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विनोबा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहा था?

1975 में हुई एक घटना के बाद विनोबा को सरकारी संत कहा जाने लगा था

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जब इमरजेंसी लगी तब विनोबा मौन व्रत धारण किए हुए थे. विपक्ष उन्हें पानी तरफ़ समझ रहा था, और सरकार ने उन्हें अपनी तरफ़ करने की कोशिश की (तस्वीर: horvatland एंड टाइम्स पत्रिका)
1975 का साल. देश में इमरजेंसी लगी. नेता जेल गए. विपक्ष को लीड कर रहे थे गांधीवादी नेता जय प्रकाश नारायण, JP . देश में उनका क़द बहुत ऊंचा हुआ करता था. दूसरा ख़ेमा था इंदिरा की सत्ता में सूडो राज चला रहे संजय गांधी का. एक तीसरा ख़ेमा भी था. जिसमें सिर्फ़ एक व्यक्ति था, आचार्य विनोबा भावे. JP और विनोबा दोनों गांधीवादी थे. JP मान कर चल रहे थे कि विनोबा का समर्थन विपक्ष को ही रहेगा. और वो सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करेंगे. लेकिन इत्तेफ़ाक कुछ यूं बना कि 25 दिसंबर, 1974 से विनोबा ने एक साल का मौन धारण कर रखा था. 25 जून, 1975 को इमरजेंसी की घोषणा हुई. विनोबा मौन साधे हुए थे. राजनीति में कभी उनकी दिलचस्पी रही भी नहीं. वो गांधी की आध्यात्मिक विरासत लेकर चल रहे थे.
सरकार को लगा कि विनोबा से एक बार मुलाक़ात करनी चाहिए. ऐसे में वसंत साठे (जो बाद में देश के सूचना और प्रसारण मंत्री रहे) विनोबा से मिलने उनके पवनार वाले ब्रह्म विद्या मंदिर गए. साठे और विनोबा की मुलाकात हुई. विनोबा कुछ ना बोले. बस अपने पास रखी एक किताब साठे की ओर कर दी. इस पर लिखा था ‘अनुशासन पर्व’. इसके बाद सरकार ने वो प्रोपोगेंडा खेला कि रातों रात विनोबा एक संत से ‘सरकारी संत’ बना दिए गए. पहला सत्याग्रही विनोबा का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था. उनका जन्म हुआ था 11 सितम्बर 1895 को. महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव गागोडे में. पिता का नाम नरहरि शंभू राव और मां का नाम रुक्मिणी देवी था. विनोबा अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़े थे. कहते हैं कि नरहरि ने अपने चारों बेटे महात्मा गांधी को दान में दे दिये थे. इसलिए विनोबा में बचपन से ही गांधी और उनके तौर-तरीकों की तरफ झुकाव था. 21 की उम्र में विनोबा गांधी जी के अहमदाबाद स्थित कोचरब आश्रम गए.
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महात्मा गांधी और विनोबा भावे (तस्वीर: commons)


वहां गांधी जी के नेतृत्व में उन्होंने आध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की. आजादी के आंदोलन को लेकर भी उनका मत राजनैतिक नहीं था. वो इसे एक आध्यात्मिक आंदोलन मानते थे. गांधी भी विनोबा से बहुत प्रभावित हुए थे. 1921 में उन्होंने विनोबा को अपने वर्धा आश्रम को संभालने की जिम्मेदारी दी. 1940 में जब असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई तो महात्मा गांधी ने उन्हें पहला व्यक्तिगत सत्याग्रही बताया.
गांधी की हत्या के बाद उन्होंने गांधी की आध्यात्मिक विरासत को संभाला. जिसका एक मुख्य अव्यय ग़रीबों और पिछड़ों की सेवा करना था. यहीं से शुरुआत हुई सर्वोदय आंदोलन की. जिसके अनुसार लोकतंत्र दिल्ली से गांवों की ओर नहीं. बल्कि गांवों से दिल्ली की ओर चलना था. यही गांधी का भी सपना था. सर्वोदय आंदोलन के दौरान ही विनोबा की ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ आया. सर्वोदय से आगे 1951 की बात है. हैदराबाद से कुछ मील दूर शिवरामपल्ली में वार्षिक सर्वोदय सम्मेलन का आयोजन हो रहा था. विनोबा भावे तब नागपुर के पवनार आश्रम में रुके हुए थे. जब सम्मेलन में भाग लेने का संदेश आया तो विनोबा पैदल ही नागपुर से निकल गए. और 300 मील की दूरी तय कर सम्मेलन में भाग लेने पहुंचे. तब तेलंगाना में कम्यूनिस्ट आंदोलन ज़ोरों पर था. ये वो समय था जब ज़मीन के मामलों में सरकार नित नए नियम ला रही थी. लेकिन अभी भी अधिकतर ज़मीन कुछ लोगों तक ही सीमित थी.
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भूदान आंदोलन के दौरान आचार्य विनोबा भावे (तस्वीर: indiahistorypix)


