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24 साल से अटका पनडुब्बी प्रोजेक्ट का सच, जिसमें 43 हजार करोड़ फंसे हैं!

एक तरफ नवांशिया और L&T हैं और दूसरी तरफ MDL और TKMS. कौन पूरा करेगा अधूरा काम?

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भारत फ्रांस के साथ मिलकर 6 पनडुब्बियां बना चुका है. 3 और बन सकती हैं. लेकिन अगला ऑर्डर मिलेगा स्पेन या जर्मनी को. (तस्वीर - INS कलवरी, भारतीय नौसेना)

स्पेन की कंपनी नवांशिया और भारतीय कंपनी लार्सेन एंड टूब्रो (L&T) के बीच अत्याधुनिक पनडुबबियां (AIP Submarine for Indian Navy) बनाने के लिए सहमति बनी है. इससे पहले 7 जून को MDL और जर्मनी की समुद्री हथियार बनाने वाली कंपनी थीसनक्रुप मरीन सिस्टम्स (TKMS) के बीच भी इसी तरह का समझौता हुआ था. 43 हजार करोड़ के इस प्रोजेक्ट के तहत इंडियन नेवी के लिए 6 एडवांस्ड सबमरीन बनाई जानी हैं. जिसके लिए भारत की L&T और/या मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड यानी MDL को स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप मॉडल के तहत विदेशी कंपनियों के सहयोग से ये सबमरीन बनानी हैं. अब प्रोजेक्ट के लिए बोली लगाई जाएगी - एक टेक्निकल बिड, जिसमें दोनों टीमें बताएंगी कि वो सबमरीन में कौनसी तकनीक का इस्तेमाल करेंगी. और एक फाइनैंशियल बिड, जिसमें सौदे की कीमत पर दांव लगेगा.

माने अब नौसेना के प्रॉजेक्ट 75 I के लिए दो टीमों के बीच प्रतियोगिता होगी, जिसमें एक तरफ नवांशिया और L&T हैं और दूसरी तरफ MDL और TKMS. क्या है ये प्रोजेक्ट? प्रतियोगिता क्यों छिड़ी है और देश की समुद्री सुरक्षा से जुड़े इस प्रोजेक्ट 24 सालों से क्यों लटका हुआ है, विस्तार से जानेंगे.

पनडुब्बी खरीदनी क्यों है?

पनडुब्बियां मुख्यतया दो तरह की होती हैं - बलिस्टिक मिसाइल सबमरीन (SSBN) और अटैक सबमरीन (SSK). बलिस्टिक मिसाइल सबमरीन, सामरिक महत्व की पनडुब्बियां होती हैं. क्योंकि ये लंबी दूरी तक मार करने वाली परमाणु मिसाइलें लेकर चलती हैं. ये विशाल पनडुब्बियां परमाणु ऊर्जा से चलती हैं, जैसे भारत की INS अरिहंत. अपने आकार, कीमत और परमाणु हमले की काबिलियत के चलते, इन्हें रोज़मर्रा के काम, जैसे गश्त करना, बेड़े की सुरक्षा करना आदि के लिए तैनात नहीं किया जाता.

पानी के भीतर दुश्मन को खोजने, उसपर निशाना लगाने और फिर तेज़ी से जगह बदलने के लिए आपको चाहिए एक हंटर-किलर. छोटी, हल्की और तेज़ रफ्तार - अटैक सबमरीन. इन्हें आप पानी के भीतर चलने वाले फाइटर जेट्स की तरह समझ सकते हैं. इसीलिए ये किसी भी देश के लिए बहुत ज़रूरी होती हैं.

