भोपाल गैस कांड पर विकिलीक्स ने क्या खुलासा किया?
भोपाल गैस कांड में मुआवज़े के केसों पर रखी जा रही है नज़र!
गांधी मेडिकल कॉलेज इंस्टीट्यूट के निदेशक डी.के.सतपथी. 1984 में, डॉ सतपथी और उनके सहयोगियों ने तीन दिनों में 2500 से अधिक पोस्टमॉर्टम किए थे (तस्वीर: AFP)
3 दिसंबर 2021 (अपडेटेड: 2 दिसंबर 2021, 03:40 AM IST)
3 दिसंबर 2004 की बात है. भोपाल गैस त्रासदी को 20 साल हो चुके थे. भोपाल गैस त्रासदी की कल्प्रिट कम्पनी यूनियन कार्बाइड को DOW केमिकल नाम की एक कम्पनी ख़रीद चुकी थी. उस रोज़ BBC वर्ल्ड न्यूज़ पर एक इंटरव्यू ब्रॉडकास्ट हुआ. ये इंटरव्यू DOW केमिकल्स के एक रेप्रेज़ेंटेटिव के साथ किया गया था. रेप्रेज़ेंटेटिव का नाम था, ज्यूड फ़िनिसटेरा. फ़िनिसटेरा ने इंटरव्यू के दौरान कहा कि कंपनी भोपाल स्थित गैस लीक साइट को साफ़ करने के लिए राज़ी है. इसके अलावा यूनियन कार्बाइड को लिक्विडेट कर क़रीब 12 बिलियन डॉलर की रक़म मुआवज़े के रूप में देगी.
खबर हलचल मचा देने वाली थी, सो हलचल मची. सालों से न्याय की आस देख रहे भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के लिए ये एक अच्छी खबर थी. लेकिन बाज़ार के लिए नहीं. अगले 23 मिनट में DOW के शेयर साढ़े 4 परसेंट गिर गए. ठीक दो घंटे बाद खबर का अख़बार फटा और असलियत सामने आ गई. DOW ने एक स्टेट्मेंट जारी करते हुए कहा कि ज्यूड फ़िनिसटेरा नाम का कोई व्यक्ति DOW से सम्बंध नहीं रखता. और इंटरव्यू में किए गए सभी दावे झूठे हैं.
विकिलीक्स और "द येस मेन ग्रुप'
DOW के स्टेट्मेंट के बाद BBC को करेक्शन और अपॉलोजी जारी करनी पड़ी. बाद में पता चला कि ज्यूड फ़िनिसटेरा का असली नाम एंडी बिकलबौम था. और वो ये एक एक्टिविस्ट ग्रूप ‘द येस मेन’ का हिस्सा था. जो इसी तरह के करतबों से DOW जैसी कंपनियों के मंसूबों का पर्दाफ़ाश करता था. जब सरकारें और न्यायालय जैसी संस्थाएं पीड़ितों को न्याय नहीं दिला पाती तो ऐसे गूफ़ी कारनामों का सहारा लेना पड़ता है. जैसा कि ‘द येस मैन’ ग्रुप ने किया.
ज्यूड फ़िनिसटेरा, असली नाम: एंडी बिकलबौम, द येस मेन ग्रुप एक्टिविस्ट (तस्वीर: BBC वर्ल्ड )
एक और ग्रुप है विकिलीक्स. 2012 में विकिलीक्स ने भोपाल गैस कांड से जुड़ी कुछ ईमेल लीक की. ईमेल से पता चला कि Dow केमिकल ने स्ट्रेटफ़ॉर नाम के एक इंटेलिजेन्स ऑर्गनाइजेशन को कांट्रैक्ट सौंपा था. जिसके तहत स्ट्रेटफ़ॉर भोपाल त्रासदी से जुड़े एक्टिविस्ट की जासूसी करती थी. और उनकी निजी और सार्वजनिक ज़िंदगी के बारे में पूरी खोज खबर रखती थी. जिनकी जासूसी की गई, उनमें ‘द येस मेन’ ग्रुप भी शामिल था. ईमेल से ये भी पता चला कि भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े पत्रकारों, फ़िल्म निर्माताओं और लेखकों की फ़ेसबुक पोस्ट, ट्वीट, यूट्यूब वीडियो, लाइक्स, इन सब की खबर रखी जाती थी.
