1905 का साल.बंगाल का विभाजन कर ईस्ट और वेस्ट बंगाल में बांटा जा रहा था. जनता सड़कों पर थी. इसी दौरान 12 साल का एक लड़का ढाका पहुंचता है. उद्देश्य पढ़ाई करना था. बड़ी मुश्किल से स्कॉलरशिप का इंतज़ाम हुआ था. 12 साल का वो लड़का अपने सभी सहपाठियों के साथ आंदोलन में कूद गया. फिर जैसा कि अपेक्षित था. उस लड़के को कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया. स्कॉलरशिप भी छीन ली गई.
आइंस्टीन से तारीफ़ पाने वाले इंडियन साइंटिस्ट को नेहरू से क्या दिक्कत थी?
साहा इक्वेशन देने वाले वैज्ञानिक मेघनाद साहा आज़ाद भारत के पहले चुनाव में उतरे थे.

आगे जाकर यही लड़का भारत का एक महान वैज्ञानिक बना. रमन और चंद्र्शेखर जैसे दिग्गजों की श्रेणी का. कार्य का क्षेत्र विज्ञान था. लेकिन देश आजादी की लड़ाई से गुजर रहा था. इसलिए राजनीति से भी गुरेज़ नहीं किया. और एक ऐसा वक्त भी आया कि यही व्यक्ति भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से तक भिड़ गया.
मेघनाद साहा की शुरुआतबांग्लादेश की राजधानी ढाका के नज़दीक एक गांव है, शाओराटोली. यहां जगन्नाथ साहा और भुवनेश्वरी देवी के घर 6 अक्टूबर 1893 को एक बच्चे का जन्म हुआ. बच्चे का नाम रखा गया मेघनाद. बादलों की गर्जना के नाम वाला ये बच्चा हमेशा आसमान की ओर ही निहारता रहा. स्कूल गया तो टीचर से पहला प्रश्न भी यही पूछा, “ये सूरज के आसपास जो रौशनी का चक्र बनता है, इसकी वजह क्या है”. टीचर कुछ जवाब तो ना दे सके लेकिन ये समझ गए कि मेघनाद का आगे पढ़ना ज़रूरी है.

टीचर ने मेघनाद के बड़े भाई को समझाया कि अगर यह बालक पढ़ पाया, तो बहुत होनहार साबित होगा. पिता के पास पैसे नहीं थे. बड़ी मुश्किल से घर का गुज़ारा चलता था. ऐसे में मेघनाद की मदद को आगे आए, डॉक्टर अनंत कुमार दास. डॉक्टर दास ने ना केवल मेघनाद का एक अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िला कराया, बल्कि उसे अपने घर रहने का आसरा भी दिया. आठवीं तक लोकल स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेघनाद ने ढाका के हाई स्कूल में दाख़िला लिया. चूंकि आठवीं में मेघनाद पूरे ढाका में प्रथम आए. इसलिए उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप भी मिली. वहां 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद जो आंदोलन शुरू हुआ, उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
1911 में मेघनाद साहा ने ढाका कॉलेज से ग्रैजुएशन की डिग्री ली. अपने प्रिय विषय गणित और फ़िज़िक्स में प्रथम आए. फिर प्रेज़िडेन्सी कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. 1913 में मिक्स्ड मैथमेटिक्स में बैचलर की डिग्री ली. इस दौरान ईडन हिंदु हॉस्टल में रहे. लेकिन जाति के चलते यहां भी भेदभाव सहना पड़ा. साहा पिछड़ी समझे जाने वाली जाति से आते थे. इसलिए ईडन हॉस्टल में लड़कों ने उनके साथ खाना खाने से इनकार कर दिया. हॉस्टल में देवी सरस्वती का एक मंदिर था. साहा वहां पूजा करने जाते तो वहां के पंडित उन्हें पूजा करने से रोकते.
दिग्गजों का साथ मिलाप्रेज़िडेंसी कॉलेज में साहा के सहपाठी थे सत्येंद्र नाथ बोस. जिन्होंने आगे चलकर बोस-आइंस्टीन कॉनडंसेट की खोज़ की. इतना ही नहीं प्रेज़िडेंसी कॉलेज में साहा को डॉक्टर जगदीश चंद्र बसु का साथ भी मिला. जो तब वहां शिक्षक के रूप में पढ़ाया करते थे. साहा के एक ग्रैजुएट छात्र से प्रोफेशनल फिजिसिस्ट बनने का सफ़र बहुत अनूठा था. MSC की डिग्री लेने के बाद 1916 में साहा ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी, कॉलेज ऑफ साइंस में एक लेक्चरर के रूप में पढ़ाना शुरू किया.

