कहानी शुरू होती है जून 1989 की एक सुबह से. पूरे Iran में एक अजीब-सी बेचैनी थी. सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी की तबीयत बहुत ख़राब थी. लाखों लोग रेडियो से चिपके हुए थे. उनके मन में उम्मीद भी थी और डर भी था. फिर सुबह 7 बजे, रेडियो तेहरान ने वो ख़बर सुनाई, जिसने पूरे देश को शोक में डुबो दिया खुमैनी अब नहीं रहे. सबकी आंखें नम थीं. कुछ लोगों का रुदन ऐसा था, जैसे उनके घर का बुजुर्ग चला गया हो. राजधानी तेहरान की तरफ़ लाखों लोग उमड़ पड़े. पब्लिक ट्रांसपोर्ट कम पड़ गया.
कहानी अयातुल्लाह अली खामेनेई की, जिनके पीछे इज़रायल से लेकर अमेरिका तक पड़े हैं
35 सालों से ख़ामेनेई ईरान के सुप्रीम लीडर हैं. इज़रायल और अमेरिका जैसे सुपर पावर भी उन्हें डिगा नहीं पा रहे हैं. जहां एक ओर उनकी तारीफ़ होती है, दूसरी ओर धार्मिक कट्टरता के सहारे महिला अधिकारों और स्वतंत्रता को कुचलने के आरोप भी उन पर लगते हैं.


इसी बीच 16 साल का एक लड़का कुम से तेहरान जाने के लिए सड़क पर था. तभी एक मौलवी की टोयोटा रुकी और ड्राइवर ने उस लड़के को भाई कहकर बैठने का न्योता दिया. तेहरान जाने वाली सड़क पर कार कुछ दूर ही बढ़ी होगी, बीबीसी रेडियो ने ख़बर सुनाई- "आज असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स ने प्रेसिडेंट अली ख़ामेनेई को दिवंगत सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी का उत्तराधिकारी चुन लिया है.”
ख़ामेनेई के सुप्रीम लीडर बनने की खबर से 16 साल का लड़का अवाक था. 1979 के संविधान के अनुसार, सुप्रीम लीडर बनने के लिए 'आयतुल्लाह' की उपाधि होना ज़रूरी था. उसने मौलवी ड्राइवर से पूछा,
क्या आपको लगता है कि अली ख़ामेनेई आयतुल्लाह हैं?
उसने जवाब दिया,
बेशक नहीं. कोई नहीं मानता. लेकिन ये सरकार के लिए संकट का समय है. शायद वो बाद में उनके बारे में अपना विचार बदल दें.
उसी शाम ईरानी टेलीविजन पर असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स की बैठक प्रसारित की गई. ख़ामेनेई, खुमैनी की वसीयत पढ़ रहे थे. उन्हें तीन घंटे लगे. खुमैनी ने अपनी वसीयत में किसी उत्तराधिकारी का नाम नहीं लिया था. फिर एक गुप्त बैठक हुई. इसमें ख़ामेनेई को सर्वोच्च नेता चुना गया. उसी शाम, ईरान के सरकारी मीडिया ने पहली बार ख़ामेनेई को ‘आयतुल्लाह’ के तौर पर एड्रेस किया. 35 सालों से ख़ामेनेई ईरान के सुप्रीम लीडर हैं. इज़रायल और अमेरिका जैसे सुपर पावर भी उन्हें डिगा नहीं पा रहे हैं. जहां एक ओर उनकी तारीफ़ होती है, दूसरी ओर धार्मिक कट्टरता के सहारे महिला अधिकारों और स्वतंत्रता को कुचलने के आरोप भी उन पर लगते हैं. और उनके बारे में क्या-क्या कहा जाता है, इसके लिए लिए चलते खामेनेई की जीवन यात्रा पर.

ख़ामेनेई 15 जुलाई, 1939 को ईरान के मशहद शहर में जन्मे. उनके पिता एक साधारण मौलवी थे. खामेनेई ने भी वही रास्ता चुना. 11 की उम्र तक वो मौलवी बन गए थे. फ़ारसी साहित्य से लगाव हो गया. कम उम्र से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दीं. खूब किताबें पढ़ते. कहते हैं कि उन्होंने दो हज़ार से ज़्यादा ईरानी और विदेशी किताबें पढ़ी हैं. अलग-अलग विचारकों को भी सुनते थे. सुन्नी मुस्लिम ब्रदरहुड के थिंकर सैय्यद कुत्ब ने उन्हें खूब इंस्पायर किया. ख़ामेनेई ने उनके कुछ कामों का फ़ारसी में अनुवाद भी किया.