पनडुब्बियों की भारी कमी और सरकार की लेटलतीफी

भारत में बड़े लंबे समय से अटैक सबमरीन्स की कमी चल रही है. इसीलिए 1990 के दशक में भारतीय नौसेना ने सरकार से एक ऐसे प्लान पर सहमति चाही, जिसके तहत बड़ी संख्या में पनडुब्बियां बनाई जाएं. जून 1999 में जाकर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 30-Year Plan for Indigenous Submarine Construction को मंज़ूरी दी. सादी भाषा में इसे ‘30 ईयर सबमरीन बिल्डिंग प्लान’ कहा जाता है. इसके तहत दो प्रॉडक्शन लाइन्स बनाई जानी थीं. जिनपर 1-1 विदेशी कंपनी के साथ मिलकर 6-6 पनडुब्बियां बनाई जातीं. इन्हीं दो प्रस्तावित प्रोडक्शन लाइन्स को नाम दिया गया प्रोजेक्ट 75 और प्रोजेक्ट 75I. I माने इंडिया.

जब तक ये 12 पनडुब्बियां बनतीं, तब तक भारत के वैज्ञानिक और इंजीनियर एक स्वदेशी डिज़ाइन पर काम करते. और फिर जो दो प्रॉडक्शन लाइन्स हमारे पास तैयार होतीं, उनपर 12 और पनडुब्बियां बनतीं. इस तरह 30 सालों में, माने 2030 तक 24 अटैक सबमरीन्स भारतीय नौसेना को मिल जातीं. बाद में संशोधन हुआ, और प्लान बना कि इन 24 में से 18 डीज़ल इलेक्ट्रिक माने SSK होतीं और 6 परमाणु पनडुब्बियां (बलिस्टिक नहीं, अटैक) होतीं - माने SSN.

पनडुब्बियां एक ऐसा हथियार हैं, जो आपको बनी-बनाई नहीं मिलतीं. आप ऑर्डर देंगे, उसके बाद डिज़ाइन वगैरह में वक्त लगेगा और फिर पनडुब्बी बनने में अलग से वक्त लगेगा. बावजूद इसके, कोई खास तेज़ी नहीं दिखाई गई. साल 2005 में जाकर 23 हजार करोड़ रुपए की लागत से फ़्रांस के नेवल ग्रुप के साथ प्रोजेक्ट-75 के लिए सौदा हुआ. इसके तहत स्कॉर्पेन क्लास की 6 पनडुब्बियां बननी थीं. 5 बनकर नौसेना में शामिल हो चुकी हैं, जहां इन्हें कलवरी क्लास पनडुब्बी कहा जाता है. और 18 मई 2023 को छठवीं और आखिरी स्कॉर्पेन का समुद्री ट्रायल शुरू कर दिया गया. साल 2024 की शुरुआत में इसे इंडियन नेवी को सौंप दिया जाएगा. माने 18 साल में 6 पनडुब्बियां बनकर तैयार हो पाईं. और इतने वक्त में भारत ने एक भी नई अटैक सबमरीन बनाने का ठेका नहीं दिया. ज़ाहिर है, हम 2030 तक 24 पनडुब्बियां बनाने से चूकने वाले हैं.

जुलाई 2023 में खबर आई कि भारत 3 और स्कॉर्पेन पनडुब्बियां बनाने के समझौते पर दस्तखत करने जा रहा है. माने प्रोजेक्ट 75 को आगे बढ़ाया जाएगा. लेकिन प्रोजेक्ट 75 I अभी तक धरातल पर नहीं उतरा है. जबकि इस प्रोजेक्ट के तहत बेहद महत्वपूर्ण क्षमता से लैस - AIP वाली पनडुब्बियां बनाई जानी थीं.

AIP तकनीक ज़रूरी क्यों है?

प्रोजेक्ट-75I के तहत भी 6 पनडुब्बियां बनाई जानी हैं. कुल लागत होगी 45 हज़ार करोड़. इनमें बेहतर हथियार, बेहतर सेंसर तो होंगे ही, लेकिन सबसे ख़ास बात होगी एयर इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन सिस्टम यानी AIP. किसी भी पनडुब्बी के बार-बार पानी की सतह पर आने से दुश्मनों की नजर में आने का खतरा बढ़ जाता है. और AIP तकनीक वाली पनडुब्बी, पारंपरिक डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों की तुलना में ज्यादा देर तक समुद्र के अंदर रह सकती है. कैसे?

