पंजाब उबल रहा था. काले क़ानून के ख़िलाफ़ सड़कें भरी हुई थीं. अमृतसर सेंटर था. गांधी रौलेट ऐक्ट के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के लिए पंजाब आना चाहते थे. लेकिन डिफ़ेन्स ऑफ़ इण्डिया के नाम पर उन्हें रोक दिया गया. गवर्नर माईकल ओ’ ड्वायर को मालूम था, गांधी आएंगे तो फिर पूरा पंजाब सड़क पर आ जाएगा. गांधी को घुसने से पहले ही गिरफ़्तार कर बंबई भेज दिया. गांधी आए होते तो शायद जलियांवाला बाग ना होता. उन पर गोली चलाने की “हिम्मत" सिर्फ़ गोडसे को थी. गांधी की गिरफ़्तारी की खबर पहुंची तो पूरा पंजाब बंद हो गया. जुलूसों से बाज़ार पटे हुए थे.
9 अप्रैल को पंजाब में आंदोलन की अगुवाई कर रहे डॉक्टर सत्यपाल और डाक्टर किचलू को पंजाब निकाला दे दिया गया. ओ’ ड्वायर ने डिप्टी कमीशनर को पैग़ाम भेजा. डिप्टी कमीशनर को ज़मीन के हालात मालूम थे. दंगों की कोई संभावना नहीं थी. लोग शांति से प्रदर्शन कर रहे थे. इसलिए हुक्म की तामील करने के बजाय उसने कोई एक्शन ना लिया. राम नवमी के दिन शहर में बड़ा जुलूस निकला. हिंदु-मुस्लिम-सिख सब त्योहार मना रहे थे. आजादी के संग्राम का.

जालियांवाला बाग हत्याकांड से पहले रॉलैट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन करते अमृतसर के लोग. (फ़िल्म उधम सिंह का एक सीन)
माइकल ओ’ ड्वायर उल्टी खोपड़ी का इंसान था. उसने डिप्टी कमीशनर की एक ना सुनी. और आंदोलन के लीडर डॉक्टर सत्यपाल और डाक्टर किचलू को जेल में डाल दिया. पूरे शहर में नाकाबंदी कर दी गई. कर्फ़्यू घोषित हो चुका था. फिर आई 13 अप्रैल की मनहूस तारीख. क्या हुआ था उस दिन? जलियांवाला बाग हत्याकांड की बात करना, ज़ख़्म कुरेदने जैसा है, लेकिन ये बात दुहरानी चाहिए. क्यों?
एक फ़िल्म आई साल 2021 में. उधम सिंह. आख़िरी के 20 मिनट देखिएगा. और फिर ये जानिएगा कि क्यों इस फ़िल्म को ऑस्कर ज्यूरी से बाहर कर दिया गया. इसीलिए जब तारीख को छुपाने, भुलाने की कोशिश हो तो उसे बार-बार दुहराया जाना चाहिए. आज कहानी उस शख़्स की जिसने पंजाब में रौलेट ऐक्ट के ख़िलाफ़ आंदोलन की अगुवाई की. जिसकी गिरफ़्तारी के बाद जलियांवाला बाग में सभा बुलाई गई थी जहां जनरल डायर ने हज़ार लोगों पर गोलियां चलवा दी थी. डॉक्टर सैफ़ुद्दीन किचलू कौन थे ये? 1888 में किचलू की पैदाइश हुई. पूर्वज कश्मीरी पंडित थे. जिन्होंने बाद में इस्लाम अपना लिया था. अमृतसर में शुरुआती पढ़ाई की. फिर कैम्ब्रिज का रुख़ किया. वहां फ़्रेंच क्रांति से प्रभावित हुए. ‘मजलिस’ नाम की एक स्टूडेंट सोसायटी से जुड़े. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को समझा और भारत वापस आकर वकालत शुरू कर दी. राजनीति में एंट्री हुई होम रूल लीग से. बाद में ख़िलाफ़त आंदोलन से जुड़े. और गांधी से प्रभावित होकर असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया.
ख़िलाफ़त आंदोलन पैन इस्लामिज़्म से प्रभावित था. तब तुर्की के ख़लीफ़ा को दुनिया के सारे सुन्नी मुसलमान अपना लीडर मानते थे. ऑटोमन एम्पायर वर्ल्ड वार-1 में ब्रिटेन के ख़िलाफ़ लड़ा था. वर्ल्ड वार-1 में हार हुई तो ऑटोमन एम्पायर बिखर गया. बाद में तुर्की के ख़लीफ़ा के शासन पर ख़तरा मंडराया तो मुसलमानों में इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठी. भारत में भी ब्रिटिश साम्राज्य था.

