शहीद-ए-आजम का कद इतना ऊंचा है कि धर्म की दुहाई देने वाले भी उनके इस खत से कन्नी काटते हैं. भले ही उनकी मूर्ति पर माला चढ़ा देने से राजनीति के कुछ बॉक्स टिक हो जाते हों. दूसरी तरफ भारत के साम्यवादी नेताओं ने इस खत से भारत में जनतान्त्रिक आंदोलनों को नास्तिकवाद से जोड़ दिया.
लिफाफा देख कर खत का मजमून भांप लेने वाले भी आए. कार्ल मार्क्स के कथन, 'धर्म जनता की अफीम है' का रिफ़्रेंस देते हुए मजदूर, किसान और गरीब या शक्तिहीन लोगों के जितने भी आंदोलन हुए हैं या हो रहे हैं, उन्हें साम्यवाद, मार्क्सवाद और नास्तिकतावाद की छतरी के नीचे धकेल दिया गया.
लेकिन यहां ये समझना जरूरी है कि पश्चिम और पूर्व के जनतान्त्रिक आंदोलनों में एक बेसिक अंतर है. यहां ईश्वर में विश्वास या अविश्वास, दोनों अपने आप में ध्येय नहीं हैं. इसीलिए भगत सिंह ख़ुद को नास्तिक कहते हैं. उन्हें अपना दोस्त और गुरु मानने वाले ऊधम सिंह, अपने हाथ में राम मुहम्मद आज़ाद गुदवाते हैं. और भगत सिंह जिन्हें अपना गुरु मानते थे, वो अपनी कविता में लिखते हैं ,
अगर कोई पूछे कि हम कौन हैं तो उन्हे बताना हम बागी हैं हमारा कर्तव्य है जुल्म का खात्मा हमारा पेशा है, गदर यही हमारी नमाज़ है यही हमारी संध्या है यही हमारी पूजा है और यही हमारा धर्म, हमारा काम है केवल यही हमारा खुदा है और यही हमारा इकलौता राम भी हैकौन था ये शख़्स जिसे भगत सिंह अपना गुरु मानते थे जिसकी फ़ोटो अंतिम दिनों तक अपनी ज़ेब में रखकर घूमा करते थे? शुरुआत 1893 से 1893 में ब्रिटिश सरकार एक बिल लेकर आई 'पंजाब कोलोनाइजेशन ऑफ लैंड ऐक्ट'. नए बिल के तहत जमीन-जायदाद के मसले में वसीयत का महत्व खत्म कर दिया गया. अब सिर्फ परिवार के सबसे बड़े बेटे को मालिकाना हक मिलता था. कहना न होगा, नए बिल से सरकार का इरादा जमीन हड़पने का था. तब पंजाब में विरोध का एक आंदोलन चला, ‘पगड़ी संभाल जट्टा’. पंजाब में विद्रोह के स्वर तेज हुए तो सरकार ने भी नया तरीका निकाला. जनता को स्टेट में भागीदार बनाकर. पंजाब से भारी संख्या में जवान मिलिट्री में भर्ती हुए और उन्हें ब्रिटेन के उपनिवेशों में तैनाती के लिए रवाना कर दिया गया.
लाहौर जेल में भगत सिंह (फाइल फोटो)
भारत में अंग्रेज सरकार नस्लभेदी नीतियां बनाती थी. लेकिन अमेरिका और कनाडा में जनता भी नस्लभेद में साझेदार थी. इसके चलते प्रवासी भारतीयों ने संगठित होना शुरू किया. 23 अप्रैल, 1913 को एस्टोरिया, ओरेगन में कुछ प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा भारत को आजाद कराने के प्रमुख उद्देश्य के साथ 'हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसिफ़िक कोस्ट' का गठन किया गया. इस संगठन के मुखिया थे, सोहन सिंह भाखना. इस संगठन की अन्य अहम जिम्मेदारियां लाला हरदयाल औऱ लाला ठाकुर लाल धुरी जैसे लोगों को दी गईं. करतार सिंह सराभा एक बार लाला हरदयाल सैन फ्रांसिस्को में किसी सभा को संबोधित कर रहे थे. सभा के बाद एक 16 साल का नौजवान उनसे मिला और उसने संगठन में जुड़ने की इच्छा जाहिर की. इस शख्स का नाम था, करतार सिंह सराभा. 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गांव में करतार का जन्म हुआ था. उनकी उम्र सिर्फ 8 साल थी, जब उनके पिता का निधन हो गया. बाद में दादा बदन सिंह ने इनका पालन पोषण किया.