दरअसल पारंपरिक डीज़ल पनडुब्बियों को अपने जनरेटर चलाने के लिए 2 से 3 दिन में पानी की सतह पर आना पड़ता है, क्योंकि जनरेटर में ईंधन को जलाने के लिए ऑक्सीजन चाहिए. इन्हीं जनरेटरों से पनडुब्बी की बैट्री चार्ज होती है. जिनके सहारे पनडुब्बी पानी के अन्दर चलती है.

AIP पनडुब्बियां भी बैट्री से ही चलती हैं और इनमें भी डीज़ल जनरेटर लगा होता है. लेकिन वो पानी के अन्दर 15 दिन से भी ज्यादा वक़्त तक रह सकती हैं, क्योंकि वो ऐसे सिस्टम से भी ऊर्जा पैदा कर सकती हैं, जो ''एयर इंडिपेंडेंट'' है, माने उसके लिए हवा नहीं चाहिए होती. वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं पड़ती, न कोई धुआं निकलता है, जिसे वायुमंडल में छोड़ना पड़े.

कहा जा रहा है कि इन 6 प्रस्तावित AIP पनडुब्बियों में से पहली में कम से कम 45 फीसद स्वदेशी उपकरण होंगे और आख़िरी वाली में ये हिस्सा बढ़कर 60 फीसद हो जाएगा.

एक कदम आगे, दो कदम पीछे

प्रोजेक्ट 75 I की त्रासदी ये रही, कि इसपर सालों बात ही होती रही, काम कुछ नहीं हुआ. 2010 में जब नौसेना ने दबाव बनाया कि पनडुब्बियों की संख्या बहुत नीचे आ रही है, तब सरकार ने प्रोजेक्ट को बदला. अब ये तय हुआ कि 2 पनडुब्बियां विदेश से बनकर भारत आएंगी और 4 यहां बनेंगी. इसके बाद 4 साल इसी दिशा में काम चला (या नहीं चला). फिर नवंबर 2014 में रक्षामंत्री बने मनोहर पर्रिकर. तब मेक इन इंडिया का नारा ज़ोरों पर था. सो उन्होंने प्रोजेक्ट 75 I को फिर बदला और कहा कि अब 6 की 6 पनडुब्बियां भारत में ही बनेंगी. 

तीन साल बाद 2017 में फिर भारत सरकार को इस प्रोजेक्ट की याद आई. तब कहा गया कि प्रोजेक्ट 75 I वो पहला प्रॉजेक्ट होगा, जिसे ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप मॉडल’ (SP) के तहत लागू किया जाएगा. माने एक भारतीय कंपनी, एक विदेशी कंपनी और दोनों मिलकर काम करेंगे. दो साल बाद, 2019 में जाकर नौसेना ने एक्सप्रेशन ऑफ इंट्रेस्ट EoI जारी किया, जिसके बाद भारत से दो कंपनियों का चयन हुआ -  MDL और L&T.

इनके साथ साझेदारी के लिए 5 ओरिजनल इक्विपमेंट मैनुफैक्चरर (OEMs) को चुना गया - 
- फ्रांस की नेवल ग्रुप 
- जर्मनी की थीसनक्रुप मरीन सिस्टम्स 
- रूस की JSC ROE 
- साउथ कोरिया की थेवू (Daewoo का उच्चारण ऐसे ही होता है) 
- स्पेन की नवांशिया.

जुलाई 2021 में प्रोजेक्ट 75 I के लिए रिक्वेस्ट फॉर प्रपोज़ल RFP जारी हुआ. माने MDL और L&T से कहा गया, कि आप पांच विदेशी OEM में से अपनी पसंद की कंपनी का चुनाव करें. और एक ऐसी पनडुब्बी का प्रपोज़ल जमा करें, जिसमें नौसेना की बताई खूबियां हों. और यहीं से बात खराब होने लगी.

