्जी कमिशन यानी IAEC का गठन हुआ. इसका उद्देश्य था, परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को अपने पैरों पर खड़ा करना.
IAEC के गठन के मौक़े पर प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा,
“एटॉमिक ऊर्जा विकसित करने के पीछे हमारा उद्देश्य केवल शांति है. लेकिन एक देश के तौर पर अगर हमें मजबूर किया गया, तो हमें इसका इस्तेमाल और तरीक़ों से भी करना पड़ेगा. इस मसले पर हमारी भावनाएं कितनी ही पवित्र क्यों ना हो, लेकिन हम में से कोई भी इसके वाजिब इस्तेमाल से इंकार नहीं कर सकता.”दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया दो गुटों में बंट गई तो भारत ने नॉन अलायन्मेंट की नीति अपनाई. और हर वैश्विक मंच पर परमाणु हथियारों को रोकने की बात कही. लेकिन ये साफ़ था कि जब तक दूसरे देश न्यूक्लियर आर्म्स की होड़ में रहेंगे, भारत इससे पीछे नहीं हट सकता. भारत का ‘लॉस एलामॉस’ इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाते हुए 3 जनवरी, 1954 को IAEC ने एक नया उपक्रम बनाया. एटॉमिक एनर्जी इस्टेबलिशमेंट, ट्रोम्बे. AEET. जिसे भारत का ‘लॉस एलामॉस’ कहा गया. लॉस एलामॉस, अमेरिका के न्यू मैक्सिको राज्य में वो जगह है, जहां अमेरिका ने मैनहैटन प्रोजेक्ट के तहत परमाणु बम का आविष्कार किया था. इसके कुछ ही महीने बाद DAE यानी डिपार्टमेंट ऑफ़ अटॉमिक एनर्जी का गठन हुआ. प्रधानमंत्री नेहरू ने डॉक्टर भाभा को DAE का सेक्रेटरी नियुक्त किया. देश में परमाणु ऊर्जा का महत्व आप इस बात से समझ सकते हैं कि ये डिपार्टमेंट सीधे प्रधानमंत्री को जवाब देता था और आज भी ऐसा ही होता है.

डॉ. होमी जहांगीर भाभा (फ़ाइल फोटो: भारत सरकार)
मार्च 15, 1955 को एनर्जी कमीशन की मीटिंग में तय हुआ कि ट्रोम्बे में एक छोटा न्यूक्लियर रिएक्टर बनाया जाए. लेकिन इस तरह के रिएक्टर के लिए एनरिच्ड यूरेनियम की जरूरत थी. और भारत में रिसर्च अभी इस स्थिति तक नहीं पहुंचा थी कि वो यूरेनियम को एनरिच कर सके. ऐसे में डॉक्टर भाभा को कैम्ब्रिज के एक दोस्त की याद आई. ये थे जॉन कॉकरोफ़्ट जो कैम्ब्रिज में वैज्ञानिक हुआ करते थे. उनकी मदद से अक्टूबर 1955 में यूनाइटेड किंगडम एटॉमिक एनर्जी अथॉरिटी और DAE के बीच एक समझौता हुआ. जिसके तहत UK ने भारत को एनरिच्ड यूरेनियम की सप्लाई करना शुरू किया.
ईंधन की सप्लाई के अलावा इस रिएक्टर का बाक़ी सारा काम भारत में ही हुआ. मसलन इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स की असेम्ब्ली और रिएक्टर के अलग-अलग हिस्सों का निर्माण. यूं तो अमेरिका और यूरोप की नज़र परमाणु ऊर्जा से रिलेटेड सभी गतिविधियों पर रहती थी. लेकिन किसी को उम्मीद नहीं थी कि अभी-अभी आज़ाद हुआ एक देश परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में कुछ ख़ास आगे बढ़ पाएगा. यहां तक कि डॉक्टर भाभा के दोस्त जॉन कॉकरोफ़्ट ने यूरेनियम दिलाने में मदद तो की. लेकिन जब डॉक्टर भाभा ने कहा कि हम एक साल के अंदर रिएक्टर बना लेंगे तो कॉकरोफ़्ट ने उनसे शर्त लगाई कि एक साल में ऐसा होना सम्भव ही नहीं है.
ये बात बेवजह भी नहीं थी. रिएक्टर को बनाने के दौरान कई दिक़्क़तें आईं. उदाहरण के तौर पर, जब वैज्ञानिक रिएक्टर को तैयार कर रहे थे, तो ट्रोम्बे में कोई सरकारी कैंटीन नहीं हुआ करती थी. सरकारी नियमों के अनुसार बाहर से खाना लाना मना था. ऐसे में वैज्ञानिकों को 24 घंटे की शिफ़्ट में ट्रैवल करना पड़ता था. इन हालात को देखते हुए डॉक्टर भाभा ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा,
'सरकार के नियम और क़ानून इस काम में बहुत अड़चन पैदा कर रहे हैं. जबकि ये बहुत प्रेशर वाला काम है. और तेज गति से भी किया जाना ज़रूरी है. ऐसे में एक छोटी सी गलती भी हमें बहुत साल पीछे धकेल सकती है.’ख़त मिला तो प्रधानमंत्री नेहरू ने दो कारों का इंतज़ाम करवाया. ताकि वैज्ञानिक आसानी से ट्रैवल कर सकें. इसके अलावा प्राइवेट होटल से खाने की व्यवस्था कराई गई. जिससे लंच और डिनर रिएक्टर बिल्डिंग के अंदर ही पहुंचाए जा सकें. नीली अप्सरा भारतीय वैज्ञानिकों की पुरज़ोर मेहनत के बल पर एक साल में रिएक्टर बनकर तैयार हो गया. योजना के अनुसार 31 जुलाई, 1956 को रिएक्टर क्रिटिकल स्थिति पर पहुंच जाना चाहिए था. लेकिन कंट्रोल रॉड की गड़बड़ी के कारण ऐसा नहीं हो पाया.

डॉक्टर भाभा (दाएं) जिनेवा, स्विट्जरलैंड में परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग पर मुद्दे पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में
(तस्वीर: wikimedia)
क्रिटिकल स्थिति पर पहुंचने से क्या मतलब है? इसके लिए हमें न्यूक्लियर रिएक्टर के अंदर के रिएक्शन को समझना होगा.
दरअसल रिएक्टर के अंदर जब न्यूट्रॉन यूरेनियम के परमाणु से टकराते हैं तो उसमें ऊर्जा के साथ-साथ बहुत सारे न्यूट्रॉन भी निकलते हैं, जो बाकी बचे हुए यूरेनियम परमाणुओं से टकराते हैं. और इसी तरह एक चेन रिएक्शन बनती है. लेकिन रिएक्शन के दौरान निकलने वाले न्यूट्रॉन की गति बहुत तेज़ होती है. जिन्हें नियंत्रित किया जाना जरूरी होता है. इसके लिए हेवी वॉटर या ऐसे ही किसी और मॉडरेटर का उपयोग किया जाता है. जब न्यूट्रॉन की गति को इतना नियंत्रित कर लिया जाए कि रिएक्शन सस्टेंड हो जाए और नियंत्रित रूप से ऊर्जा पैदा होने लगे तो इसे क्रिटिकल स्थिति कहते हैं.