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दिल्ली में 22 हज़ार मुसलमानों को एक ही दिन फांसी पर लटका दिया गया!

1857 की क्रांति ने भारत में बहुत कुछ बदल दिया.

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The fascinating story of India's first war of independence 1857

1857 की क्रांति ने भारत के इतिहास में एक नया कैलेंडर बना दिया. उस साल भारत एक देश की तरह पहली बार खड़ा हुआ था. जबरदस्त लड़ाई हुई, पर ब्रिटिश विजयी रहे थे. देश के बहुत सारे राजाओं ने अंग्रेजों का ही साथ दिया था. बहुत हिचक रहे थे. और बहुतों ने उनके खिलाफ लड़ते हुए जान दी. कुछ तो हारने की टीस, कुछ पुराने सिस्टम को गंवाने का दुःख, ये सब मिलकर कई कहानियां गढ़ गए. वहीं जीती हुई ब्रिटिश सेना ने अलग इतिहास लिख दिया. इस क्रांति के बारे में कई तरह की कहानियां बन गईं. जीते हुए लोगों की गायी गई कहानियां और हारे लोगों की कही गयी कहानियां.

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आइये पढ़ते हैं 1857 के बारे में कुछ बातें:

1. शायर बादशाह लड़ा और इतनी रानियां लड़ीं कि किसी देश में इसकी मिसाल नहीं मिलती

भारत के बारे में हमेशा कहा जाता था कि यहां के लोग राजनीति में ज्यादा चूं-चपड़ नहीं करते थे. 'कोऊ नृप होए, हमें का हानि.' कोई भी आ के राजा बन गया, जनता को कोई दिक्कत नहीं थी. पर 1857 में पहली बार सैनिकों के अलावा व्यापारी, किसान और साधु तक लड़े थे.
लड़ने वाले राजा कई तरह के स्वभाव और बैकग्राउंड वाले थे. 'शायर' बादशाह बहादुर शाह जफ़र को सबका नेता बनाया गया था. पेशवा बाजीराव द्वितीय के गोद लिए हुए नाना साहब, 80 साल के बूढ़े कुंवर सिंह, तांत्या टोपे और बख्त खान भी हर जगह से लड़ रहे थे. फिर रानी लक्ष्मीबाई जो बेटे को पीठ पर बांधकर लड़ती थीं. बेगम हज़रत महल, रानी ईश्वरी देवी, तुलसीपुर की रानी सबने भयानक लड़ाई लड़ी थी. इतनी रानियों का जंग करना किसी भी देश के इतिहास में पहला मौका था.
रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रत महल
रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रत महल

ब्रिटिश अफसर ह्यू रोज ने कहा था: सारे विद्रोहियों में रानी लक्ष्मीबाई ही लड़ाका थी. सारे विद्रोहियों में अकेली 'मर्द'. रानी लक्ष्मीबाई के साथ ही उनकी बचपन की सखी झलकारीबाई का भी नाम आता है. वो दलित समुदाय से आती थीं. उन्होंने लक्ष्मीबाई के लिए अपनी जान दे दी थी.