छोटी उम्र में करतार सिंह सराभा और भगत सिंह (तस्वीर: Punjab State Archives)
करतार ने शुरुआती पढ़ाई गांव के एक स्कूल में की और बाद में मालवा खालसा हाई स्कूल, लुधियाना में एडमिशन ले लिया. आगे पढ़ाई करने के लिए उड़ीसा गए और 16 साल की उम्र में वहां से अमेरिका चले गए.
1912 में करतार सैन फ्रांसिस्को पहुंचे और बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया. पढ़ाई के दौरान करतार ने खेतों और मिलों में काम भी किया. भारतीय मजदूर कम रेट पर काम करने को तैयार थे, इसलिए लोकल जनता में भारतीयों को नफरत की निगाह से देखा जाता था. इस नफरत में नस्लभेद का पुट भी शामिल था. भारतीयों के प्रति होने वाली हिंसक घटनाओं के कारण करतार में राजनैतिक चेतना जगी.
इससे पहले वो मानते थे कि ये व्यक्ति के ऊपर है कि वो अपनी परस्थितियों से ऊपर उठे. लेकिन अमेरिका में रहकर उन्हें अहसास हुआ कि किसी समस्या का कारण जब व्यक्तिगत नहीं, तो हल व्यक्तिगत कैसे हो सकता है. इसके लिए सामाजिक चेतना का विस्तार आवश्यक है. हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसिफ़िक कोस्ट करतार इन्हीं सवालों से जूझ रहे थे, जब उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई और वो 'हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसिफ़िक कोस्ट' के सदस्य बन गए. इस संगठन का मकसद था अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह. तलवार से पहले कलम को हथियार बनाया गया. संगठन के विचारों को दुनियाभर में फैलाने के लिए एक पत्रिका निकाली गई. इसका नाम था 'गदर पत्रिका'.
एक नवंबर 1913 को गदर का पहला प्रकाशन उर्दू भाषा में छपा. पत्रिका के विस्तार के लिए जरूरी था कि इसे अलग-अलग भाषाओं में छापा जाए. बाद में गदर को गुरुमुखी, गुजराती, बंगाली, नेपाली और पश्तो भाषा में भी छापा गया.
गदर के पंजाबी संस्करण के लिए करतार सिंह ने जिम्मेदारी उठाई. उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और गदर पत्रिका के प्रचार-प्रसार में लग गए. ग़दर पत्रिका इतनी लोकप्रिय हुई कि इसके लिए नई पार्टी बनाई गई, जिसका नाम 'गदर पार्टी' रखा गया.

ग़दर समाचार पत्र (उर्दू) खंड 1, नंबर 22, 28 मार्च, 1914 (तस्वीर: wikimedia commons)
1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ. जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था. उसी साल अगस्त में गदर पत्रिका में एक संदेश छपा, ‘योद्धाओं! वो मौका आ गया है, जिसका इंतजार तुम कर रहे थे’
ये दुनियाभर के भारतीयों के लिए बुलावा था. करतार और गदर पार्टी के अन्य नेता पूरे अमेरिका और कनाडा में घूम-घूम कर भारतीयों को इकट्ठा करने लगे. उनसे कहा गया कि वो अपना काम धंधा निपटा कर भारत लौटने की तैयारी करें. अक्टूबर के अंत तक अमेरिका और कनाडा से आठ जहाज भारत की ओर निकले. करतार सिंह भी लंका के रास्ते भारत पहुंचे भारत में गदर आंदोलन अंग्रेजों को इसकी खबर लगी तो अधिकतर क्रांतिकारियों को भारत पहुंचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया. करतार सिंह ने कोलंबो में कदम रखा और वहां से कलकत्ता पहुंचे. जहां इनकी मुलाकात रासबिहारी बोस से हुई. दोनों में मिलकर पूरे बंगाल और उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को इकट्ठा करना शुरू किया. पार्टी के प्रचार के लिए उन्होंने हथियार इकट्ठे किए, बम बनाए और फौज में भी आजादी का प्रचार किया.
