The Lallantop

जब भारत में मच्छर से कटवाने का आठ आना मिलता था!

साल 1902 में एक ब्रिटिश डॉक्टर को मलेरिया फैलने के तरीके की खोज के लिए नोबल प्राइज़ मिला था. ये खोज उन्होंने भारत में रहते हुए की थी

Advertisement
post-main-image
1902 में मेडिसिन में नोबल प्राइज जीतने वाले रोनाल्ड रॉस ये सम्मान पाने वाले पहले व्यक्ति थे जो यूरोप से बहार पैदा हुआ हो (तस्वीर: फोटो एंड आर्काइव सर्विस LSHTM)

19 वीं सदी के आख़िरी सालों में शायद हुआ हो. मद्रास की गर्मी. रात को सोते आदमी पर शाक्यमुनि की तरह पहला सत्य उतरा. पहला सत्य यानी - दुःख है. क्या है दुःख- नींद नहीं आ रही है. इसके बाद एक एक कर बाकी तीन सत्य भी उजागर होते हैं. दुःख का कारण है- मच्छर जो सोने नहीं दे रहे. दुःख का उपाय है- मच्छरों से बचाव. और आख़िरी सत्य- दुःख से निदान का रास्ता है- मच्छरदानी.
इसी बीच वेदांत में दीक्षित बगल में सोया मनीषी कहता है. सब माया है. जो दिख रहा है, सिर्फ वो ही सत्य नहीं है. मच्छर सोने नहीं देते, ये बात आधी है. असल में उनसे न दिखने वाली मलेरिया जैसी बीमारी भी होती है. 
बगल वाला पूछता है, ये ज्ञान कैसे हासिल होता है? 
कीमत देनी होती है, सामने से जवाब आता है. 
कितनी कीमत? 
आठ आने प्रति मच्छर.

Add Lallantop as a Trusted Sourcegoogle-icon
Advertisement

21 सदीं में आज हम जानते हैं मलेरिया (Malaria) कैसे होता है. दवाई भी हासिल है. लेकिन एक वक्त था जब दुनियाभर में लाखों लोग हर साल मलेरिया से मरते थे. और दवाई तो दूर ये तक पता न था की मलेरिया मच्छरों (Transmission of Malaria) से होता है. इस बात की खोज भारत की धरती पर हुई थी. कैसे हुई थी, किसने की और ये आठ आने प्रति मच्छर वाली कहानी क्या है. चलिए जानते हैं. 

मच्छर प्रेमी डॉक्टर  

1895 की बात है. एक अंग्रेज़ डॉक्टर ब्रिटेन से भारत पहुंचे. इंडियन सिविल सर्विस की तरह तब इंडियन मेडिकल सर्विस IMS हुआ करती थी. और ये सज्जन IMS के तहत यहां अपनी सेवाएं देने पहुंचे थे. तैनाती मद्रास में थी. मद्रास का नमी वाला वातावरण मच्छरों के लिए माकूल था. और उनसे होने वाली बीमारियां भी हुआ करती थीं. कुल मिलाकर मद्रास में रहना खतरे का काम था. और यहां मरीज भी ज्यादा हुआ करते थे. फिर एक रोज़ IMS का सन्देश आया और डॉक्टर का तबादला कर दिया गया. राजपूताना में. जहां शुष्क वातावरण में मच्छर आदि कम हुआ करते थे. 

Advertisement

यहां पढ़ें-  भारत से यूरोप कैसे पहुंच गए उपनिषद?

देखा जाए तो ये लॉटरी थी. हर डॉक्टर मद्रास से दूर जाने में भलाई मानता था. लेकिन इन डॉक्टर साहब के लिए नहीं. वो पोस्टिंग रोकने के लिए अड़ गए. और जब IMS तैयार न हुआ तो इस्तीफे की धमकी दे डाली. डॉक्टर की जिद का कारण था उनका मच्छर प्रेम. वो मलेरिया के कारण पता करने के आख़िरी चरण में थे और इसके लिए उनका मद्रास में रहना जरूरी था.