नौसेना चाहती थी कि एक ऐसा AIP लगाया जाए, जिसकी गुणवत्ता स्थापित हो. सादी भाषा में इसका मतलब हुआ, AIP पहले से इस्तेमाल में हो और खुद को साबित कर चुका हो. इसके तहत टेक्नॉलजी ट्रांसफर होनी थी, माने विदेशी तकनीक भारत को मिलनी थी और लंबे समय के लिए लायबिलिटी क्लॉज़ थे. माने कोई दुर्घटना होती, तो विदेशी कंपनी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जाता, भरपाई करनी होती. फिर निर्माण के लिए बड़ी सख्त डेडलाइन्स रखी गई थीं. ऐसे में एक एक कर सारी विदेशी कंपनियां पीछे हटने लगीं.

मई 2022 में प्रधानमंत्री मोदी के फ़्रांस दौरे से ठीक एक दिन पहले फ्रांस के नेवल ग्रुप ने कह दिया कि वो इस प्रोजेक्ट से बाहर निकल रहा है. क्योंकि फ़्रांस की नेवी अभी इस AIP का इस्तेमाल नहीं करती है. ऐसे में इसे अभी आजमाने की जरूरत है.

अगस्त 2022 में रूस की JSC ROE ने हाथ खींचते हुए कहा, प्रोजेक्ट में डिज़ाइनर पर बहुत ज़्यादा ज़िम्मेदारी डाल दी गई है.

बाकी तीन कंपनियां भी टेक्नॉलजी ट्रांसफर जैसे विषयों और नौसेना द्वारा चाही गई क्षमताओं को लेकर अपना मन नहीं बना पा रही थीं. इसका नतीजा - जुलाई 2021 में जारी RFP में जो प्रपोज़ल तीन महीने के भीतर मांगे गए थे, उनकी डेडलाइन बार बार बढ़ानी पड़ी. लेटेस्ट डेडलाइन अगस्त 2023 की है.

चूंकि नौसेना एक ऐसा AIP चाहती थी, जो पहले से इस्तेमाल में हो, दौड़ में सिर्फ दो कंपनियां बच रही थीं - जर्मनी की थीसनक्रुप मरीन और दक्षिण कोरिया की थेवू (Daewoo). क्योंकि इन्हीं दोनों के AIP सेवारत पनडुब्बियों में लगे हुए हैं. फ्रांस, रूस और स्पेन के पास AIP तो थे, लेकिन वो किसी पनडुब्बी में लगे नहीं थे. 

फिर L&T ने नवांशिया के साथ टीम क्यों बनाई?

दोनों टीमें कैसे बनी हैं, ये समझने के लिए आपको इस पूरे खेल को बारीकी से देखना होगा.

थीसनक्रुप-MDL

 7 जून 2023 को थीसनक्रुप और MDL के बीच समझौता हो गया. जैसा कि हमने बताया, थीसनक्रुप सबसे ज़रूरी शर्त को पूरा करती है - एक प्रूवन AIP. फिर जब फरवरी 2023 में जर्मन चांसलर ओलाफ शूल्ज़ भारत आए थे, तब भी सूत्रों ने दावा किया था कि जर्मन प्रतिनिधिमंडल ने थीसनक्रुप की पैरवी की.

इस मामले में जर्मनी से हमारा पुराना रिश्ता भी है. 1981 में जर्मनी की HDW के साथ अटैक सबमरीन बनाने का करार हुआ था. इनमें से 2 जर्मनी में ही बनीं, जबकि दो जर्मन टेक्नॉलजी पर MDL में बनाई गईं. 2 और सबमरीन बनाने की बात चल रही थी. लेकिन इस सौदे को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. और MDL को काम बंद करना पड़ा.

पुराने रिश्ते और AIP के अलावा एक और कारण था. जब भारत ने पनडुब्बी बनाने के लिए प्रपोज़ल मांगा था, तब थीसनक्रुप (या कहें जर्मनी) ने इसमें ख़ास रुचि नहीं दिखाई थी. लेकिन अब रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध का दूसरा साल चल रहा है. जानकार ऐसा मानते हैं कि रूस और चीन की नजदीकियां देखते हुए अब पश्चिम देश सैन्य मामलों में भारत के नजदीक आ रहे हैं. इनमें जर्मनी भी शामिल है. जर्मनी चाहता है कि जर्मन और यूरोपीय डिफेंस कंपनियां भारत को हथियार देने की कोशिशें बढ़ाएं ताकि भारत की रूस पर निर्भरता कम हो.