एक वक़्त पर मार्क्सवाद ने भी उनकी पॉलिटिकल आइडियोलॉजी को प्रभावित किया. उनके पिता चाहते थे कि अली पारंपरिक मौलवी बनें और राजनीति से दूर रहें. लेकिन अपने साहित्यिक और बौद्धिक झुकाव की वजह से वो दो दुनिया के बीच झूलते रहे. पहली थी मौलवियों की दुनिया और दूसरा था सेक्युलर इंटेलेक्चुअल्स का संसार.
ख़ामेनेई आज जैसे दिखते हैं, वैसे बिल्कुल नहीं थे. 1979 की क्रांति से पहले उन्हें स्मोक करते हुए देखा गया. वो पाइप पीना पसंद करते थे. वो खुद को पारंपरिक मौलवियों से अलग दिखाने की कोशिश करते थे. कलाई में घड़ी पहनते. पगड़ी के नीचे अपने बाल बढ़ा लेते. कभी-कभी पारंपरिक चप्पलों की बजाय जूते पहन लेते थे. फेदायीन-ए-इस्लाम के नेता नव्वाब सफ़वी ने 1951 में एक भाषण दिया. इसने खामेनेई पर खास असर डाला. सफ़वी ने अपने भाषण में शरिया के इम्प्लीमेंटेशन, शाह और अंग्रेजों के धोखे की बात की थी. खामेनेई मानते थे कि सफ़वी का आंदोलन ख़ुमैनी की इस्लामिक क्रांति की एक शुरुआती चेतावनी था.
वो 1958 से 1964 तक क़ुम में रहे. क़ुम शिया मौलवियों का गढ़ माना जाता है. वहीं उनकी मुलाक़ात खुमैनी से हुई. हालांकि उस वक्त तक खुमैनी और खामेनेई के बीच सिर्फ़ गुरु और शिष्य का ही संबंध था. खुमैनी इससे ज़्यादा उन्हें नहीं जानते थे. प्रगाढ़ता बाद में पनपी. अकबर हाशमी रफ़संजानी के सुझाव पर खुमैनी ने ख़ामेनेई को रेवोल्यूशनरी काउंसिल का सदस्य चुना. ये वही रफ़संजानी हैं, जो खामेनेई के सुप्रीम लीडर बनने के बाद ईरान के राष्ट्रपति बने.

1960 का दशक ईरान के लिए उथल-पुथल भरा था. ये वो दौर था, जब ख़ामेनेई मौलवियों की पोशाक पहनकर अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलते, तो उनका मज़ाक उड़ाया जाता था. शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार अमेरिका समर्थक नीतियों के लिए जानी जाती थी. उन पर पर मॉडर्नाइजेशन और वेस्टर्स वैल्यूज को बढ़ावा देने के आरोप लगाये गए. इसे वाइट रिवोल्यूशन कहा गया. इसमें ज़मींदारों की ज़मीन ली गई, किसानों को अधिकार दिए गए, और महिलाओं को वोटिंग राइट मिला. लेकिन इससे धार्मिक सर्कल में असंतोष बढ़ गया. ख़ुमैनी ने शाह को पश्चिमी कठपुतली कहा और उनकी नीतियों का विरोध किया. ईरान को पश्चिम की तरह विकसित करने की पहल की ख़िलाफ़त हुई. इसे इस्लाम विरोधी और ईरानी समाज को भ्रष्ट करने वाला बताया. खामेनेई ने भी इसी का अनुसरण किया.
कहते हैं वो सिर्फ़ 24 साल के थे, उन्होंने मशहद में एक ज़ोरदार भाषण दिया. ये भाषण शाह की ख़ुफ़िया पुलिस सावाक की नज़रों में चुभ गया. उन्हें जेल में डाल दिया गया. यातनाएं दी गईं. इसके बाद खामेनेई को कई बार जेल और निर्वासन का सामना करना पड़ा. जब खुमैनी को देश पहलवी की वजह से छोड़ना पड़ा, तब खामेनेई का क़द ईरान में बढ़ा. साथ ही पहलवी का विरोध बढ़ता गया और अंत में उन्हें सत्ता से हटना पड़ा. ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति हुई. खुमैनी सुप्रीम लीडर बन गए. ख़ामेनेई को उप रक्षा मंत्री बनाया गया. वो इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड के एक्टिंग कमांडर-इन-चीफ जैसे पदों पर भी रहे. ईरान-इराक़ युद्ध में भी उनकी भूमिका अहम मानी जाती है.