जलियांवाला बाग हत्याकांड में शहीद श्रद्धांजलि कार्यक्रम में सम्मिलित हुए डॉक्टर किचलू (तस्वीर: kashmirlife.net)
इस तरह भारत के आजादी आंदोलन और तुर्की के आंदोलन में एक रिलेशन स्थापित हो गया. इस बीच तुर्की में पासा उल्टा पड़ा. और वहां एक धर्मनिरपेक्ष सरकार बन गई. पैन इस्लामिज़्म का आईडिया फेल हो गया.जिसके बाद 1924 में ख़िलाफ़त आंदोलन भी समाप्त कर दिया गया.
डॉक्टर सैफ़ुद्दीन किचलू को अखिल भारतीय खिलाफत समिति का प्रमुख नियुक्त किया गया था. वो गांधी के विचारों से प्रभावित थे. 1920 में जब ख़िलाफ़त की कोख से जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी ने जन्म लिया तो उसके फ़ाउंडिंग मेंबर्स में एक डॉक्टर सैफ़ुद्दीन किचलू भी थे. जामिया मिलिया इस्लामिया जामिया की कहानी यूं है कि 1920 तक विशेषकर मुसलमानों के लिए उत्तर भारत में सिर्फ़ एक कॉलेज था. भारतीय मुसलमानों के रहनुमा सर सैय्यद अहमद ख़ां थे. उनका मानना था कि भारतीय मुसलमानों की शिक्षा का तौर-तरीक़ा ब्रिटिश जैसा होना चाहिए. इसके लिए उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मदन एंग्लो -ऑरीएंटल कॉलेज की स्थापना की. 1920 के बाद यही 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय' (AMU) के नाम से जाना जाने लगा.
1920 में जब ख़िलाफ़त आंदोलन चल रहा था. तब AMU से आजादी की आवाज़ें उठाना शुरू हुईं. लेकिन AMU का मूल विचार ब्रिटिश शिक्षा पर आधारित था. अकबर इलाहबादी (हंगामा है क्यों बरपा वाले) ने तब भारत में शिक्षा व्यवस्था पर एक शेर लिखा था,
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायां कर गए बी-ए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली फिर मर गएमतलब कि दोस्त क्या बताएं, हम क्या कारनामा कर गए हैं. बी-ए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली फिर मर गए. बस इतना ही. गांधी का विचार था कि देश में जो शिक्षा हो वो नौकरी पेशे के साथ-साथ राष्ट्रीयता की भावना का भी संचार करे. ताकि आजादी का आंदोलन एक जन आंदोलन बन सके. AMU और बाकी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी था. और पढ़ाई का उद्देश्य अधिकतर पुलिस या सेना में भर्ती होना या सरकारी बाबू बन जाना हुआ करता था. अंग्रेजों को ये व्यवस्था खूब सुहाती थी. गधे के सिर पर चंद किताबें असहयोग आंदोलन की शुरुआत से ही गांधी ने ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था का बहिष्कार करने के लिए आवाज उठाई. तब कुछ राष्ट्रवादी शिक्षकों और छात्रों के एक समूह ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छोड़ दिया. इस आंदोलन के सदस्यों में मौलाना महमूद हसन, मौलाना मौहम्मद अली, हकीम अजमल खान, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी और अब्दुल मजीद ख़्वाजा प्रमुख थे.

1920 में जाकिर हुसैन (तीसरी पंक्ति; बाएं से दूसरी) सहित छात्रों और शिक्षकों के समूह की तस्वीर जिन्होंने साथ जामिया मिलिया इस्लामिया की शुरुआत की, लाला लाजपत राय (दूसरी पंक्ति, एक बेंत पकड़े हुए) (सौजन्य: जामिया प्रेमचंद अभिलेखागार और साहित्य केंद्र)
राष्ट्रवादी विचार और मूल भाषा में शिक्षा के विचार पर 1920 में देश में चार विश्व विद्यालयों की नींव रखी गई. जामिया मिलिया इस्लामिया, काशी विद्या पीठ, गुजरात विद्या पीठ, और बिहार विद्या पीठ. जामिया के गठन पर मौलाना मोहम्मद अली से जब ये सवाल पूछा गया कि जामिया से पढ़े लोगों को अंग्रेज सरकारी नौकरी नहीं देंगे. तो उन्होंने एक सूफ़ी कहावत से जवाब दिया.
चार पाये बिरो किताब-ए-चंद ना मोहकीक़ शवाद ना दानिशमंदयानी एक गधे के सिर पर चंद किताबें रख देने से ना ही वो स्कॉलर बन जाता है और ना ही बुद्दिमान. जामिया में शिक्षा का माध्यम हिंदी और उर्दू को बनाया गया. साथ में काश्तकारी, वोकेशनल ट्रेनिंग, जूते बनाना, मेटल का काम, सूत कातना आदि काम भी करिकुलम में जोड़े गए. ताकि छात्र सिर्फ़ सरकारी नौकरी पर निर्भर ना रहें.
AMU की पॉलिटिक्स 1924 के बाद भी डोमिनियन रूल के विचार पर जमी रही. जबकि कांग्रेस पूर्ण स्वराज के रास्ते पर चल पड़ी थी. बाद में AMU मुस्लिम लीग की राजनीति का केंद्र बना. ख़ासकर 1939 के बाद. 1939 से पहले AMU से एकमुश्त राष्ट्रवाद की आवाज़ें उठती रहीं. लेकिन 1939 के बाद AMU की राजनीति में सेप्रेटिस्ट मूवमेंट ने जगह बना ली थी. AMU एक बड़ा और पुराना संस्थान था. हैदराबाद के निज़ाम सहित दुनिया भर से उसके लिए पैसा आता था. लेकिन ख़िलाफ़त आंदोलन के ख़ात्मे के बाद जामिया के लिए दिक़्क़त खड़ी हो गई. फंड आना बिलकुल बंद हो गए. गांधी कटोरा लेकर निकलने को तैयार हुए 1924 तक मुस्लिम लीग और कांग्रेस का भी मोहभंग हो चुका था. इसलिए गांधी चाहते थे कि मुस्लिम लीग के विचार के विपरीत जामिया में हिंदुस्तानी मुसलमान का विचार उपजे. जिसमें राष्ट्रीयता की भावना हो.