शुरुआत में उनका रुझान गणित की ओर था. लेकिन एक साल बाद उन्हें फ़िज़िक्स के डिपार्टमेंट में ट्रांसफर कर दिया गया. जहां वो स्पेक्ट्रोस्कोपी और थर्मोडायनामिक्स जैसे विषयों को पढ़ाने लगे. उन दिनों यूरोपीयन साइंटिफिक लिट्रेचर मिलना कठिन था. कलकत्ता की लाइब्रेरी में बहुत सी किताबें थी, लेकिन उनके अंग्रेज़ी अनुवाद मिलना कठिन हुआ करता था. तब साहा ने एक ऑस्ट्रीयन वैज्ञानिक. पॉल जोहान से मदद ली. पॉल जोहान ने उन्हें मैक्स प्लांक की एक किताब, ट्रीटी ऑन थर्मोडायनमिक्स का अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन मुहैया कराया. प्रेज़िडेंसी कॉलेज में विएना से लौटे एक जर्मन केमिस्ट की मदद से साहा ने जर्मन भाषा सीखी. इसके चलते उनके सहपाठी उन्हें ‘आइगनशाफ़न’ कहकर बुलाया करते. जर्मन भाषा के इस शब्द का अर्थ था, ‘गुण’.
साहा को जर्मन भाषा सीखने का फ़ायदा मिला 1919 में. जब उन्होंने और सत्येंद्र नाथ बोस ने मिलकर आइंस्टीन के रिलेटिविटी सिद्धांत के पेपर का पहला अंग्रेज़ी अनुवाद पेश किया. साथ ही साहा अपनी रिसर्च भी जारी रखे हुए थे. लेकिन बजट की कमी के चलते उनके रिसर्च पेपर छप नहीं पाते. 1919 में उन्हें प्रेमचंद स्कॉलरशिप के चयनित किया गया. जिसके कारण उन्हें विदेश में जाकर यूरोप की बड़ी लैब्स में काम करने का मौक़ा मिला. इसी समय पर साहा ने लाइट की क्लासिकल थियरी से उपजे अंतर्विरोधों पर काम करना शुरू किया.
मेघनाद साहा के लिए सवाल क्या था?पहले समझते हैं कि सवाल क्या था, जिसे सुलझाने के पीछे मेघनाद साहा लगे हुए थे. आइंस्टीन की रिलेटिविटी थियरी आने से पहले क्लासिकल थियरी से काम चलाया जाता था. तब बहुत से शक्तिशाली दूरबीन बन चुकी थी. जिनसे आकाश गंगा में मौजूद दूर के तारों और ग्रहों को देखा जा सकता था. इन खगोलपिंडों से जो रौशनी निकलती थी. उन्हें स्टेलर स्पेक्ट्रा नाम दिया गया. तारों से निकलने वाली रौशनी के वर्णक्रम से समझा जाता था कि तारा बना कब, वो कितनी दूर है और उसका टेम्प्रेचर क्या है.
इन रंगो से ही ये भी पता चलता था कि तारे कैसे, उनमें से कौन सी गैस निकल रही हैं. और उनमें कौन से रासायनिक तत्व मौजूद हैं. तब अमेरिका के एक बड़े वैज्ञानिक हेनरी नॉरिस रसेल तारों की रौशनी के वर्णक्रम को सुलझाने में लगे थे. रसेल को लगा कि प्लांक, बोहर, और आइंस्टाइन के विकिरण एवं क्वांटम यांत्रिकी संबंधी नियमों से तारों की रचना को समझने में मदद क्यों न ली जाए?
इतना तो समझ आ गया था कि रंगो का तारों के तापमान से कुछ लेना देना है. लेकिन इस बात को पूरी तरह समझाने में कोई भी भौतिकशास्त्री पूरी तरह सफल नहीं हो पाया था. इसी दौर में मेघनाद साहा ने भारत में इस पर काम करना शुरू किया. उन्होंने ऊंचे तापमान पर आयनीकरण का अध्ययन करना शुरू किया. आयनीकरण यानी एक ऐटम से इलेक्ट्रॉन का अलग होना. 1919 में कलकत्ता से उन्होंने ये शोध शुरू किया और सिर्फ़ एक साल में अपने शोध से स्टेलर स्पेक्ट्रा के ऊपर के बहुत ही महत्वपूर्ण शोध पत्र निकाला. तब उनकी उम्र सिर्फ़ 27 बरस थी.
सवाल का जवाबअक्टूबर 1920 में कलकत्ता की फिलॉसॉफिकल मेग्जीन में साहा का शोध पत्र छपा. इस पत्र से उन्होंने आयनीकरण ऊर्जा को आसपास के तापमान और दबाव से जोड़कर दिखाया. यह शोध पत्र छपते ही साहा विज्ञान जगत में रातों रात फ़ेमस हो गए. हेनरी नॉरिस रसेल ने इस शोध पत्र को पढ़ा तो उन्हें समझ आया कि साहा की इक्वेशन स्टेलर स्पेक्ट्रा को सॉल्व करने की कुंजी है. इसके बाद साहा ने दो और शोध पत्र प्रकाशित किए. साहा के पत्रों को पढ़कर रसेल ने अपने सहयोगी को लिखा, “आयनीकरण की इक्वेशन से हम जल्द ही तारों के तापमान का पता लगा लेंगे”