वो बैटलफील्ड से लौटे ही थे कि उनके साथ एक हादसा हो गया. 27 जून, 1981 को दोपहर की नमाज़ खत्म होने के बाद खामेनेई भीड़ को संबोधित कर रहे थे. एक टेप रिकॉर्डर में छुपाया गया बम फट गया. अचानक एक ज़ोरदार धमाका हुआ! वो ज़मीन पर गिर पड़े. उनके शरीर का दाहिना हिस्सा छर्रों और रेडियो के टुकड़ों से भरा था. उनकी छाती का एक हिस्सा पूरी तरह से जल गया था. उनका दाहिना हाथ सूज गया और काम करना बंद कर दिया. हड्डियों को आसानी से देखा जा सकता था.
उन्हें अस्पताल ले जाया गया. सर्जरी शुरू हुई. एक मौक़ा ऐसा भी आया कि सर्जरी रोक दी गई. सर्जन ने कहा : वो चले गए. उनका ब्लड प्रेशर लगभग ज़ीरो हो गया. फिर धीरे-धीरे बीपी बढ़ने लगा. सर्जरी शुरू हुई. सफल रही. लेकिन इस घटना के बाद खेमनई के दाहिने हाथ ने काम करना बंद कर दिया. आज भी, वो अपने दाहिने हाथ का इस्तेमाल पूरी तरह से नहीं कर पाते.

तत्कालीन राष्ट्रपति की हत्या के बाद खामेनेई को 1981 में ईरान का राष्ट्रपति बनाया गया. उन्हीं के समय 1988 में राजनीतिक कैदियों का नरसंहार हुआ. उनके समर्थक कहते हैं कि राष्ट्रपति के तौर पर खामेनेई की शक्ति काफी सीमित रही. उस वक्त प्रधानमंत्री मीर होसैन मुसावी का दबदबा था. 1988 में, जब हजारों राजनीतिक कैदियों का नरसंहार हुआ, तो ख़ामेनेई को कथित तौर पर इस बारे में पता भी नहीं था. हालांकि उनके विरोधी इस बात से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते.
1989 में ख़ामेनेई ईरान के सर्वोच्च नेता बने. उस वक़्त उनकी योग्यता पर गंभीर सवाल उठाए गए. संविधान के अनुसार सुप्रीम लीडर के पास मार्जा की उपाधि होनी चाहिए. ये शियाओं में धर्मगुरुओं का एक ऊंचा पद होता है. लेकिन ख़ामेनेई केवल 'हुज्जतुलइस्लाम' थे, माने एक मिड लेवल के मौलवी. कहते हैं उस वक़्त ख़ामेनेई ने क़ुम के कई बड़े धार्मिक नेताओं पर इज्तेहाद का सर्टिफिकेट देने का दबाव बनाया. ऐसा हो न सका. ये बड़ा संकट था, क्योंकि बिना उपाधि के वो खुमैनी के उत्तराधिकारी के तौर पर धार्मिक वैधता हासिल नहीं कर सकते थे.
इस संकट से निपटने के लिए, उन्होंने अपनी छवि बदलने का फैसला किया. सुप्रीम लीडर बनने के बाद उनमें नाटकीय बदलाव आए. उनको ये प्रूव करने की ज़रूरत थी कि वो आयतुल्लाह हैं. इसलिए उन्होंने अपनी पोशाक बदल ली. टाइट कॉलर वाले लबादे की जगह कबा यानी ढीला गाउन पहनने लगे. अपनी दाढ़ी बढ़ाई. कलाई पर बंधी घड़ी उतार दी. पगड़ी के नीचे अपने बालों को जितना संभव हो सके, उतना छोटा कर लिया. उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ़ 50 साल थी. लिहाजा ख़ुद को बूढ़ा और अधिक आध्यात्मिक दिखाने के लिए अपनी दाढ़ी को सफ़ेद करना शुरू कर दिया.