Ronald Ross
20 अगस्त की तारीख को दुनिया में वर्ल्ड मॉस्किटो डे के तौर पर मनाया जाता है. इसी दिन 1897 में  रोनाल्ड रॉस ने मलेरिया के फैलने के तरीके की खोज की थी (तस्वीर: Wikimedia Commons)    

डॉक्टर का नाम था रोनाल्ड रॉस.(Ronald Ross) 1857 की क्रांति की शुरुआत के तीन दिन बाद 13 मई को रोनाल्ड की पैदाइश हुई थी. अपने शहर यानी उत्तराखंड के पहाड़ी जिले अल्मोड़ा में. पिता ब्रिटिश आर्मी में जनरल हुआ करते थे. आठ साल की उम्र में रोनाल्ड को पढ़ाई के लिए लन्दन जाना पड़ा. यहां मेडिकल की पढ़ाई की और 1881 में IMS में भर्ती हो गए. उसी साल लौटकर भारत आए. और मद्रास बर्मा सहित अंडमान तक कई जगह पोस्टिंग में रहे. 

Advertisement
मलेरिया ईश्वर की देन है 

1883 में बंगलुरु में भर्ती के समय एक खास चीज पर उनकी नजर गई. बंगलुरु में उनके बंगले में काफी मच्छर हुआ करते थे. उन्होंने ये पाया कि बाकी बंगलो की तुलना में उनके घर में मच्छर ज्यादा थे. इसका कारण जानने की कोशिश की. उन्होंने देखा कि उनके घर के बाहर एक पानी का खुला बर्तन था जिस पर मच्छर मंडराते थे. उन्होंने बर्तन में देखा तो उन्हें उसमें मच्छर के लार्वा मिले. रॉस ने बर्तन खाली कर दिया, और अगले कुछ दिनों में पाया कि मच्छर कम हो गए हैं.

यहां पढ़ें - इस इंडियन जासूस ने हिटलर तक को बेवक़ूफ़ बना डाला था

 रॉस ने ये बात अपने सीनियर्स को बताई और कहा कि अगर हम ऐसी पानी वाली जगह हटा दी जाए तो मच्छर कम हो जाएंगे. उनके सीनियर्स ने जवाब दिया, इन्हें ईश्वर ने बनाया है ताकि हम दुःख सहना सीख सकें. हमें प्रकृति के संतुलन में दखल देने का कोई हक़ नहीं. मेडिसिन की दुनिया में तब पैट्रिक मैनसन का बड़ा नाम था. वो ट्रॉपिकल मेडिसिन के पितामह माने जाते थ. रोनाल्ड ने ये बात उन्हें बताई. तो उन्होंने रोनाल्ड से मलेरिया पर शोध करने को कहा. पैट्रिक के अनुसार भारत इसके लिए सबसे उपयुक्त जगह थी, यहां नमी थी, और खूब मच्छर होते थे. 

Mosquito bite
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 60 हजार अमेरिकी सैनिकों की मलेरिया से मौत हो गई थी (तस्वीर: ब्रिटिश लाइब्रेरी) 

अगले कई सालों तक रॉस ने मलेरिया पर शोध किया. बंगलुरु के मिलिट्री हॉस्पिटल में रहते हुए उन्होंने मलेरिया पर अपनी पहली हाइपोथीसिस दी. उन्होंने कहा, मलेरिया मल में होने वाले संक्रमण के कारण होता है. इसी दौरान उन्हें चार्ल्स लेवरन नाम के एक फ्रेंच वैज्ञानिक के बारे में पता चला. जिन्होंने अपनी हाइपोथीसिस में कहा था कि मलेरिया एक परजीवी से होता है. जो मिट्टी में पाया जाता है. 

