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16वीं शताब्दी में एक तीर ने कैसे तय कर दी हिंदुस्तान की क़िस्मत?

पानीपत की दूसरी लड़ाई, जिसमें हार और जीत का अंतर एक तीर से तय हुआ.

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पानीपत की दूसरी लड़ाई और हेमचंद्र विक्रमादित्य (तस्वीर: wikimedia commons)
मध्य और शुरुआती आधुनिक काल की तीन सबसे बड़ी लड़ाइयां पानीपत में लड़ी गईं. पानीपत ही क्यों?
क्योंकि रियल एस्टेट की तरह जंग का भी एक ही मंत्र होता है, लोकेशन, लोकेशन, लोकेशन. भारत की तरफ़ उत्तर से आने वाले आक्रमणकारियों के लिए दिल्ली दूर पड़ती थी. खैबर दर्रे को पार कर पंजाब का इलाक़ा पड़ता था. इस पर कब्जा कर लिया तो मतलब रसद का अच्छा-ख़ासा सोर्स हाथ लग गया. इसका अगला चरण होता था दिल्ली जिसे जीतने के लिए वर्तमान शासक से जंग लड़नी होती थी. जंग के लिए चाहिए होता था मैदान. दिल्ली और पंजाब के बीच पानीपत ही एक ऐसी जगह थी जहां खूब लम्बे चौड़े सपाट मैदान थे. लड़ाई के लिए एकदम उपयुक्त.
यहीं पर 1526 में इब्राहिम लोधी को हराकर बाबर ने मुग़ल शासन की नींव रखी. इसे पानीपत की पहली लड़ाई के नाम से जाना जाता है. पानीपत की तीसरी और आख़िरी लड़ाई हुई थी 1761 में. तब अहमद शाह अब्दाली ने मराठाओं को हरा दिया था. अगर-मगर और किंतु-परंतु भारत के इतिहास को ढालने में इन दोनों लड़ाइयों का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है. रिज़ल्ट क्या था और क्या हो सकता था. इसको लेकर आज भी खूब अगर-मगर और किंतु-परंतु चलता है. अगर 1526 में लोधी ना हारता तो शायद मुग़लों को आज इतनी गाली ना पड़ती. अगर 1761 में मराठा ना हारते तो शायद अंग्रेजों को भारत पर कब्जा जमाने में कुछ और मशक़्क़त करनी पड़ती.
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मुग़ल शासक बाबर (तस्वीर: wikimedia commons)


लेकिन एक लड़ाई है जो इन दो महायुद्धों के बीच कहीं नेपथ्य में चली जाती है. पानीपत की दूसरी लड़ाई. जो अगर-मगर के खेल के लिए सबसे मुफ़ीद है. क्योंकि इसमें एक तरफ़ था अकबर जिसकी तब उम्र थी सिर्फ़ 14 साल. और दूसरी तरफ़ था हेमू. आधुनिक भारत के इतिहास में दिल्ली पर कब्जा करने वाला एकमात्र हिंदू शासक. और शामिल थी एक ग़ज़ब युद्ध नीति जिसका नाम था तुलुगमा. बाबर इसे उज्बेकों से सीख कर लाया था. और इसी रणनीति से उसने अपने से कहीं बड़ी लोधी सेना को पानीपत की पहली लड़ाई में मात दे दी थी.
शुरुआत 1555 से. 23 जुलाई के अंक में हमने आपको हुमायूं की कहानी बताई  थी. 1555 में सूरी वंश को हराकर हुमायूं ने आगरा और दिल्ली पर कब्जा जमाया. और सिर्फ़ 6 महीने बाद जनवरी 1556 में उसकी मौत हो गई.
यहां पढ़ें- 
रोज 3 दफा अफीम लेते हुमायूं ने दिल्ली दोबारा कैसे जीत ली?