दावा ये भी किया जाता है कि ख़ामेनाई को सुप्रीम लीडर इसलिए बनाया गया था क्योंकि वो उतने प्रभावशाली नहीं समझे जाते थे. उनके ज़रिए कुछ दूसरे बड़े नेता अपनी राजनीति चमका सकते थे. उन्हें दबाकर रखा जा सकता था. लेकिन सुप्रीम लीडर बनने के बाद, ख़ामेनेई ने ख़ुद को ताकतवर बनाया. इसके के लिए कई क़दम उठाए, जिसकी आजतक आलोचना होती है. उन्होंने बैत-ए रहबर नाम से ऑफ़िस ऑफ़ सुप्रीम लीडर का गठन किया. इसे ईरान की सबसे प्रभावशाली संस्था माना जाता है. खामेनेई ने इसमें अपने दोस्तों और वफादारों को भरा. इसने उन्हें ईरान की विदेश और घरेलू नीति पर व्यक्तिगत प्रभाव डालने की इजाज़त दी.
ख़ामेनेई ने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड को सिर्फ़ एक सैन्य बल नहीं रखा. इसका पॉलिटिकल, इकोनॉमिक और कल्चरल दख़ल भी बढ़ा दिया. IRGC ईरान में Deep State के जैसे काम करने लगा.
उन्होंने मौलवी वर्ग के ऊपर भी एक नौकरशाही बिठाई. मदरसों को भारी वित्तीय सहायता दी, बदले में उनकी स्वतंत्रता छीन ली. कुछ ऐसे क़दम भी उठाए, जिससे सुप्रीम लीडर संविधान से भी ऊपर हो गया. उन्हें असीमित अधिकार मिल गए. विरोधियों को दबाने के लिए उनकी आलोचना हुई. विरोध प्रदर्शन में पुलिस को फायर ऐट विल का अधिकार देने के आरोप लगे. इससे सैकड़ों लोग मारे गए.

ईरानी सरकार पर महिलाओं पर अत्याचार करने के आरोप लगते रहे हैं. अक्सर इस्लामी ड्रेसकोड के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होते रहे हैं. 2022 में महसा अमीनी ने कथित तौर पर हिजाब क़ानून का उल्लंघन किया. ईरान की मोरैलिटी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उनकी मौत हो गई. इसके बावजूद, हिजाब कानून को और सख्त किया गया. हिजाब की निगरानी के लिए स्मार्ट कैमरे लगाये गए. ड्रेस कोड न मानने वाली महिलाओं को गिफ़्तार किया जाता है, अमूमन उन्हें 74 कोड़ों की सजा दी जाती है. क़ैद-ए-तन्हाई में भी रखा जाता है. इस सज़ा से गुज़र चुकी एक महिला BBC को बताती हैं,
क़ैद-ए-तन्हाई उतनी बुरी जगह थी, जितनी आप कल्पना कर सकते हैं. कोठरी का दरवाज़ा हर वक़्त बंद रहता था. इस कोठरी का आकार 1 मीटर X 1.5 मीटर था. बाहर से रोशनी बिलकुल नहीं आती थी. अंदर लगी लाइट रात-दिन जलती रहती थी. जब हमें टॉयलेट ले जाया जाता था तो हमारी आंखों पर पट्टी बांधी जाती थी.
भले ही कई लोग इज़रायल और अमेरिका से मुक़ाबला करने के लिए ख़ामेनेई की पीठ थपथपा रहे रहे हों, लेकिन उनके कई दमनकारी फैसलों की आलोचना भी करते रहे हैं. फ़िलहाल वो युद्ध में व्यस्त हैं और इज़रायल के ख़िलाफ़ ईरानी की जवाबी कार्रवाई ने सभी दूसरी खबरों को दबा दिया है. आखिर में एक ज़रूरी बात. शुरू में हमने जिस 16 साल के एक लड़के की बात की थी, उसका नाम है मेहदी खलाजी. उन्होंने आगे चलकर एक किताब लिखी THE REGENT OF ALLAH - Ali Khamenei’s Political Evolution in Iran. इसे ईरान और अयातुल्लाह अली खामेनेई पर मौजूद मुकम्मल किताबों में गिना जाता है.
वीडियो: तारीख: कहानी ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामेनेई की जिन्हें अमेरिका ने धमकी दी