2. आधे देसी राजा अंग्रेजों की तरफ थे, वहीं कुछ अंग्रेज भारत की तरफ से लड़े

लड़ाई अपने तय समय से पहले शुरू हो गयी थी. क्योंकि मंगल पाण्डेय ने कारतूस में चर्बी के नाम पर अपने एक अफसर को मार दिया था. सैनिक वहीं से विद्रोह कर गए. जब बहादुरशाह जफ़र को  बताया गया कि विद्रोही आप को नेता बनाना चाहते हैं तो वो घबरा गए. उनको किसी पर भरोसा नहीं था.  वो पहले से ही अंग्रेजों के पेंशनर थे. अपने बारे में चिंतित हो गए. साम्राज्य तो था नहीं. पर जब विद्रोही उनके पास पहुंचे तो वो नेता बनने के लिए तैयार हो गए. उनका नेता बनना महज एक सिंबल था. *इसके पहले जफ़र ने आगरा के लेफ्टिनेंट गवर्नर को विद्रोहियों के बारे में खबर कर दी थी. ऐसे ही रानी लक्ष्मीबाई ने पेशकश रखी थी कि मेरा राज्य छोड़ दो तो मैं तुम्हारी मदद करूंगी. पर अंग्रेजों ने मना कर दिया. उसी तरह कुंवर सिंह की मांग भी अंग्रेजों ने मना कर दी थी. पर सारे राजा नहीं लड़े थे. बंगाल से दिल्ली तक की सीधी पट्टी के राजाओं ने ही लड़ाई लड़ी. पंजाब के राजाओं ने अंग्रेजों की मदद की. दक्षिण भारत के राजा एकदम शांत रहे. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था.**
लड़ाई के वक़्त रियासतों की स्थिति (सोशल मीडिया से)
लड़ाई के वक़्त रियासतों की स्थिति (सोशल मीडिया से)

सबसे मजेदार बात है कि कुछ अंग्रेज भारत की तरफ से लड़े थे. सार्जेंट मेजर गॉर्डन, जिनको हिन्दुस्तानी शेख अब्दुल्ला बेग कहते थे, लखनऊ से लड़े थे. बहुत सारे एंग्लो-इंडियन सैनिक भी लड़े थे. पर सारे लोग मारे गए. ***बहादुरशाह जफ़र को रंगून भेज दिया गया. उनके बेटों को क़त्ल कर दिया गया. उनके छोटे बेटे को उनके साथ रंगून भेज दिया गया था.  रंगून में ही मरने से पहले बहादुरशाह जफ़र ने ये शेर लिखा था:

कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ़न के लिए, दो गज ज़मीन भी ना मिली कू-ए-यार में.


बहादुरशाह जफ़र
बहादुरशाह जफ़र

एक और शायर हुए रहे उस बखत. चाचा ग़ालिब. दिल्ली से कलकत्ता तक सबसे उधार लिए रहे. अंग्रेजन के पास जा हाजिरी देते रहे. शायर आदमी थे, कहां लड़ते. पर लिखा जरूर था:

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अल्लाह! अल्लाह! दिल्ली न रही, छावनी है, ना किला न शहर ना बाज़ार ना नहर, क़िस्सा मुख़्तसर, सहरा सहरा हो गया.

3. अंग्रेज मानते नहीं, पर रोटी से ही फोन का काम लिया गया था

ऐसा कहा जाता है कि विद्रोह की बात सब तक पहुँचाने के लिए कोई जरिया नहीं था. तो रोटी के सहारे सन्देश पहुंचाए जाते थे. एक रोटी किसी के पास पहुँचती थी. उस आदमी को सारा मामला समझाया जाता था. फिर वो वैसी ही बहुत सारी रोटियां बनाकर सबको बताता था. क्योंकि अंग्रेजों को पता चल जाता तो भांडा फूट जाता. रोटी घुमाने का कोई प्रमाण तो नहीं है क्योंकि छुप-छुपा के काम हो रहा था. पर एक ब्रिटिश डॉक्टर गिल्बर्ट हडो ने अपनी बहन को चिट्ठी लिख इस बारे में बताया था. अंग्रेज इतिहासकार इस बात को नकार देते हैं. क्योंकि बेइज्जत होने का डर था. कि सामने ही रोटी रख के सारा मामला हो गया और हवा तक नहीं लगी.
उस समय के बम्बई के पास अलीबाग के विष्णु भट्ट गोडसे वरसाईकर ने इस विद्रोह के बारे में किताब लिखी थी: A Factual Account of the 1857 Mutiny. उस समय ये पब्लिश नहीं हो पाई. हुई 1907 में. एक आम आदमी की नजर से विद्रोह के बारे में ये बहुत ही जबरदस्त ढंग से लिखी किताब है. पढ़ते-पढ़ते आप रोने लगेंगे.

