The Lallantop

तवांग भारत का हिस्सा कैसे बना?

तवांग में छठे दलाई लामा का जन्म हुआ था. इसीलिए चीन तवांग पर अपना हक़ ज़माना चाहता है.

post-main-image
1962 युद्ध में चीन ने NEFA में सबसे पहले तवांग पर कब्ज़ा किया था (तस्वीर: India Today)

9 दिसंबर 2022 को तवांग में चीनी फौजियों (India China Border conflict) ने अतिक्रमण की कोशिश की. और भारतीय फौजियों ने उन्हें मार भगाया. सवाल ये है कि चीन ने अतिक्रमण की कोशिश क्यों की?

इसका जवाब आपको मिलेगा कि चीन (China) इस इलाके में अपना कब्ज़ा चाहता है. लेकिन बात इतनी नहीं है. इस लड़ाई की तह में है एक लम्बा इतिहास है, जिसकी जड़ें आज से 400 साल पहले तक जाती हैं. क्या है तवांग की कहानी? कैसे हुई थी तवांग में भारत चीन की पहली झड़प? और, कौन था वो हीरो जिसकी बदौलत हम तवांग को आज अपना कह सकते हैं? चलिए जानते हैं.

तवांग में भारत चीन की जो लड़ाई है. दरअसल चीन कभी उसका हिस्सा रहा ही नहीं. ये बात भारत और तिब्बत के बीच थी. शुरू से देखिए.

तवांग मतलब?

तवांग में हेमलेट टेम्पल नाम का एक मंदिर है. साल 1643 में यहां छठे दलाई लामा, त्यांगसंग ग्यालत्सो ने जन्म लिया था. इसी मंदिर के नजदीक एक पेड़ है, जिसे लेकर एक कहानी चलती है. बताते हैं कि त्यांगसंग जब दलाई लामा का पदभार संभालने ल्हासा की ओर गए, तब उन्होंने कहा, 

“जब इस पेड़ की तीन मुख्य शाखाएं एक बराबर हो जाएंगी, मैं वापस तवांग आऊंगा”

स्थानीय लामा साधुओं का कहना है कि ये शाखाएं सिर्फ एक बार बराबर हुई थीं. वो था साल 1959. और इसी साल चौदहवें दलाई लामा तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेने आए थे. अब कमाल देखिए, चीन ने कभी चौदहवें दलाई लामा को स्वीकार नहीं किया. लेकिन हर साल वहां त्यांगसंग ग्यालत्सो की याद में आयोजन किया जाता है. अब पूछिए क्यों?

इसलिए कि चीन तवांग (Tawang) से अपने ऐतिहासिक रिश्तों को पुष्ट कर सके. 

तवांग का इतिहास 

1951 से पहले लगभग ४०० सालों तक तिब्बत तवांग से टैक्स वसूला करता था. फिर 1914 में शिमला कांफ्रेंस में तिब्बत और ब्रिटिश सरकार के बीच समझौता हुआ. जिसमें तय हुआ कि हिमालय को एक नैचुरल बॉर्डर मानते हुए हम इसे मेकमहोन लाइन का नाम देंगे. इस समझौते के तहत तिब्बत ने 700 वर्ग मील इलाका ब्रिटिश इंडिया को सौंप दिया. इसमें तवांग भी आता था. हालांकि, समझौते को जमीन पर आने में दो दशक लग गए. इसका मुख्य कारण था कि चीन इससे सहमत नहीं था.

6th dalai lama
त्यांगसंग ग्यालत्सो, छठे दलाई लामा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

फिर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्थिति में बदलाव आया. 1941 में चीन और जापान के बीच युद्ध की शुरुआत हुई. उसी बीच असम सरकार ने नॉर्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी यानी NEFA में अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी. इसे ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ का नाम दिया गया. 1944 में ने असम राइफल्स ने सेला पास के दक्षिणी इलाके में दिरांग जोंग में एक पोस्ट बनाई. और तिब्बत के टैक्स कलेक्टर्स को वहां से चलता कर दिया. तिब्बत ने विरोध जताया, लेकिन युद्ध के बीच कौन किसकी सुनने वाला था. हालांकि, इस दौरान भी तवांग में तिब्बती जमे रहे. आजादी के कुछ सालों तक यही स्थिति बरक़रार रही. फिर 1950 में चीन की इस खेल में एंट्री हुई. 

1950 में माओ ने तिब्बत पर हमला करते हुए उसे चीन का हिस्सा बता दिया. इसका मतलब अब वो तवांग को भी अपना कहने लगे थे. इसे भांपते हुए नेहरू ने 1951 में अपने एक प्रतिनिधि दल को तवांग भेजा. यहां से इस कहानी में एंट्री होती है मेजर बॉब खातिंग (Bob Khathing) की.