प्लान बनाया गया कि 1857 की तर्ज़ पर सैनिक विद्रोह शुरू किया जाएगा. 21 फरवरी 1915 से अंबाला कैंट से विद्रोह शुरू होना था. लेकिन इससे एक हफ्ते पहले यानी 15 फरवरी को ही अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई. विद्रोह की ताऱीख बदली गई, लेकिन इस बार भी मुखबिर ने सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी. इसके बाद अंग्रेजों ने गदर पार्टी के लोगों को पकड़ना शुरु किया. करतार सिंह और उनके साथी पकड़े गए. इन सब के खिलाफ राजद्रोह और कत्ल का मुकदमा चलाया गया.

स्थान- स्टॉकटन गुरुद्वारा, साल- 1916 गदर पार्टी सदस्य (तस्वीर: Wikimedia commons)
अदालत में पेश हुए तो जज ने उन्हें मौक़ा दिया कि वो अपने तेवर नरम रखें. लेकिन करतार किसी क़ीमत पर अपने सिद्धांतो से समझौता करने को राज़ी नहीं थे. कोर्ट में जब करतार सिंह के केस की आखिरी सुनवाई हो रही थी. तब उन्होंने पूछा,
‘मुझे क्या सजा होगी? उम्रकैद या फांसी?इससे पहले कि सामने से जवाब आता, ख़ुद ही बोल पड़े,
“मैं चाहता हूं कि मुझे फांसी मिले और मैं एक बार फिर जन्म लूं. जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होता, तब तक मैं जन्म लेता रहूंगा. ये मेरी आखिरी ख्वाहिश है.”फांसी की सजा हुई तो घर वाले मिलने आए. इनमें वो दादा भी थे, जिन्होंने बचपन में पिता का साया उठ जाने पर पालपोस कर उन्हें बड़ा किया था.
दादा ने पोते से मिलते ही सवाल किया,
‘बेटा रिश्तेदार तुझे बेवकूफ बता रहे हैं. ऐसा करने की क्या जरूरत थी तुझे? आखिर क्या कमी थी तेरे पास. ’तब करतार ने जवाब दिया,
'उनमें कोई हैजा से मर जाएगा, कोई मलेरिया से कोई प्लेग से. लेकिन मुझे ये मौत देश की खातिर मिलेगी. ऐसी किस्मत उनकी कहां है.’फांसी की सजा सुनने के बावज़ूद सूरत और सीरत में कोई बदलाव ना आया. सजा के ऐलान से फांसी के दिन तक 6 किलो वजन बढ़ा चुके थे. ग़दर के गीत गाते और हमेशा मुस्कुराते रहते थे. आज के दिन ही यानी 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह सराभा को उनके 6 साथियों के साथ लाहौर जेल में फांसी दी गई.
करतार का राजनैतिक जीवन सिर्फ़ 3 साल चला. लेकिन उनके किए काम का असर था कि भारत में आज़ादी के आंदोलन ने नई धार पकड़ी. ग़दर पार्टी के नेता जब भारत में चंदा जमा कर रहे थे. तब नन्हे भगत सिंह के घर उनका जाना हुआ. भगत सिंह के पिताजी ने पार्टी को चंदा दिया. तब भगत सिंह ने पहली बार करतार सिंह सराभा का नाम सुना. एक शम्मा बुझी, लेकिन दूसरी चिंगारी जला गई. एहतिशाम अख़्तर साहब का एक शेर ज़िंदा हुआ,
'शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से’