आइंस्टीन की रिलेटिविटी थियरी को परीक्षण द्वारा सत्यापित करने वाले आर्थर एडिंगटन में साहा की इक्वेशन को एस्ट्रोफ़िज़िक्स की 10वीं सबसे महत्वपूर्ण इक्वेशन बताया. साहा की इक्वेशन जब ऐल्बर्ट आइंस्टीन के पास पहुंची तो उन्होंने इसे विज्ञान जगह की संसार को एक विशेष देन बताया. वापस भारत लौटकर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में न्यूक्लियर फ़िज़िक्स का कोर्स शुरू किया.
1931 मवं उन्होंने अकैडमी ऑफ़ साइंस ऑफ़ यूनाइटेड प्रोविंस ऑफ़ आगरा एंड अवध की शुरुआत की. इसके अलावा 1950 में साहा ने इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स की स्थापना की. 1935 में उन्होंने साइंस एंड कल्चर नामक साइंस पत्रिका की शुरुआत की. जिसके ज़रिए वो लगातार ब्रिटिश सरकार पर हमलावर बने रहे.
PM नेहरू से मतभेद और चुनाववैज्ञानिक होने के साथ-साथ मेघनाद साहा की ज़िंदगी का एक और पहलू है. अपने छात्र जीवन से ही वो क्रांतिकारी दलों से जुड़े रहे. जुगांतर पार्टी के सम्बंध होने के चलते उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई. राष्ट्रीय चेतना को जगाने के लिए वो लगातार प्रयासरत रहे. सामाजिक कार्यकर्ता के रूप के उन्होंने अपनी पहचान बनाई. उन्होंने बंगाल के अकाल बाढ़ और विभाजन के दिन देखे थे. इसलिए उन्होंने बाढ़ और विभाजन से विस्थापित हुए लोगों के लिए काम किया.

उन्होंने बाढ़ के कारणों और रोकने का अध्ययन किया तथा अनेक नदी बांध परियोजनाओं और बिजली परियोजनाओं में सहयोगी बने. इसी के चलते वो आम जनता में बहुत लोकप्रिय हुए. और 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कलकत्ता से भारी बहुमत से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीतकर आए. छात्र जीवन के दिनों से ही विज्ञान की पुस्तकों की कमी को महसूस किया था। उन दिनों भारत में विज्ञान की पुस्तकों का अभाव था. तब विज्ञान की पुस्तकें विदेश से मंगवानी पड़ती थी. इसलिए उन्होंने कई विदेशी पुस्तकों का लोकल भाषा में अनुवाद किया. साथ ही खगोल विज्ञान के ऊपर कई पुस्तकें लिखी. और अपनी पुस्तकों को देश भर कि विद्यालयों में भेजा.
आजादी के बाद की कांग्रेस सरकार की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी. वो प्रधानमंत्री नेहरू की विज्ञान नीतियों की आलोचना करते थे. साहा को लगता था कि नेहरु इंडस्ट्री और वैज्ञानिक संस्थाओं की शुरुआत में जल्दबाज़ी कर रही हैं. उन्होंने लिखा कि नेहरू की नीति संभ्रांतवादी है. और वो भारत की असलियत नहीं देख पा रहे हैं. आज ही के दिन यानी 16 फरवरी 1956 को यह महान वैज्ञानिक योजना आयोग की एक बैठक में भाग लेने राष्ट्रपति भवन की ओर जा रहे थे कि अचानक गिर पड़े और हृदय गति रुक जाने से संसार से विदा हो गए. भारत के महानतम वैज्ञानिकों की गिनती में हमेशा मेघनाद साहा का नाम लिया जाता रहेगा.
वीडियो: तारीख: पुर्तगालियों ने बहादुर शाह को क्यों मार डाला?