बॉब खातिंग

पूरा नाम ​​रालेंगनाओ बॉब खातिंग. खातिंग की पैदाइश 1912 में हुई थी. और वो मणिपुर के तंगखुल नागा समुदाय से आते थे. खातिंग ने आर्मी का हिस्सा बन द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लिया. और नागा जनजाति से किंग्स कमीशन पाने वाले पहले व्यक्ति बने. युद्ध के बाद मणिपुर के महाराजा ने उनसे सरकार का हिस्सा बनने का आग्रह किया. तब खातिंग को पहाड़ी इलाकों के प्रशासन का जिम्मा सौंपा गया. 1948 में वो मणिपुर असेम्बली का हिस्सा बने और 1950 आते आते असम रायगल्स की सेकेण्ड बटालियन के कमांडर नियुक्त हो गए. 

1950 में असम में भयंकर भूकंप आया. इस दौरान खातिंग ने राहत कार्य का जिम्मा संभाला. और इसके अगले बरस NEFA के असिसटेंट पोलिटिकल ऑफ़िसर नियुक्त हो गए. इसी पद पर रहते हुए वो नेहरू की नज़र में आए. और जब 1951 में तवांग में दिक्कतें शुरू हुई. नेहरू ने उन्हें वहां अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा. मैक्सवेल नेविल अपनी किताब ‘इंडिया चीन वॉर’ में लिखते हैं कि खातिंग को कई सारे पोर्टर्स (कुली) के साथ वहां भेजा गया था. उन्होंने तवांग से तिब्बती टैक्स कलेक्टर्स को रफा-दफा कर वहां का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. और वहां की स्थानीय जनता से भी उन्हें काफी सहयोग मिला. क्योंकि वो लोग किसी हाल में भी चीन का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. हालांकि, इस वक्त तक चीन ने इस इलाके में किसी ने इंटरेस्ट भी नहीं दिखाया था.

उनका ध्यान वेस्टर्न सेक्टर में था. 1957 आते-आते उन्होंने अक्साई चीन से होते हुए शिनजियांग को तिब्बत से जोड़ लिया था और वेस्टर्न सेकटर में अपनी अच्छी पैठ बना ली थी. फिर उन्होंने NEFA की तरफ ध्यान देना शुरू किया. 1957 से 1959 तक चीन चुप रहा. इसका एक कारण ये था कि उसे ताइवान की चिंता थी. डर था कि इधर चीन भारत से उलझे और दूसरी तरह कहीं ताइवान न हमला कर दे. हालांकि अमेरिकियों की तरफ से चीन को सन्देश भेजा गया कि ताइवान ऐसा कुछ नहीं करेगा..चीन एक ताकतवर सैन्यशक्ति था. इसलिए नेहरू लगातार शांति पर बल दे रहे थे. 

दलाई लामा भारत आए 

इसके बावजूद जब 1959 में चीन ने ल्हासा पर हमला किया, सरकार ने दलाई लामा का भारत में स्वागत किया. ये कदम चीन से दुश्मनी लेने के बराबर था. लेकिन नेहरू कुछ हद तक आदर्शवादी होने के कारण, अंतर्राष्ट्रीय न्याय का सिद्धांत अपनाने के पक्षधर थे. इसके बाद भी चीन अगले 3 साल शांत रहा. कुछ झड़पें हुई लेकिन साथ साथ दोनों देशों ने बीच पत्रों का आदान प्रदान होता रहा. 1960 में झू इनलाई भारत आए. यहां उन्होंने संकेतों में पेशकश की कि अगर भारत अक्साई चीन पर चीन का अधिकार मान ले, तो चीन नेफा पर हक़ छोड़ देगा. लेकिन नेहरू के साथ और दिक्कतें थी. उनके अपने मंत्री इस मामले में उनके साथ नहीं थे. इसलिए जब इनलाई आए तो नेहरू ने मोरारजी देसाई से मुलाक़ात करने को कहा. इनलाई और मोरारजी की मुलाकात आग और आग की लड़ाई थी. 

nehru and enlai
नेहरू और चु इनलाई (तस्वीर: India Today)

देसाई ने दो टूक कह दिया, अगर चीन अपनी सेना पीछे हटाएगा तभी कोई बात होगी. इनलाई ने कहा, 

आपने अपने देश में दलाई लामा को शरण दी है. यहां माओ के पुतले जलाए जा रहे हैं. आप चीन के खिलाफ काम कर रहे हैं”

देसाई ने जवाब दिया, 

“अभी कुछ दिन पहले ही मेरा पुतला जलाया है. इस देश में लोग गांधी के पुतले जला सकते हैं.”