1920 में जामिया में बच्चे चरखा कातते हुए (तस्वीर: आर्काइव)
इसलिए जब जामिया के बंद होने की नौबत आ गई, तो गांधी ने जामिया को चलाने के लिए एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगा दिया. सबसे पहले तो जामिया को AMU की छाया से दूर दिल्ली में बसाया गया. 29 जनवरी 1925 को दिल्ली के करोल बाग स्थित शरीफ मंजिल में जामिया फाउंडेशन कमेटी की एक मीटिंग हुई. सवाल एक ही था. जामिया को चलाया कैसे जाए. गांधी भी मीटिंग में मौजूद थे. पैसों की तंगी की बात उठी तो गांधी बोले,
"कैसे भी हो जामिया को चलाना ही होगा. पैसे नहीं है तो मैं कटोरा लेकर भीख मांगने के लिए तैयार हूं."इसके बाद गांधी ने देश-विदेश से जामिया की मदद के लिए आवाज़ ऊंची की. कांग्रेस समर्थित संगठन की मदद कर कोई भी अंग्रेजों से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता था. कट्टर मुसलमान भी जामिया को AMU के लिए ख़तरा मानते थे. तब हकीम अजमल खान ने अपनी जेब से जामिया के ज्यादातर खर्च उठाए. डॉ एमए अंसारी, डॉ सैफ़ुद्दीन किचलू और अब्दुल मजीद ख़्वाजा ने भारत और विदेशों में धन इकट्ठा करने के लिए दौरा किया.
तब गांधी के कहने पर कई लोगों ने बिना तनख़्वाह के जामिया में शिक्षक की नौकरी की. अपनी ज़मीन जायदाद बेचकर जामिया को चलाने का प्रबंध किया. आने वाले सालों में रवीन्द्रनाथ टैगोर, मुंशी प्रेमचंद, बिरला, जमुना लाल बजाज जैसी हस्तियों का जामिया से करीबी रिश्ता रहा. स्टालिन शांति पुरस्कार 1935 में ओखला में जामिया की नई इमारत की नींव रखी गई. और जामिया भारतीय मुस्लिम राजनीति में एक नई धुरी की तरह उभरा. बंटवारे के बाद AMU से जहां अधिकतर लोग पाकिस्तान चले गए. वहीं जामिया से जो आवाज़ें उठी, उनमें मुसलमानों से भारत ना छोड़ने का आह्वान किया गया. गांधी अंतिम वक्त तक जामिया के लिए सॉफ़्ट कॉर्नर रखते थे. बंटवारे के बाद गांधी जब दिल्ली पहुंचे तो स्टेशन में उनका पहला सवाल था, ‘ज़ाकिर हुसैन सकुशल हैं? क्या जामिया मिल्लिया सुरक्षित है?’

1952 एशिया-प्रशांत क्षेत्रीय शांति सम्मेलन में भारत की तरफ़ से पेश हुए डॉक्टर किचलू (तस्वीर: Wikimedia Commons)
डॉ सैफुद्दीन किचलू भी अपने अंतिम दिनों तक जामिया से जुड़े रहे. 1924 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का महासचिव बनाया गया. उन्होंने ‘तंजीम’ नाम से एक पत्रिका की शुरुआत की. और उसके माध्यम से मुसलमानों से राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने की अपील की. वो ‘नौजवान भारत सभा’ के फ़ाउंडिंग मेम्बर भी थे. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का फ़्रंट, जिसका गठन भगत सिंह ने किया था. बाद के दिनों में HSRA से भी वो मार्गदर्शक के तौर पर जुड़े रहे.
डॉ सैफुद्दीन मुस्लिम लीग की विचारधारा के धुर विरोधी थे और आख़िर तक 'टू नेशन थियरी' का विरोध करते रहे. 1939 में जब सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस से अलग हुए तो उन्होंने भी कांग्रेस से दूरी बना ली. इस दौरान वो साम्यवादी विचार से प्रभावित हुए. और ‘शांति और मित्रता’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से विश्व शांति के लिए काम किया. आजादी के बाद सोवियत-भारत सबंधों को दिशा देने में उनका बड़ा हाथ था. जिसके चलते आज ही के दिन यानी 21 दिसम्बर 1954 को उन्हें स्टालिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. ये पुरस्कार पाने वाले वो पहले भारतीय थे.