
फौजा सिंह अपने ट्रेनर के साथ दौड़ते हुए (तस्वीर: द इंडिपेंडेंट)
फौजा तगड़ा होने लगा. वो दिन चले गए जब फौजा डंडा हुआ करता था. अब उस इलाके में उसके जैसा बांका जवान ढूंढें से भी न मिलता. शादी की उम्र आई तो घर वालों ने लड़की ढूंढ के ब्याह भी करा दिया. ज्ञान कौर से साथ शादी हुई. और फौजा की घर-गृहस्थी शुरू हो गयी. फौजा खेत में जाता तो ज्ञान घर में काम करती. आने वाले सालों में परिवार बड़ा हुआ. फौजा के तीन बेटे, तीन बेटियां मिलाकर कुल 6 बच्चे हुए.
वक्त गुजरा. देश आजाद हुआ. बच्चे बड़े हुए. और एक-एक कर नौकरी वास्ते कनाडा लन्दन चले गए. सिवाय कुलदीप के. फौजा और ज्ञान का सबसे छोटा बेटा. वो जालंधर में ही रह गया. फौजा और ज्ञान की देखभाल करने. बेटे की मौत और मैराथन सब कुछ चंगा चल रहा था. फिर जिंदगी की शाम आई. साल 1992 में ज्ञान चल बसी. फौजा सिंह अब 80 पार हो चले थे. सोचा कुछ साल जिंदगी और है. कुलदीप के सहारे कट जाएगी. वो भी न हो सका. साल 1994 में कुलदीप एक कंस्ट्रक्शन हादसे का शिकार हो गया. अगले साल सबसे बड़ी बेटी बच्चे को जन्म देते हुए गुजर गयी. सिर्फ 2 सालों में फौजा की जिंदगी उलट-पुलट हो गई थी.
पत्नी और दो बच्चों की मौत ने फौजा सिंह को तोड़ कर रख दिया. तब लन्दन में रहने वाले फौजा के बच्चे उसे अपने साथ ले आए. ये सोचकर कि अकेले भारत में क्या करेंगे. फौजा लन्दन जाकर अपने बेटे सुखजिंदर और उसके परिवार के साथ रहने लगे. भारत से लन्दन. वो भी इस उम्र में. न साथी न दोस्त. न भाषा समझ में आए. फौजा का मन किसी चीज में न लगता था. टीवी देखकर अधिकतर वक्त गुजरता. ऐसी ही किसी शाम जब फौजा टीवी देख रहे थे. तो उन्होंने देखा कि लन्दन में मैराथन होने वाली है. और टीवी का एंकर लोगों से भाग लेने को कह रहा है.
फौजा को अपने बचपन के दिन याद आ गए. जब खेतों में दौड़ लगाकर उनकी टांगें मजबूत हुई थी. लेकिन अब वो उम्र नहीं थी. फिर भी फौजा ने सोचा, मैराथन भागूंगा. शुरुआत हुई सुबह की जॉगिंग से. भागना था, ये तो फौजा को पता था, लेकिन मैराथन किस चिड़िया को कहते हैं, इसका कोई आईडिया नहीं था. फौजा ने आसपास पूछा तो हरमिंदर सिंह का पता मिला. हरमिंदर खुद एक कोच और मैराथन धावक थे. फौजा ने हरमिंदर को अपनी मंशा बताई. हरमिंदर को विश्वास न हुआ. 89 की उम्र में मैराथन और वो भी सिर्फ 2 महीने बाद. लेकिन फिर फौजा की जिद के आगे हरमिंदर भी झुक गए. उन्होंने फौजा को ट्रेनिंग देने के लिए हामी भर दी. फौजा थ्री पीस सूट में पहुंचे पहला दिन था ट्रेनिंग का. फौजा आए. हरमिंदर भी. हरमिंदर ने ट्रैक सूट पहना था. फौजा ने थ्री पीस सूट. हरमिंदर की हंसी छूट गयी. फौजा को समझाया कि दौड़ने के लिए अलग पोशाक होती है. अगले दिन फौजा ने ट्रेकिंग सूट पहन रखा था. अब बारी हरमिंदर की थी. फौजा को समझाया कि मैराथन होती कैसी है. फौजा से जब पूछा गया, कितना दौड़ लोगे, तो फौजा ने जवाब दिया, 20 किलोमीटर. हरमिंदर ने कहा, लेकिन मैराथन तो 26 मील की होती है. यहां फौजा सिंह चकराए. उन्हें मील और किलोमीटर का अंतर न पता था. लेकिन एक बार जब ठान ली तो ठान ली. अब 26 किलोमीटर हो या 42, फौजा सिंह को किसी बात से फर्क न पड़ना था.