आजादी के पहले से तेलंगाना में आंदोलन चल रहा था. लेकिन आजादी के बाद ये और भी उग्र हो गया था. महात्मा गांधी के शिष्य विनोबा ग़रीबों के हक़ों का समर्थन करते थे. लेकिन गांधी की विचारधारा में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी. 11 अप्रैल 1951. सर्वोदय सम्मेलन का आख़िरी दिन था. विनोबा ने घोषणा की. वो पवनार आश्रम तक वापस पैदल जाएंगे. और इस दौरान कम्यूनिस्टों के प्रभाव वाले इलाक़ों का दौरा भी करेंगे. इस दौरों में विनोबा को जल्द ही समझ आ गया कि मांग दोनों तरफ़ से जायज़ थी.
गरीब किसानों को ज़मीन का हक़ मिलना ज़रूरी था. लेकिन इस चक्कर में इस इलाक़े के लोगों को कम्यूनिस्ट आंदोलन की हिंसा का सामना करना पड़ रहा था. लोगों की शिकायत थी कि इस चक्कर में पुलिस भी उन्हें परेशान कर रही है. 18 अप्रैल के दिन विनोबा नलगोंडा ज़िले पहुंचे. ये कम्यूनिस्ट आंदोलन का केंद्र हुआ करता था. विनोबा के ठहरने की व्यवस्था पोचमपल्‍ली में की गई थी.
ट्रिविया: साल 2021 में संयुक्‍त राष्‍ट्र विश्‍व पर्यटन संगठन ने पोचमपल्‍ली को पर्यटन के लिहाज से देश का सर्वश्रेष्‍ठ गांव चुना था. भूदान आंदोलन की शुरुआत तब पोचमपल्ली में क़रीब 700 परिवार रहते थे. इसमें से दो तिहाई भूमिहीन थे. और उनमें से 40 परिवार ऐसे थे जिन्हें अछूत समझा जाता था. पोचमपल्ली में विनोबा का ज़ोरदार स्वागत हुआ. दोपहर में विनोबा ने हरिजन इलाक़े का दौरा किया. और उनकी परेशानी जानने की कोशिश की. इन लोगों ने विनोबा से कहा,
अगर हमें केवल 80 एकड़ ज़मीन मिल जाए तो 40 परिवारों का आराम से पालन पोषण हो सकता है."
सरकार से उम्मीद रखना बेमानी था. इसलिए विनोबा ने गांव के लोगों से कहा,
“अगर सरकार ये काम नहीं कर रही तो क्या गांव वाले खुद मिलकर इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते.”
विनोबा की बात से गांव वालों पर ऐसा असर हुआ कि उनमें से एक ज़मींदार, राम चंद्र रेड्डी खड़ा होकर बोला,
“मैं दूंगा ज़मीन. और सिर्फ़ 80 एकड़ नहीं, 100 एकड़ दूंगा.”
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भूदान आंदोलन के तहत पदयात्रा करते हुए विनोबा भावे (तस्वीर: Commons)