नवांशिया-L&T

अब आते हैं L&T और नवांशिया पर. नवांशिया के पास तो सेवारत AIP नहीं है, फिर L&T ने उसके साथ करार क्यों किया? दरअसल नवांशिया ने स्पैनिश नौसेना के लिए S-80 प्लस क्लास की सबमरीन बनाई है. 2021 में लॉन्च हुई इस AIP सबमरीन के ट्रायल चल रहे हैं. और साल 2023 के अंत में ये स्पेन की नौसेना को डिलिवर कर दी जाएगी. माने कंपनी अपनी AIP क्षमता को साबित करने के काफी करीब है. L&T और नवांशिया के अधिकारियों ने बताया कि जो AIP तकनीक लाई जा रही है वो असल में एक थर्ड जनरेशन सिस्टम है, जो बायो-इथनॉल ईंधन पर काम करता है. इसकी लागत और बाद का खर्चा भी कम है. इस तकनीक का इस्तेमाल करके नवांशिया जो नई सबमरीन बना रहा है, उसके डिज़ाइन में पर्याप्त स्पेस है जिसमें भारतीय उपकरण और हथियार लगाए जाएंगे.

एक और कारण है. MDL,  फ्रांस के नेवल ग्रुप के साथ मिलकर जो स्कॉर्पेन पनडुब्बियां बना रहा है, नवांशिया उसमें भी पहले से शामिल है. संभवतः इसीलिए अप्रैल 2023 में MoU हुआ और 10 जुलाई को  L&T ने नवांशिया के टीमिंग एग्रीमेंट भी कर लिया. माने बोली लगाने के लिए टीम बना ली. स्पेन के राजदूत जोस मारिया रिडाओ की मौजूदगी में L&T के CEO एसएन सुब्रह्मन्यन और नवांशिया के वाइस प्रेसिडेंट ऑगस्टिन अल्वरेज ब्लैंको ने एग्रीमेंट पर साइन किए.

प्रोजेक्ट किसे मिलेगा?

रक्षा पत्रकार शिव अरूर कहते हैं कि अभी इस प्रक्रिया में लंबा वक़्त लग सकता है. बोली की प्रक्रिया तय हो जाने के बाद ही पता चलेगा कि सबमरीन कौन बनाएगा. लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि समय बचाने के लिए MDL और L&T मिलकर 3-3 सबमरीन बनाएं. इंडियन नेवी की तरफ से ऐसा कहा भी गया था. लेकिन बनने वाली सबमरीन एक ही तरह ही होगी. माने असली दौड़ L&T और MDL के बीच नहीं, नवांशिया और थीसनक्रुप के बीच है. इनमें से जिसे चुना जाएगा, वो दोनों भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर पनडुब्बी बनाएगा.

जो भी हो, जल्दी होना बेहद ज़रूरी है. समुद्री सुरक्षा के मामले में भारत चीन से कहीं पीछे है. जबकि चीन ही देश की समुद्री सीमाओं पर सबसे बड़ी चुनौती है. स्कॉर्पेन सबमरीन्स के अलावा भारत के पास सिर्फ 6 पुरानी रूसी किलो-क्लास सबमरीन और 4 जर्मन HDW सबमरीन बची हैं. वहीं चीन  के पास 50 से ज्यादा डीज़ल-इलेक्ट्रिक सबमरीन और 10 न्यूक्लियर सबमरीन हैं. और चीन, पाकिस्तान को भी AIP तकनीक वाली 8 डीज़ल-इलेक्ट्रिक सबमरीन दे रहा है. इसीलिए अब प्रोजेक्ट 75 I को और औपचारिकताओं में नहीं उलझाया जाए, तो ही बेहतर है. 

वीडियो: मास्टरक्लास: इंडियन नेवी में स्कॉर्पीन सबमरीन शामिल होगी, फिर भी हम चीन-पाक से पीछे