फौजा सिंह पर लिखी गयी किताब (तस्वीर: Runnersworld.com)
ट्रेनिंग शुरु हुई. साल 2000 में फौजा सिंह ने पहली बार मैराथन में हिस्सा लिया.6 घंटे और 54 मिनट का वक्त लिया. 89 की उम्र में फौजा सिंह की जिंदगी की ये पहली मैराथन थी. मैराथन पूरी हुई तो फौजा सिंह से पूछा गया, सरदार जी, इतना लम्बा कैसे दौड़ लिए? फौजा सिंह ने जवाब दिया, पहले 20 मील तो आसान थे. आख़िरी 6 मील के लिए रब से बातें करता रहा.
साल 2001 में लन्दन में एक और मैराथन हुई. फौजा की उम्र अब 90 क्रॉस कर चुकी थी. इस बार लेकिन दांव पर एक रिकॉर्ड भी था. 90 साल से ऊपर मैराथन दौड़ने का रिकॉर्ड तब 7 घंटे 52 मिनट था. और इस रिकॉर्ड को बने 25 साल से ऊपर हो चले थे. फौजा सिंह ने 6 घंटे 55 मिनट में दौड़ पूरी कर ली. और वर्ल्ड रिकॉर्ड 57 मिनट से टूट गया.
अगले 1 साल में फौजा ने तीन और मैराथन दौड़ी. सिर्फ़ 6 महीने के अंतराल में. ये भी अपने अपने आप में एक रिकॉर्ड था. साल 2004 में एडिडास ने फौजा को अपने एड कैम्पेन का हिस्सा बनाया. इस एड कैंपेन के वीडियो कमर्शियल में फौजा सिंह बॉक्सिंग सरताज मुहम्मद अली के साथ भी नजर आए. न्यू यॉर्क में नफरत के खिलाफ दौड़ 2004 में फौजा सिंह एक मैराथन में भाग लेने न्यू यॉर्क पहुंचे. 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद अमेरिका में मुसलमान हेट क्राइम का शिकार हो रहे थे. इस नफरत की चपेट में सिख भी आ रहे थे. चूंकि अपनी लम्बी दाढ़ी की वजह से कई बार उन्हें भी मुस्लिम ही मान लिया जाता था. फौजा अपने सिख भाइयों का साथ देने के लिए इस मैराथन में शरीक होने आए थे.

एडिडास के एड कैम्पेन में फौजा सिंह (तस्वीर: afaqs)
इस दौड़ में भाग लेने के दौरान भी फौजा को इस नफरत से रूबरू होना पड़ा. फिर भी फौजा ने दौड़ पूरी की. लेकिन इससे उनका मन न भरा. सिमरन जीत सिंह ने फौजा सिंह की काहानी के ऊपर एक बच्चों की किताब लिखी है. उनके अनुसार न्यू यॉर्क मैराथन में तेज़ दौड़ लगाकर फौजा सिंह दुनिया को दिखा देना चाहते थे, कि सिख क्या कर सकते हैं. लेकिन दौड़ में वक्त ज़्यादा लग गया. और फौजा शर्मिंदा हुए कि वो दुनिया भर के सिख भाई बहनों की नाक नहीं रख पाए.
इस रेस के बाद फौजा ने रिटायर होने का मन बना लिया था. लेकिन फिर भी साल 2000 से 2011 तक फौजा ने आठ मैराथन दौड़ों में भाग लिया. अपना पर्सनल बेस्ट दिया साल 2003 के टोरंटो मैराथन में. जहां उन्होंने 42.195 किलोमीटर की दूरी दिर्फ़ 5 घंटे 40 मिनट में पूरी की. 100 साल की उम्र में मैराथन साल 2011 में फौजा सिंह ने टोरंटो में एक और मैराथन में हिस्सा लिया. अबकी बार उन्हें 8 घंटे से ऊपर का वक्त लग गया. लेकिन खास बात ये थी कि तब फौजा सिंह 100 साल के हो गए थे. और जिंदगी की पारी में शतक लगाने के बाद मैराथन दौड़ने वाले वो पहले व्यक्ति बन गए.
100 की उम्र तक फौजा ने अपनी उम्र की कटैगरी में 200 मीटर, 400 मीटर, 800 मीटर और 3000 मीटर, और 5000 मीटर दौड़ में सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. ये सारे रिकॉर्ड एक ही दिन में तोड़े गए थे. कुछ रिकॉर्ड तो ऐसे थे, जो बने ही पहली बार थे. क्योंकि 100 साल की उम्र के किसी व्यक्ति ने इनमें हिस्सा लेने की कोशिश ही नहीं की थी.