बातचीत बिना नतीजे के ही ख़त्म हो गई. इनलाई नेहरू से इसलिए गुस्सा थे कि वो अपने दूसरे दर्ज़े के नेताओं से उनकी मुलाक़ात क्यों करा रहे थे. वहीं नेहरू की मजबूरी ये थी कि वो इनलाई को दिखाना चाहते थे कि किसी भी समझौते पर उन्हें अपनी ही सरकार से कितना विरोध झेलना पड़ेगा. चीन-भारत संबंधों में इस बातचीत को ‘पॉइंट ऑफ़ नो रिटर्न’ कहा जाता है. 

चीन ने गोवा का नाम लिया 

साल 1961 में हुई एक घटना ने चीन के इरादों को पक्का कर दिया. ये घटना थी गोवा की आजादी. 15 दिसम्बर 1961 को रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने गोवा में पुर्तगाली आर्मी को समझौते का प्रस्ताव भेजा. जब इस प्रस्ताव का कोई जवाब नहीं आया, तो सेना गोवा में घुसी और दो दिन में गोवा को भारत का हिस्सा बना लिया गया. गोवा की आजादी को चीन ने खूब प्रोपोगेंडा के रूप में इस्तेमाल किया. चीनी अखबारों में कहा गया, “नेहरू की लोकप्रियता गिर रही है, इसलिए उन्हें गोवा पर कार्रवाई करनी पड़ी”. साथ साथ उनका कहना था कि जैसे भारत को गोवा अधिकार में लेने का हक़ है, वैसे ही हमें भी अपनी जमीन लेने का हक़ है

1962 का साल अंतराष्ट्रीय क्राइसिस का साल था. अमेरिका इस वक्त क्यूबन मिसाइल क्राइसिस में फंसा था. और उनका इस तरह ज्यादा ध्यान नहीं था. वहीं सोवियत संघ भी अमेरिका के खिलाफ चीन को अपने साझेदार के रूप में देखना चाहता था. बाकायदा निकिता ख्रुश्चेव ने चीनी राजदूत को सन्देश में लिखा, 

“अगर सोवियत संघ चीन की जगह होता तो वो भी ऐसा ही करता”.

ये पहली और आखिरी बार था जब सोवियत संघ ने भारत चीन सीमा विवाद में सीधे तौर पर चीन का समर्थन किया. स्थिति पर नजर डालें तो आपको दिखाई देगा कि इस वक्त भारत चारों तरफ से अकेला था. नेहरू इसके बाद भी लगातार वार्ता में लगे रहे. 1962 में दोनों देशों के बीच आख़िरी वार्ता जेनेवा में हुई. कृष्णा मेनन ने प्रस्ताव दिया कि भारत का एक डेलिगेशन बीजिंग आकर वार्ता करेगा. 4 अगस्त 1962 में इनलाई ने जवाब दिया, ‘चीन केवल अपनी शर्तों पर बात करने के लिए तैयार है’. सुदर्शन भूटानी जो तब बीजिंग में भारतीय दूतावास में कार्यरत थे, उनके शब्दों में चीन की तरफ से दरवाज़ा पूरी तरफ से बंद कर दिया गया था. 

कैसे शुरू हुई NEFA में लड़ाई 

युद्ध का ट्रिगर पॉइंट बनी एक पोस्ट. जून 1962 में असम राइफल्स ने थगला रिज पर धो ला-पास पोस्ट तैयार की. ये पोस्ट नमकू चु नाम की नदी के दक्षिणी तट पर बनाई गई थी. इसकी कमान संभाल रहे थे 1 सिख के कैप्टन महावीर प्रसाद. इस समय पर तवांग में HQ 7 इन्फेंट्री ब्रिगेड और 1/9 गोरखा राइफल्स और 1 सिख की दो बटालियन मौजूद थी. तवांग से आगे कोई रोड नहीं थी. इसलिए यहां तक सामान पिट्ठुओं पर लादकर लाया जाता था. हालांकि तवांग और धो ला-पास के बीच दूरी सिर्फ 22 किलोमीटर थी, लें दुर्गम रास्तों से यहां पहुंचने में 3 दिन लग जाते थे. ब्रिगेडियर JP डालवी ने अपनी किताब हिमालयन ब्लंडर में इसका ब्यौरा दिया है. 