1555 की लड़ाई में सूरी वंश हार गया था लेकिन भारत के कुछ हिस्सों पर उसका अभी भी कब्जा था. मुहम्मद शाह को हराकर आदिल शाह सूरी ने बंगाल पर कब्जा कर लिया था. इस जीत में उसका अपना कोई योगदान ना था. जीत के पीछे सारी मेहनत और दिमाग़ था हेमू का. हेमू की शुरुआत हेमू के जन्म और उसके बचपन को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है. लेकिन माना जाता है कि उसका जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के एक साधारण परिवार में हुआ था. 1545 में जब शेर शाह सूरी की मौत के बाद इस्लाम शाह शासक बना तो उसने अपनी सेना में हेमू को महत्वपूर्ण पद सौंपा. आगे चलकर वो सूर शासकों का वफ़ादार सेनापति बना और वज़ीर की पदवी तक पहुंचा. 1556 में जब हुमायूं की मौत की खबर बंगाल पहुंची तो हेमू ने मुग़लों से सत्ता वापस हथियाने का प्लान बनाया. उसने बंगाल से कूच करते हुए बयाना, इटावा, सम्भल और कल्पी से मुग़लों को खदेड़ दिया. इस दौरान वो 22 बार जंग लड़ा और सबमें अजेय रहा.
उसका अगला पड़ाव आगरा था. आगरा के गवर्नर को जब हेमू के आने की खबर लगी तो वो दिल्ली भाग गया. दिल्ली का गवर्नर तर्दी बेग खान हुआ करता था. उसने बैरम ख़ां से मदद मांगी. लेकिन सिकंदर शाह सूरी के ख़तरे को देखते हुए बैरम ख़ां ने अतिरिक्त टुकड़ियां भेजने से इनकार कर दिया.
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हुमायूं और शेर शाह सूरी (तस्वीर: wikimedia commons)


7 अक्टूबर 1556 के दिन तुग़लकाबाद में हेमू और तर्दी बेग खान का आमना सामना हुआ. इस लड़ाई में मुग़लों की हार हुई और दिल्ली और आगरे पर हेमू का कब्जा हो गया. हेमू ने खुद को भारत का शासक घोषित कर खुद को विक्रमादित्य की उपाधि दी और हेमू हो गया हेमचंद्र विक्रमादित्य.
14 साल का अकबर तब जालंधर में था. उसे मुग़ल शहंशाह घोषित कर मुग़ल सेना की डोर बैरम ख़ां ने सम्भाल ली थी. दिल्ली पर कब्जे की खबर मिली तो बैरम ख़ां ने अली कुली खान को 10 हज़ार रिसाला फ़ौज के साथ आगरे की तरफ़ भेजा. क़िस्मत अच्छी थी कि रास्ते में उसकी मुलाक़ात अफ़ग़ान फ़ौज की एक टुकड़ी से हो गई जो artillery लेकर पानीपत की तरफ़ बढ़ रही थी. अली कुली खान ने इस टुकड़ी का सफ़ाया कर हेमू की पूरी artillery पर कब्जा कर लिया. ये एक बड़ा सेटबैक था. लेकिन अब भी हेमू के पास 500 हाथी थे. साथ ही उसकी फ़ौज मुग़लों से कहीं ज़्यादा ताकतवर थी. तुलुगमा रणनीति इसके बाद आज ही के दिन यानी 5 नवंबर 1556 को दोनों सेनाओं का आमना-सामना पानीपत के मैदान पर हुआ. चलिए दोनों सेनाओं के फ़ॉर्मेशन पर नज़र डालते हैं.  मुग़ल सेना का फ़ॉर्मेशन तुलुगमा रणनीति के तहत किया गया था. क्या थी ये रणनीति?
इसके तहत सेना को तीन हिस्सों में बांटा गया था. लेफ़्ट, राइट और सेंटर डिविज़न. लेफ़्ट और राइट विंग को भी फ़ॉर्वर्ड और रियर डिविज़न में बांटा गया, यानी आगे और पीछे दो हिस्से. सेंटर डिविज़न के आगे की पंक्ति (वैनगार्ड) में बैलगाड़ियां खड़ी की. जिन्हें मज़बूत रस्सी से आपस में बांधा जाता, ताकि हमला होने पर वो भाग ना जाएं. बीच में सिर्फ़ इतनी जगह छोड़ी जाती कि दो घुड़सवार सैनिक एक साथ निकल सकें. इस पंक्ति के पीछे तोपखाना लगाया जाता जो बैलगाड़ियों से सुरक्षित रहता. बाएं और दाएं फ़्लैंक पर माहिर तीरंदाज़ तैनात होते.
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हेमचंद्र विक्रमादित्य (तस्वीर: wikimedia commons)