जहां विकिलीक्स और ‘येस मेन’ जैसे फ़्रिंज ग्रूप भोपाल गैस त्रासदी पर इतने खुलासे कर रहे थे. सवाल उठता है कि इस दौरान हमारे देश की सरकार और संस्थाएं क्या कर रही थी. सो रही थी, कहना भी ग़लत होगा. क्योंकि सोए होने से कम से कम ज़िंदा होना तो ज़रूरी ही है. कल यानी 2 दिसम्बर के एपिसोड में हमने आपको बताया कि राजनैतिक आश्रय के चलते यूनियन कार्बाइड के मालिक को किस तरह अमेरिका भगाया गया. उसके बाद शुरू हुआ अदालती कार्यवाही का दौर.
भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड की राह आसान की
2 दिसंबर 1984 की देर रात भोपाल की यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी से निकली मौत 3 दिसंबर की रात तक क़हर मचाती रही. जो जहां था, वहीं गिर गया, चलती गाड़ियों के, ट्रेन के ड्राइवर मर गए. हज़ारों गाय भैंसों के शव सड़कों पर पड़े थे. जिसे जो भी ज़रिया मिला, इस नर्क से भाग निकला. जिनमें से कई कभी दोबारा अपने घर नहीं लौटे. इस नरसंहार का दोषी को कौन था? हालांकि क़ानून की भाषा में ये ऐक्सिडेंटल डेथ थी. लेकिन इसे नरसंहार कहना बिलकुल भी अनुचित नहीं. क्योंकि सुरक्षा मानकों को धता बताते हुए फ़ैक्टरी के चालन में जिस लापरवाही से काम लिया गया था, वो अनहोनी को सीधी दावत देने जैसा था.

भोपाल, भारत में यूनियन कार्बाइड पर्यावरणीय आपदा के बाद यूनियन कार्बाइड के वकील और भोपाल के वादी और जज जॉन एफ. कीनन (तस्वीर: virginia.edu)
इस मामले में भारत से पहले अमेरिका में अदालती कार्यवाही की शुरुआत हुई. अलग अलग US कोर्ट्स में 145 मामले दायर किए गए. उन सब को एकीकृत कर न्यू यॉर्क के सदर्न डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में जज जॉन कीनन के आगे पेश किया गया. अब इस मामले में दो पेंच थे. एक कि सभी पीड़ित अमेरिकी न्यायालय में केस दायर नहीं कर सकते थे. और दूसरा कि इसके बावजूद अलग-अलग केस यूनियन कार्बाइड की मुश्किलें बढ़ा रहे थे.
यूनियन कार्बाइड की मुश्किलें सरकार ने आसान कर दी. अमेरिका की नहीं भारत की सरकार ने. मार्च 1985 में सरकार ने एक नया क़ानून पास किया. भोपाल गैस लीक डिज़ास्टर (प्रोसेसिंग ऑफ़ क्लेम्स एक्ट). इस क़ानून के तहत भारत सरकार एकमात्र याचिकाकर्ता रह गई थी. जो लोग कोर्ट पहुंचने में समर्थ नहीं थे. उनके लिए ये अच्छी बात थी. लेकिन इस क़ानून के तहत अलग-अलग केस दायर करने का दायरा भी सीमित कर दिया था. जिसका फ़ायदा यूनियन कार्बाइड को मिला. अब उन्हें अलग-अलग केस लड़ने के बजाय सिर्फ़ एक केस लड़ना था.
470 मिलियन डॉलर का मुआवज़ा
इसके बाद भारत सरकार ने US कोर्ट में यूनियन कार्बाइड के ख़िलाफ़ 3.3 बिलियन डॉलर मुआवज़े का केस किया. लेकिन जज कीनन से केस को रफ़ा दफ़ा कर दिया, ये कहते हुए कि चूंकि गवाह और केस साइट भारत में थे, और तहक़ीक़ात भी यहीं होनी थी. इसलिए केस की सुनवाई भारत में होनी चाहिए. भोपाल के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए 1987 में निर्णय दिया. जिसके तहत यूनियन कार्बाइड को 350 करोड़ रुपए की रक़म मुआवज़े के तौर पर चुकानी थी. मामला हाई कोर्ट में पहुंचा. जहां रकम 250 करोड़ कर दी गई. आगे मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

सदभावना ट्रस्ट का गठन 1995 में भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के कल्याण के लिए किया गया था (तस्वीर: AFP)
भारत में ये सब अदालती कार्रवाई चल ही रही थी कि फरवरी 1989 में सरकार ने एक घोषणा कर सब को चौंका दिया. सरकार से यूनियन कार्बाइड के साथ आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट कर लिया. जिसके तहत यूनियन कार्बाइड को 470 मिलियन डॉलर चुकाने थे. इस सेटलमेंट में ये भी शर्त थी कि भविष्य में यूनियन कार्बाइड को किसी क्लेम या केस (सिविल या क्रिमिनल) का सामना नहीं करना पड़ेगा. मतलब आगे अगर कोई लाइबिलिटी बनती है, तो उसकी ज़िम्मेदार भारत सरकार होगी, यूनियन कार्बाइड की नहीं.