4. हिटलर से ज्यादा खून बहाया अंग्रेजों ने, हिन्दू-मुसलमान को तोड़ना शुरू कर दिया

हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी. 'हर-हर महादेव' के साथ 'अल्लाह-हो-अकबर' के नारे गूंजते थे. इस बात से अंग्रेज घबरा गए थे. लड़ाई ख़त्म होने के बाद इसका उपाय किया गया. दिल्ली में पकड़े गए हिन्दू सैनिकों को छोड़ दिया गया. कहते हैं कि दिल्ली में एक ही दिन 22 हज़ार मुसलमान सैनिकों को फांसी दे दी गयी. यही तरीका कई जगह आजमाया गया. फिर हिन्दुओं को सरकारी नौकरी और ऊंचे पद दिए जाने लगे. मुसलमानों को दूर ही रखा गया. धीरे-धीरे जनता में हिन्दू-मुसलमान की भावना फैलने लगी. इसके ठीक बीस साल बाद पॉलिसी बदल दी गयी. अब मुसलमानों को ऊंचे पदों पर बैठाया जाने लगा. और हिन्दुओं को प्रताड़ित किया जाने लगा.
1857 की क्रांति के बाद ऐसे ही हुई थी फांसियां
1857 की क्रांति के बाद ऐसे ही हुई थी फांसियां

ऐसा कहा जाता है कि लड़ाई ख़त्म होने के बाद लगभग 10 लाख हिन्दुस्तानियों को मारा गया. दस साल तक ये काम गुपचुप रूप से किया जाता रहा. एक पूरी पीढ़ी को खड़ा होने से रोक दिया गया. हालांकि ब्रिटिश इस बात को नकार देते हैं. पर रिसर्च करने वाले कहते हैं कि नकारने से सच झुठलाया नहीं जा सकता. हिटलर ने भी यहूदियों के साथ इतना खून-खराबा नहीं किया था.

5. क्या होता अगर देसी राजा जीत गए होते?

ये सवाल बार-बार उठता है. क्योंकि देसी राजा उस समय पुराने ज़माने के हिसाब से चलते थे. आधुनिकता से कोई लेना-देना नहीं था. डेमोक्रेसी आने की कोई संभावना नहीं थी. फिर देश में कोई बड़ा शासक नहीं था. पूरा देश रियासतों में बंटा पड़ा था. शायद सूडान या मिडिल ईस्ट जैसी स्थिति हो जाती. पर ये भी संभव था कि जिस अंदाज में राजा और रानियां लड़े थे, देश अपने आप आधुनिकता के रास्ते चल पड़ता. फिर अंग्रेजों के हाथ से इंडिया के निकल जाने से दुनिया में उनका वर्चस्व कम हो जाता. इंडिया के दम पर उन्होंने बहुत कुछ हथियाया था.

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

*बिपिन चंद्रा की किताब India's Struggle For Independence से

**इतिहास में किसी बादशाह या किसी रानी-राजा ने जो भी फैसले लिए, वो उस वक़्त की स्थितियों और समझ के मुताबिक थे. आज के डेमोक्रेटिक मूल्यों के आधार पर हम उन फैसलों को तौल नहीं सकते. क्योंकि ये सही नहीं होगा. उन फैसलों के बारे में कोई भी बात, किसी को भी 'देशद्रोही' साबित करने का जरिया नहीं हो सकती. इतिहास को कभी वर्तमान के चश्मे से नहीं देखना है. जो था, वो था.

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*** भूल सुधार: एक अन्य लड़ाई में शाह आलम द्वितीय को अंधा किया गया था. यहां पर बहादुरशाह जफ़र के बारे में ऐसा लिखा गया था. इसके लिए खेद है.

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