इस प्रकरण से विनोबा को विचार आया कि ग़रीबों को हक़ दिलाने का ये एक नायाब तरीक़ा हो सकता है. यही से शुरू हुआ भूदान आंदोलन. अक्टूबर 1951 में विनोबा ने आग्रह किया कि पूरे भारत के लोग 5 करोड़ एकड़ ज़मीन दान में दे. जो ग़रीबों में बांटी जाए. आगे चलकर ये आंदोलन ग्रामदान आंदोलन में चेंज हुआ. और पूरे के पूरे गांव दान में दिए जाने लगे. भूदान आंदोलन से प्रभावित होकर कई विदेशी भी विनोबा से जुड़े. इसमें से एक थे चेस्टर बोल्ज़. जो भारत में अमेरिकी राजनयिक हुआ करते थे. अपनी किताब, "द डायमेंशन ऑफ़ पीस” में वो लिखते हैं.
”भूदान आंदोलन कम्यूनिज़्म का एक ज़बरदस्त विकल्प प्रदान करता है. चूंकि इसमें हिंसा और ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है, इसलिए ये मानव गरिमा को बनाए रख बदलाव लाने की क्षमता रखता है”
आगे चलकर समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण भी इस आंदोलन से जुड़े. 1957 तक भूदान आंदोलन का ज़ोर कुछ कम होने लगा. विनोबा की मंशा स्वच्छ थी. लेकिन फिर इसमें ऐसे तत्व जुड़े कि हेरा फेरी होने लगी. कई जगह सिर्फ़ नाम के लिए ज़मीन दान दी गई. हक़ मालिकों का ही रहा. कई जगह बंजर ज़मीन बांट दी गई. जो ज़मीन दान में दी गई, उसका भी बंटवारा ठीक से नहीं हुआ. इन सब कारणों के चलते भूदान आंदोलन धीरे-धीरे क्षीण होता चला गया. सर्वोदय का भी वो असर नहीं दिख रहा था, जैसी विनोबा और JP को उम्मीद थी. इसके बावजूद विनोबा अपने आश्रम से समाज सुधार में लगे रहे. हरिजनों के कल्याण के लिए उन्होंने कई काम किए. मैला ढोने की परम्परा का विरोध किया. खुद मैला सर पर लादकर चले.
60 और 70 के दशक में विनोबा का देश में रुतबा वही था जो महात्मा गांधी का था. ये वो दौर था जब भारत के गांवों में विनोबा की गुटका, ‘विनोबा भावे का अरमान’ को हनुमान चालीसा की तरह पढ़ा जाता था. इस पूरे दौर में विनोबा ने कभी किसी का राजनीतिक पक्ष नहीं लिया. हालांकि सब उनका बहुत सम्मान किया करते थे. नेहरू के लिए तो वो बापू के सामान थे ही. इंदिरा भी उन्हें पिता सामान मानती थी. इसके बावजूद सार्वजनिक जीवन में विनोबा इंदिरा को हमेशा प्रधानमंत्री इंदिरा जी कहकर संबोधित किया करते थे. इमरजेंसी और विनोबा 1975 में इमरजेंसी का दौर आया. उस समय वो घटना हुई जिसका उल्लेख हमने शुरुआत में किया था. विनोबा ने ‘अनुशासन पर्व’ की ओर इशारा भर किया था. लेकिन इससे उनका आशय क्या था, ये स्पष्ट नहीं हो पाया. बहरहाल सरकार को जो चाहिए था वो उसे मिल गया. एक गांधी वादी के सामने दूसरा गांधीवादी खड़ा कर दिया गया.सरकार को एक टैग लाइन मिल गई. विनोबा के नाम से ‘अनुशासन पर्व’ के पोस्टर छपा दिए गए. सरकार ने ऐसा प्रोपोगेंडा चलाया कि विनोबा कह रहे हैं, ये इमरजेंसी नहीं अनुशासन है.
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सितंबर 1966 में विनोबा भावे के साथ बिहार के पूसा आश्रम में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (तस्वीर: इंडियन यूथ कांग्रेस ट्विटर हेंडल)