पानी पीने से मलेरिया!  

रॉस ने कई मरीजों के खून का टेस्ट कर परजीवी तलाशने की कोशिश की. जब नहीं मिला तो उन्होंने लेवरेन की बात को गलत बता दिया. उन्होंने लन्दन जाकर ये बात अपने मेंटर पैट्रिक को बताई. पैट्रिक ने उन्हें एक नई थियोरी के बारे में बताया. जिसके अनुसार मच्छर जब किसी मरेलिया के मरीज को काटता है तो वो परजीवी उसके अंदर आ जाते हैं. इसके बाद जब मच्छर अंडे देता है तो मलेरिया का परजीवी पानी में चला जाता है. और इसी पानी को पीने से लोगों को मलेरिया होता है.

रोनाल्ड के लिए ये नई थियोरी थी. वो तुरंत भारत लौटे और दुबारा रिर्सच शुरू कर दी. मिलिट्री हॉस्पिटल में वो मलेरिया के केस खोजने लगे. जो भी मलेरिया का मरीज़ दिखता, उसकी उंगली से खून का सैम्पल ले लेते. ये बात इतनी फ़ैल गई कि मरीज उनसे भागने लगे. यहां तक कि हॉस्पिटल स्टाफ ने मेलरिया मरीजों की फ़ाइल छुपाना शुरू कर दिया. इसके बाद रोनाल्ड ने खून के बदले पैसे देना शुरू कर दिया. 

Patrick manson and Charles Laveran
सर पैट्रिक मैन्सन और चार्ल्स लेवरन (तस्वीर: Wikimedia Commons)

उन्होंने कुछ मच्छरों को पकड़ा और कोशिश की कि वे मलेरिया के मरीजों को काटें. खून टेस्ट में परजीवी वाली बात साबित हो गई. इसके बाद उन्होंने कुछ मच्छरों को पानी की बोतल में डालकर, ये पानी चार लोगों को पीने को दिया. इन चारों को कुछ न हुआ. यानी मेलरिया पानी ने नहीं फैलता था. पैट्रिक की थियोरी फेल हो चुकी थी. इसके बाद उन्होंने पैट्रिक को एक खत लिखा और अपनी एक नई थियोरी दी. जिसके अनुसार मच्छर की लार में मलेरिया का परजीवी हो सकता था.

इस थियोरी को प्रूव करने के लिए उन्होंने मच्छरों से पहले मलेरिया के मरीजों को कटवाया और फिर इन्हीं मच्छरों को स्वस्थ लोगों पर छोड़ दिया. ये एक्सपेरिमेंट भी फेल रहा. किसी को मलेरिया नहीं हुआ. रॉस निराश हो चुके थे. लेकिन गलती उनकी नहीं थी. वे जिन मछरों का यूज़ कर रहे थे, वो क्यूलेक्स प्रजाति के थे. इस प्रजाति के मच्छर मलेरिया ट्रांसमिट नहीं कर सकते. उन्होने अपनी पत्नी को इस बात लिखा भी कि शायद मैं सही मच्छर यूज़ नहीं कर रहा. वहीं उनके मेंटर पैट्रिक इससे इत्तेफ़ाल नहीं रखते थे. उनके अनुसार मच्छर जिंदगी में सिर्फ एक बार लोगों को काटता था.

मच्छर से कटवाने का आठ आना 

इसी बीच रोनाल्ड को ऊटी जाने का मौका मिलाा. यहां उन्हें अपने कमरे की दीवार पर एक अलग सा मच्छर दिखा. जिसे उन्होंने झुके हुए पंखों वाला मच्छर नाम दिया. ये एनाफिलीज मच्छर था. लेकिन रॉस इसे मलेरिया से नहीं जोड़ पाए. अगले दो सालों तक उन्होंने अपने कोशिश जारी रखी. फिर जुलाई 1897 में रॉस की मुलाक़ात हुई हुसैन खान से. हुसैन मलेरिया से पीड़ित थे. उन्होंने हुसैन से आठ आने प्रति मच्छर का सौदा तय किया. यानी एक मच्छर को खून पिलाने का 8 आना