सरकार माई-बाप के रोल में आ गई थी. लेकिन बच्चों को बचाने के बदले विदेशी कंपनी को बचाने के लिए. असली स्टेकहोल्डर थे भोपाल गैस कांड के पीड़ित. ना उन्हें कोई नोटिस दिया गया. और ना ही उनसे कोई सलाह ली गई. जबकि घटना का दंश उन्हें ही झेलना था. जो वे अगले 30 सालों तक झेलते रहे और आगे भी झेलते रहेंगे.
फ़्यूचर लायबिलिटी
सम्भावना नाम का एक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट है. साल 1995 में भोपाल में इस ट्रस्ट का गठन हुआ. ट्रस्ट बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य, भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों का कल्याण, उन्हें मेडिकल सुविधाएं देना आदि था. 2019 में संभावना ट्रस्ट ने पिछले 9 सालों का डेटा एकत्रित कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की. रिपोर्ट के अनुसार भोपाल गैस त्रासदी के 3 दशक बाद भी, गैस से एक्सपोज़ हुए लोगों में मृत्यु दर, सामान्य से 28% ज़्यादा थी. इतना ही नहीं, उनमें कैंसर, फेफड़ों की बीमारी, और TB होने की संभावना, सामान्य से दोगुनी थी. और किडनी ख़राब होने की संभावना 63% ज़्यादा.
डेटा ये भी बताता है, कि गैस से एक्सपोज़ हुई महिलाओं और बच्चों में इसका प्रभाव और भी हानिकारक रहा. इन्फ़र्टिलिटी, अबॉर्शन, अर्ली मेनोपौज, और बच्चों में मानसिक कमजोरी के लक्षण सामान्य से कहीं ज़्यादा थे.

यूनियन कार्बाइड और वॉरन एंडरसन के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट करते हुए लोग (तस्वीर: AFP)
ये सब फ़्यूचर लायबिलिटी के अंदर आता है. और इन सब पर ध्यान देने की ज़िम्मेदारी कम्पनी की होती. लेकिन एक सेटेलमेंट से सरकार ने यूनियन कार्बाइड को समस्त ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया. साल 2001 में यूनियन कार्बाइड को DOW ने ख़रीद लिया. जो भारत में आज भी बड़ा कारोबार करती है. सम्भव था कि DOW पर लायबिलिटी के और कई केस होते लेकिन आउट ऑफ़ कोर्ट सेटेलमेंट कर सरकार ने पीड़ितों के हाथ बांध दिए.
फ़ैक्टरी के अवशेष 2021 में भी ज्यों के त्यों हैं. सरकार हमेशा साफ़ करने की बात करती रहती है, लेकिन ये स्वच्छ भारत अभियान कभी भोपाल कार्बाइड फ़ैक्टरी तक नहीं पहुंचता. और बात वर्तमान सरकार की ही नहीं है. MP की सभी पूर्ववर्ती सरकारों और केंद्र सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के नाम पर बोझ आगे की ओर फेंक दिया.
अमेरिकी सरकार से जुड़े तार
मुआवज़े के नाम पर सिर्फ़ 25000 रुपए की रक़म दी गई. वो भी सभी पीड़ितों को नहीं मिल पाई. आउट ऑफ़ कोर्ट सेटेलमेंट की खबर जब सामने आई तो बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. सुप्रीम कोर्ट में सेटलमेंट के खिलाफ पिटिशन डाली गई. और तब से लेकर आज 2021 तक केस पर केस दायर होते रहे हैं. और नतीजा ढाक के तीन पात ही हैं.