प्रोपोगेंडा सफल रहा. सरकार के समर्थक ही नहीं, विरोधी भी मानने लगे कि विनोबा इमरजेंसी के पक्षधर हैं. उन्हें सरकारी संत कहा जाने लगा. लेकिन बात इतनी सरल थी नहीं, जितनी पहली बार में दिखाई दे रही थी. इमरजेंसी के ठीक 6 महीने बाद 25 दिसंबर के रोज़ विनोबा ने अपना मौन व्रत तोड़ा. उसके बाद इस मुद्दे पर अपनी पूरी बात रखी. उनका तब का बयान कुछ यूं है,
‘अनुशासन-पर्व’ शब्द महाभारत का है. परंतु उसके पहले वह उपनिषद् में आया है. प्राचीन काल का रिवाज था. विद्यार्थी आचार्य के पास रह कर बारह साल विद्याभ्यास करता था. विद्याभ्यास पूरा कर जब वह घर जाने निकलता था तब आचार्य अंतिम उपदेश देते थे. उसका जिक्र उपनिषद् में आया है- एतत् अनुशासनम्, एवं उपासित्व्यम् – यानि इस अनुशासन पर आपको जिंदगीभर चलना है’
इसके बाद विनोबा बोले कि जिस अनुशासन की बात वो कर रहे थे वो आचार्य का होता है. ना कि सत्ता का. सत्ता के पास सिर्फ़ शासन होता है.
आगे बोले,
“शासन के हिसाब से दुनिया चलेगी तो कोई समाधान नहीं मिलने वाला. एक समस्या सुलझेगी तो फिर उलझ जाएगी. यही तमाशा आज दुनियाभर में चल रहा है. ‘ए’ से ‘जेड’ तक, अफगानिस्तान से ज़ांबिया तक 300-350 शासन दुनिया में होंगे. फिर उनकी गुटबंदी चलती है. शासन की लीडरशिप में सिर्फ़ मारकाट मचती है और असंतोष बढ़ता है. शासन के आदेश के अनुसार चलनेवालों की यही हालत होगी. उसके बदले अगर आचार्यों के अनुशासन में दुनिया चलेगी तो दुनिया में शांति रहेगी”
विनोबा की बातों से ये साफ़ होता है कि वो राजनीति से इतर आदर्श और आध्यात्म की बात कर रहे थे. इस दौरान JP और विनोबा के अनबन की बातें भी खूब चली. लेकिन इसमें भी पूरी सच्चाई नहीं है. 1978 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में JP बोले,
“आजादी के बाद देश के निर्माण की आवश्यकता थी. लेकिन राजनीति ने ऐसा होने नहीं दिया. सिर्फ़ चंद लोगों ने इस बारे में सोचा. पहले महात्मा गांधी ने सोचा, और बाद में विनोबा भावे ने. शायद आपको विश्वास ना हो, विनोबा देश की तस्वीर बदल सकते थे. लेकिन अब उन्होंने सार्वजनिक जीवन से अवकाश ले लिया है. और उनके बाद खाली हुई जगह को अभी तक भरा नहीं जा सका है.”
विनोबा और जेपी रिश्ता आजीवन स्नेहपूर्ण बना रहा. यहां तक कि जब JP का निधन हुआ तो जेपी की अस्थियां विनोबा ने ब्रह्म विद्या मंदिर में एक पेड़ के नीचे विसर्जित की थीं. और उन पेड़ों पर JP के नाम की तख़्ती लगाई. सरकार से अनबन विनोबा राजनीति में दख़ल नहीं देना चाहते थे. इसलिए कभी खुलकर सरकार के ख़िलाफ़ नहीं बोले. लेकिन आपातकाल के दौरान भी उनकी सरकार से अनबन चलती थी. वो भी मुद्दों के चलते. विनोबा गौहत्या पर पाबंदी लगाना चाहते थे. ये आदर्श उन्हें महात्मा गांधी से मिला था. उनके आश्रम से से निकलने वाली पत्रिका ‘मैत्री में गोवध के मुद्दे पर सरकार की तीखी आलोचना की जाती थी. और तब सरकार ने आश्रम में पुलिस भेजकर पत्रिका की सारी प्रतियां ज़ब्त कर ली थीं.
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जय प्रकाश नारायण (सांकेतिक तस्वीर: Outlook)


विनोबा ने राजनीति से किनारा किया. लेकिन राजनेताओं से नहीं. जब इंदिरा सत्ता से बेदख़ल हुई तो उनसे मिलने उनके आश्रम पहुंची. तब भी इस घटना को यूं दर्शाया गया मानो विनोबा ने खुलकर सरकार को समर्थन दे दिया हो. जबकि जनता पार्टी की सरकार के रहते हुए JP और प्रधानमंत्री मोरारजी भी विनोबा से मिलने पहुंचे थे. 15 नवंबर, 1982 को लंबी बीमारी के बाद वर्धा में विनोबा का निधन हो गया. तब इंदिरा रूस की यात्रा पर थीं. और यात्रा बीच में छोड़कर भारत लौटी थी. इस घटना को भी सरकार और विनोबा वाले एंगल से कवर किया गया था.
जबकि इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता कि विनोबा ने सरकार या किसी नेता का कभी समर्थन किया हो. वो राजनीति से दूर रहना पसंद करते थे और केवल सामजिक मुद्दों और आंदोलनों पर अपनी राय दिया करते थे. 1958 रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पाने वाले वो पहले भारतीय थे. और आज ही के दिन यानी 25 जनवरी 1983 को उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.