टोरंटो में वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ने के बाद फौजा सिंह (तस्वीर: www.torontowaterfrontmarathon.com)
ये गिनीज वर्ल्ड में दर्ज़ होने वाली बात थी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. 1911 के भारत में जन्में फौजा सिंह के पास बर्थ सर्टिफिकेट कहां से आता. तब भारत में ये सब रिकॉर्ड होना शुरू भी नहीं हुआ थ . हालांकि फौजा के पास क़्वीन एलिज़ाबेथ का भेजा एक लेटर था, जिसमें क्वीन ने उन्हें 100 साल पूरे करने पर बधाई दी थी. लेकिन इससे भी बात बनी नहीं. और फौजा का रिकॉर्ड गिनीज बुक में दर्ज़ नहीं हो पाया.
जुलाई 2012 में हुए ओलिंपिक में फौजा सिंह ने ओलिम्पिक मशाल लेकर दौड़ लगाई. साल 2015 में उन्हें ब्रिटिश एम्पायर मैडल से नवाज़ा गया. उनकी बायोग्राफी का नाम है, टर्बण्ड टोर्नेडो यानी पगड़ी वाला तूफ़ान. फौजा सिंह की कहानी के बाद आपको आज की तारीख से जुड़े कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य बताते चलते हैं. एक नया पैसा 1 अप्रैल ही वो तारीख है जब 1936 में अलग ओडिशा राज्य की स्थापना की गयी थी. तब इसका नाम उड़ीसा हुआ करता था. 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई थी. और 1957 में आज ही के दिन भारत में डेसिमल कॉइनेज़ की शुरुआत हुई. यानी एक रूपये में 100 पैसे होंगे, ये नियम बना.
इससे पहले क्या होता था?
1957 से पहले भारत में नॉन डेसीमल कॉइनेज़ का उपयोग होता था. तब एक रूपये से छोटी मात्रा आना थी. और एक रूपये 16 आना के बराबर होता था. एक आना 4 पैसे के बराबर था. और 1 पैसा 3 पाई के बराबर होता था. यानी सबसे छोटी मुद्रा पाई हुआ करती थी. इसलिए गरीबी भी पाई में नापी जाती थी. मसलन ‘पाई-पाई का मोहताज़ होना’.

आधा आना और १ नया पैसा (तस्वीर: numista.com)
आना भी अलग-अलग डिनोमिनेशन में मिलता था. ¼ आना, आधा आना, 2 आना, चार आना, आठ आना, और सोलह आना. ¼ आने का सिक्का आज के 1 रूपये के आकार का होता था. बीच में एक छेद होता था. जिसमें धागा डालकर लोग 64, ¼ आना के सिक्के डाल देते. और इस तरफ आप एक रूपये की माला डालकर घूम सकते थे. एक रूपये में कितने पैसे? साल 1957, 1 अप्रैल के दिन सरकार ने डेसिमल कॉइन सिस्टम शुरू किया. यानी एक रुपया बराबर 100 पैसे. अब चूंकि पुराना पैसा भी था. और कई जगह उसी से लेन देन चलता रहा. इसलिए साल 1957 से लेकर 1964 तक पैसे के जो सिक्के छापे गए, उनमें लिखा होता था, नया पैसा. 90’s किड्स इस शब्दावली से परिचित होंगे. जब महीने के अंत में पैसे मांगो को मां कहती थी, ‘एक नया पैसा नहीं है मेरे पास’. तो ये इसी नए पैसे की बात हो रही थी.
कुछ साल तक नया और पुराना सिस्टम साथ-साथ चलते रहे. इसके चलते नई समस्या भी खड़ी हुई. तब चार आना में खाने की एक थाली आ जाया करती थी. हिसाब बिठाएंगे तो नए सिस्टम में ये हुआ 25 नया पैसा. नया सिस्टम आया तो दाम भी बदलकर लिखने शुरू हुए. ऐसे में कुछ लोगों खाने की थाली 26 पैसे में बेचनी शुरू की. 26 नए पैसे में. अब किसी के पास 4 आना हुआ तो हो गया हंगामा. चूंकि तब एक पैसे, एक नए पैसे में मूंगफली का पैकेट आ जाता था.
सो इस नए पैसे पुराने पैसे के चक्कर में काफी तू-तू, मैं-मैं होती. कई साल ऐसा ही चलने के बाद धीरे-धीरे आना का प्रचलन बंद हो गया. साल 1964 में ‘नया पैसा’ से ‘नया’ हटा दिया गया. और सिर्फ पैसा रह गया. और 1, 2 , 5 , 10 , 20 , 25 , 50 पैसे के कॉइन चलने लगे. संभव है आज साल 2022 में भी आपको कहीं संभाले हुए ये सिक्के मिल जाएं.