Malaria in india 1927
1927 में भारत में मलेरिया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

ऐसे 20 मच्छर लेकर उन्होंने उन पर शोध किया. और 20 अगस्त को इस बात की तक़सीद कर दी कि एनाफिलीज जाति का मच्छर अपने अंदर मलेरिया का परजीवी लेकर चलता है. मलेरिया के कारण की खोज हो चुकी थी. दिसंबर 1897 में उनका रिसर्च पेपर ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपा. इस मौके पर कवि दिल रॉस ने एक कविता लिखी थी, जिसका हिंदी में तर्जुमा कुछ इस तरह है,

लाखों की हत्यारी, ओ! मृत्यु 
बहते आंसुओं और धधकती सांसों के बीच 
मैंने तेरे मक्कार बीजों को ढूंढ निकाला है

1888 में रॉस का ट्रांसफर राजस्थान हो गया. यहां मलेरिया होना दुर्लभ बात थी. लेकिन फिर भी रॉस ने अपने रिसर्च जारी रखी. तब बायोलॉजिस्ट मानते थे कि मलेरिया सिर्फ इंसानों को हो सकता है. रॉस ने कुछ कबूतरों पर रिसर्च कर पता लगाया कि पक्षियों को भी मलेरिया हो सकता है. 

कोलम्बस को नार्थ पोल भेज दिया 

इस बीच IMS से आदेश आया कि मलेरिया की रिसर्च छोड़ो और आसाम जाओ. रॉस नाराज थे. उन्हें खत में लिखा “मानो कोलंबस को अमेरिका का छोर दिखते ही नार्थ पोल भेज दिया जाए”. IMS अधिकारियों के बारे में बोले, “जो कर सकता है उसे करने की इजाजत नहीं है, क्योंकि जो नहीं कर सकता वो बॉस बना बैठे हैं”. इस फीताशाही से तंग आकर रॉस ने इस्तीफा दे दिया. और अगस्त 1898 में लन्दन लौट गए. जाते-जाते उन्होंने सरकार को सलाह दी कि झुके पंखों वाले मच्छर से मलेरिया होता है. और इसे रोकने के लिए खुले स्थान पर पानी भरने से रोका जाना चाहिए.

anopheles mosquito
मलेरिया फैलाने वाला एनाफिलीज मच्छर (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अपने जीवन के अंत तक वो इन उपायों को लागू करने में लगे रहे. उन्होंने प्राइवेट फंडिंग से मॉस्किटो ब्रिगेड की शुरुआत की. और अफ्रीका के कई देशों में सफाई अभियान चलाया. 1902 में सुएज कैनाल कंपनी के अध्यक्ष ने उनसे इस्मालिया में मलेरिया रोकने में मदद मांगी. यहां कनाल के काम में लगे हजारों मजदूर मलेरिया की चपेट में आ रहे थे. रॉस ने यहां आकर सफाई अभियान चलाया. और सिर्फ एक साल के अंदर इस्मालिया से मलेरिया पूरी तरफ गायब हो गया. 

कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोगों ने इसे ‘सैनिटरी बोल्शविज्म’ का नाम दिया. प्रथम विश्व युद्ध के दौआन स्पेन, ग्रीस और पनामा जैसे देशों ने रॉस से मदद लेकर अपने यहां मलेरिया पर काबू पाया. अपनी खोज के लिए 1902 में उन्हें नोबल प्राइज से नवाजा गया. 19 सितम्बर 1932 को रोनाल्ड रॉस की मृत्यु हो गई.

वीडियो देखें - टीपू सुलतान की वंशज ने हिटलर की नाक में दम कर दिया

Advertisement