जंग की शुरुआत होने पर एक टुकड़ी निकलती और हमला कर वापस रक्षापंक्ति में जुड़ जाती. इस दौरान लगातार तोप के गोले और तीर दागे जाते ताकि दुश्मन को संभलने का कोई मौक़ा ना मिले. मुग़ल सेना के सेंटर डिविज़न को मुहम्मद क़ासिम सम्भाल रहा था. लेफ़्ट विंग को इस्कंदर ख़ान और राइट विंग को अब्दुल्ला ख़ां लीड कर रहा था. सबसे आगे की ओर एक खाई भी खोद रखी थी ताकि हाथी पार ना कर सकें. वहां से आठ मील दूर अकबर और बैरम ख़ां 8 हजार सैनिकों के साथ रुके हुए थे ताकि ज़रूरत पड़ने पर अचानक हमला कर सकें.
दूसरी तरफ़ हेमू की सेना का फ़ॉर्मेशन इससे बिलकुल अलग था. सबसे आगे 500 हाथी तैनात थे. हवाई नाम के हाथी पर बैठकर हेमू खुद इन्हें लीड कर रहा था. इनका काम था, मुग़ल सेना के मज़बूत फ़्रंट को ताक़त के बल पर तोड़ना. इसके पीछे 30 हज़ार अफ़ग़ान घुड़सवार तैनात थे. एक बार फ़्रंट टूट जाने पर घुड़सवार तेज़ी से हमला कर सकते थे. सबसे पीछे पैदल सेना थी. जिसका काम था फ़ॉर्वर्ड मूवमेंट को कन्सॉलिडेट करना. जंग की शुरुआत जंग का बिगुल बजा तो हेमू ने हाथियों को सामने के बजाय दाएं और बाएं फ़्लैंक की ओर दौड़ाया. मुग़ल सेना का सेंटर डिविज़न आइसोलेट हो चुका था. मुग़ल तीरंदाज़ों ने पीछे हटने की बजाय सेंटर की तरफ़ मूव किया और हाथियों के पैरों में निशाना लगाया. मुग़ल सेना के सेंटर डिविज़न के आगे खुदाई की गई थी. हाथियों के लिए इसे पार करना मुश्किल पड़ रहा था. इसी बीच तोप के गोलों की लगातार बरसात हो रही थी. हेमू को हाथियों सहित पीछे हटना पड़ा.
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बैरम ख़ां और पानीपत के मैदान पर हाथी (तस्वीर: Wikimedia Commons)


हेमू की सेना को पीछे हटता देख मुग़ल घुड़सवार सेना ने हमला कर दिया. कुछ देर में लाशों और धूल ने रास्ते को पाट दिया तो हेमू के हाथियों ने पूरी ताक़त से फ़ॉर्वर्ड मार्च किया. हाथियों ने सेंटर डिविज़न पर हमला किया और मुग़ल सेना में खलबली मच गई. बाएं और दाएं फ़्लैंक पहले ही टूट चुके थे. हेमू को जीत साफ़ दिख रही थी. लेकिन तभी एक तीर उसकी एक आंख पर लगा और जंग की सूरत बदल गई. हेमू बेहोश हो चुका था. हाथी से कमांडर को गायब देख अफ़ग़ान सेना का हौसला टूट गया. और हेमू जीती हुई लड़ाई हार गया.
हेमू लगभग अधमरा हो चुका था. इसी हालत में उसे अकबर के पास ले ज़ाया गया. बैरम ख़ां ने अकबर से कहा कि वो खुद उसे मौत की सजा दे. इस पर अकबर बोला कि ये तो पहले ही मर चुका है, इसके जिस्म में हरकत होती तो मैं इसे सजा देता. इसके बाद बैरम ख़ां ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया जिसे दिल्ली ले जाकर ‘पुराना क़िला’ के गेट पर लटका दिया गया. जिस जगह पर हेमू का सर काटा गया था, आज वहां हेमू समाधि स्थल बना हुआ है. इसके कुछ साल बाद आदिल शाह की मृत्यु हो गई और सूरी वंश का भी अंत हो गया.