2003 में यूनियन कार्बाइड के CEO वॉरन एंडरसन को भारत लाने के लिए सरकार ने US को प्रत्यर्पण रिक्वेस्ट भेजी. लेकिन अमेरिकी बिज़नेस हितों की रक्षा के नाम पर ये रिक्वेस्ट भी नकार दी गई. 2010 में सेटेलमेंट रिओपन करने के लिए भारत सरकार ने दबाव डाला. विकिलीक्स द्वारा लीक की गई एक ईमेल के अनुसार 2010 में मामला जब दुबारा सुप्रीम कोर्ट में दायर हुआ, तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के अंडर सेक्रेटरी रॉबर्ट हॉरमैट्स ने कैबिनेट मिनिस्टर मोंटेक सिंह आलूवालिया को एक संदेश भेजा. जिसमें लिखा था
“सेटेलमेंट दोबारा ओपन किया गया तो सरकार की बहुत बुरी इमेज बनेगी”
आगे जाकर यही रॉबर्ट हॉरमैट्स 2019 में ‘किसिंजर एसोसिएट’ नाम की एक ग्लोबल कंसलटिंग फ़र्म के वाइस प्रेसिडेंट बने. ‘किसिंजर एसोसिएट’ की क्लाइंट हुआ करती थी, यूनियन कार्बाइड कंपनी यानी भोपाल कांड की मुख्य आरोपी कम्पनी. ‘किसिंजर एसोसिएट’, यूनियन कार्बाइड की तरफ़ से अमेरिकी सरकार में लॉबी किया करती थी.

2010 गल्फ़ ऑइल स्पिल के मुआवज़े में ओबामा सरकार ने BP को 1 बिलियन डॉलर मुआवज़े का निर्देश दिया (तस्वीर: AP)
इन सब जुड़े हुए तारों से साफ़ पता चलता है कि इस मामले में अमेरिकी सरकार कम्पनी का बचाव कर रही थी. तुलना के लिए गौर करिए. 2010 में गल्फ़ ऑइल स्पिल में सिर्फ़ कुछ सील्स की मौत पर ओबामा सरकार ने 1 बिलियन डॉलर का मुआवज़ा दिया था. और 30 साल तक नर्क बना दी गई लाखों जिंदगियां उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं.
इतना ही नहीं 2014 से 2019 के बीच भोपाल कोर्ट में क्रिमिनल केस में पेश होने के लिए DOW को 6 समन जारी हुए. लेकिन अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस ने इन समनों को कभी DOW के अधिकारियों के पास भेजा ही नहीं. ये भारत और अमेरिका के बीच म्यूचवल लीगल असिस्टेन्स ट्रीटी का साफ़ उल्लंघन है. लेकिन सरकार कभी प्रेशर तो नहीं ही डालती, बल्कि 2015 में भारत के प्रधानमंत्री जब अमेरिका का दौरा करते हैं तो DOW केमिकल कंपनी के अधिकारियों से मुलाक़ात भी करते हैं. और इस दौरान एक बार भी भोपाल गैस पीड़ितों के साथ हुए अन्याय का ज़िक्र तक नहीं आता.
एपिलॉग
यूटिलिटेरियन प्रिन्सिपल कहता है, अमेरिका से लाखों डॉलर का फ़ायदा होता है, करोड़ों भारतीयों को नौकरी मिलती है. नडेला और अग्रवाल CEO बनते हैं. देश का नाम होता है. ऐसे में यदि कुछ हज़ार लोगों का बुरा होता है तो समूल में तो फ़ायदा ही है.
इस बात को कोई साफ़ नहीं कहना चाहता. ना जनता ना नेता. हर साल 3 दिसम्बर आता है. 'बड़ा बुरा हुआ’ का जप करते हुए सब मन ही मन सोचते हैं, ‘और किया भी क्या जा सकता है’. लेकिन ये याद दिलाते रहना बहुत आवश्यक है कि इंसान सिर्फ़ आंकड़े नहीं है. 1 व्यक्ति को 30 साल का नर्क भोगना पड़े, ताकि 100 हज़ार लोग ज़मीन के बजाय बिस्तर पर सो सकें. तो ये ना इंसानियत है ना ही भारतीयता. आज के लिए इतना ही.