NEFA MAP
वेरियर एल्विन, 1959 द्वारा नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी का मानचित्र (तस्वीर: Wikimedia Commons)

डालवी बताते हैं कि धो ला-पास पोस्ट का एकमात्र उद्देश्य तवांग को बचाना था. 8 सितम्बर के रोज़ करीब 600 चीनी सैनिकों ने धो ला-पास को घेर लिया. और आने वाले दिनों में उनकी संख्या 1200 के आसपास हो गई. 7 इन्फेंट्री ब्रिगेड जो धो ला-पास को सपोर्ट दे रही थी, उसे कहा गया कि वो पीछे हट जाएं और 9 पजाब को हथुंगला पास के जरिए धो ला-पास से कांटेक्ट स्थापित करने को कहा गया. चीजें स्थिर थी. लेकिन यहां पर भारत से एक बड़ी गलती हो गई. 

5 अक्टूबर को लेफ्टिनेंट जनरल BM कॉल , जो अभी अभी GOC IV कोर नियुक्त हुए थे, हेलीकॉप्टर से पहुंचे. और उन्होंने चीनी सैनिकों को थगला रिज से खदेड़ने का आदेश दे दिया. साथ ही उन्होंने ट्रुप्स को 'नमकु चु' नदी के मुहाने तक बढ़ने का आदेश दिया. जबकि अभी ब्रिगेड कमांडर वहां मौजूद नहीं थे. उन्हें 7 तारीख तक पहुंचना था.

तवांग पर कब्ज़ा 

ब्रिगेडियर डालवी लिखते हैं कि 10 अक्टूबर के रोज़ हुई लड़ाई में 9 पंजाब के 6 अफसर वीरगति को प्राप्त हुए. वहीं 11 चीनी सैनिकों ने भी वीरगति हासिल की. हालांकि उस दिन लड़ाई के बाद चीन ने भारतीय जख्मी सैनिकों को पीछे हटने का मौका दिया. डालवी ने लिखा है, 

“उन्होंने हमारे मृत सैनिकों का दाहसंस्कार किया और भारतीय ट्रूप्स, नमकु चु से ये सब देखकर हैरान हो रहे थे” 

20 अक्टूबर को असली लड़ाई शुरू हुई और 23 तक चीन तवांग तक पहुंच गया. इस बीच सैनिक अपनी जगह पर खड़े रहे लेकिन न ही मिलिट्री लीडरशिप न ही सरकार की तरफ से उन्हें कोई साफ़ प्लानिंग बताई गई. 23 की रात चीन ने तवांग कोचारों तरफ से घेरा और 24 की सुबह उस पर कब्ज़ा भी कर लिया. तवांग को बचाने के लिए लगभग 800 सैनिकों ने बलिदान दिया. 

india china war
 

युद्ध ख़त्म होते-होते लगभग आधे NEFA पर कब्ज़ा कर लिया था. हालांकि युद्ध विराम के बाद उन्होंने ये इलाका खाली कर दिया. लेकिन इस पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा. खासकर तवांग पर. तब से अगले आधे दशक तक कई दौर की वार्ताओं के नतीजे में दोनों देशों के बीचस सम्बद्ध सुधरे. वाजपेयी सरकार के दौरान भारत में वन चाइना पॉलिसी अपनाई. और बदले में चीन ने सिक्कम पर अपना हक़ छोड़ दिया. 2005 में दोनों देशों के बीच हुई वार्ता में कहा गया कि स्थानीय लोगों की इच्छा के हिसाब से इलाके का निर्धारण होगा. इसका एक मतलब ये लगाया जा सकता है कि चीन अरुणाचल प्रदेश पर हक़ छोड़ने को तैयार हो गया था. लेकिन फिर शी जिंगपिंग के उभार के साथ ही चीन ने तमाम वार्ताओं को धता बताते हुए, आक्रामक तेवर दिखाने शुरू कर दिए. 

हम कह सकते है कि हम अपनी जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं देंगे. जो सही भी है. लेकिन वस्तुस्थिति से देखें तो चीन भारत से अभी बहुत ज्यादा ताकतवर है. दोनों न्यूक्लियर ताकत वाले देश हैं. ऐसे मने युद्ध की सम्भावना न के बराबर है. और इसीलिए भारत सरकार की तरफ से इस मामले में सोच समझ कर बयान दिया जाता है. ऐसे में हमें बड़ी खुशी है कि इतिहास बड़े महत्व रखने लग गया है क्योंकि आप तमाम चीजों को इतिहास के कंधों पर डाल सकते हैं. और हमें इससे कोई शिकायत भी नहीं है. तारीख के कंधे बहुत मजबूत हैं. 

तारीख: तमिल नरसंहार की वजह बना एक पासवर्ड