इस लेख को लिखा है दिल्ली से विशी सिन्हा ने. संक्षिप्त परिचय: ट्रिपल आई टी - इलाहाबाद से इनफार्मेशन सिक्योरिटी में एमएस करने के अलावा लॉ की पढ़ाई भी की है. खेल और इतिहास में विशेष रुचि है. दाल-रोटी का खर्च निकालने के लिए फिलहाल दिल्ली स्थित एक आईटी कंपनी में लीगल मैनेजर का काम करते हैं. जीवन का उद्देश्य है पढ़ना. खेल जगत पर इनके आर्टिकल्स काफी रुचि लेकर पढ़े जाते हैं. अपनी मित्रता के दायरे में 'सर्टीफाईड सज्जन' के नाम से मशहूर विशी सिन्हा एक हंसमुख व्यक्तिव के धनी हैं. उनका इतिहास का अध्ययन बेजोड़ है. पढ़िए उनकी जानकारी के खज़ाने से निकला ऐसा ही एक राईट-अप.
पाकिस्तान के जन्म के मूल में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत था. द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं, जो एक साथ नहीं रह सकते. इसीलिए अलग मुल्क पाकिस्तान की मांग की गई. द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया था, यह महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण ये है कि इसको तत्कालीन भारतीय समाज के अलहदा तबकों द्वारा भीतर से और "डिवाइड एंड रूल" नीति के पोषकों द्वारा ऊपर से जम कर खाद-पानी दिया गया. नतीजतन उस समय के लीडरान की तमाम कोशिशों के बावजूद कुछ न किया जा सका. आज़ादी की सुबह विभाजन की कालिमा लेकर आई थी.
आज़ादी/विभाजन की शर्तों के अनुसार लीडरान इस बात पर एकमत थे कि विभाजन तो होगा पर जनसंख्या का स्थानांतरण नहीं होगा. पर हकीक़त में नफ़रत का भस्मासुर अब काबू से बाहर होकर अपने हुक्मरानों की बात मानने से इनकार कर चुका था. बढ़ते सांप्रदायिक तनाव के ज़ेरेसाया असुरक्षा और अविश्वास इस क़दर गहराता गया कि उन्हीं लोगों से जान बचाकर भागना पड़ा, जिनके साथ पीढ़ियों से रहते आ रहे थे. नतीजतन मानव इतिहास में जनसंख्या का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ. और यूं हुआ तकरीबन स्थानांतरण अपनी मर्जी से नहीं हुआ था, बल्कि दमघोंटू साम्प्रदायिक माहौल की वजह से हुआ था.
नतीजतन स्वेच्छा से या दबाव में अधिकतर लोग जिन्हें सर सायरिल रेडक्लिफ़ द्वारा कागज पर लकीर खेंच कर बनायी गयी सीमा के दूसरी ओर जाना पड़ा उन्होंने सैद्धांतिक रूप से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को अपना लिया. पाकिस्तान भले बना था द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की वजह से, पर भारत के कर्णधार विभाजन के दंश के बावजूद न सिर्फ द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को खारिज़ करते रहे, बल्कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और सर्वधर्म समभाव के अपने चरित्र के साथ चलते रहे.
आगे चलकर तारीख़ ने साबित कर दिया कि द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की जगह कूड़ेदान थी, जब आजादी के पच्चीस सालों के भीतर पाकिस्तान खुद दो भागों में बंट गया. वहीं सर्वधर्म समभाव की नीति पर चलता भारत एक राष्ट्र के रूप में 68 वर्षों के पश्चात भी अक्षुण्ण रहा है. खैर वो एक जुदा किस्सा है, फिलहाल आते हैं आज़ादी पर. उन्ही दिनों उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत में "सीमान्त गांधी" और "बादशाह खान" उपनाम से विख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को नकार दिया था और पाकिस्तान के बनने का खुले तौर पर विरोध किया था. बढ़ती नफरतों के दौर में उनकी आवाज कमजोर पड़ती गयी और वे सीमान्त प्रांत को पाकिस्तान का हिस्सा बनने से नहीं रोक सके. उन्हें समुचित समर्थन न मिल पाने पर उन्होंने कहा था कि भारतीय नेतृत्त्व ने उन्हें और उनके लोगों को भेड़ियों के बीच छोड़ दिया है. आज़ादी के लिए अहिंसक संघर्ष चलाने वाले इस पेशावर के पठान, जिसके "लाल कुर्ती दल" को "खुदाई खिदमतगार" भी कहा जाता था को द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन न करने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. पाकिस्तान बनने के कुछ ही वक़्त बाद उन्हें नजरबंद कर दिया गया. 1954 तक नजरबन्द रखने के बाद उनको छोड़ा भी गया तो गाहे - बगाहे पाकिस्तान की सरकार उन्हें सलाखों के पीछे डालती रही. "ख़ुदाई खिदमतगार" में बादशाह खान के गृहनगर पेशावर के इलाके क़िस्सा ख्वानी बाज़ार के ही एक पठान थे गुलाम मोहम्मद ख़ान, जिन्हें द्वि-राष्ट्र सिद्धांत विरोध और अखण्ड भारत के समर्थन का ख़ामियाजा 1948 से 1954 तक पाकिस्तानी जेलों की सलाखों के पीछे गुजार कर भुगतना पड़ा. इन्हीं गुलाम मोहम्मद ख़ान के सबसे छोटे भाई थे ताज मोहम्मद ख़ान, जो स्वयं लाल कुर्ती दल के सदस्य थे और जिन्होंने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर बने पाकिस्तान को अपनाने के बजाय सर्वधर्म समभाव वाले भारत को अपनाने का फैसला किया - पेशावर के अपने पुश्तैनी घर को छोड़कर भारत में बस जाने का फैसला किया. वजह जो भी रही हो, हालात के मददेनज़र विभाजन के वक़्त मुसलमानों का भारत से नवनिर्मित पाकिस्तान चले जाना या नवनिर्मित पाकिस्तान से हिन्दुओं-सिखों का भारत आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, पर
किसी मुसलमान का द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर नवनिर्मित पाकिस्तान को छोड़कर सर्वधर्म समभाव की नीति पर टिके रहने वाले भारत आ बसना एक गैरमामूली घटना थी जो यह स्थापित करती थी कि द्वि-राष्ट्र सिद्धांत कितना गलत था. और ताज मोहम्मद ख़ान का भारत आ बसना अपने तरह की अकेली घटना नहीं थी, बल्कि ऐसी कई मिसाल हाथ के हाथ गिनाई जा सकती है - बड़े गुलाम अली खां साहेब, जिनका मानना था कि अगर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा हर घर में दी जाती तो भारत का कभी बंटवारा ही नहीं होता, आईने-आपा, साहिर और ब्रिगेडियर उस्मान जैसे कई नाम तत्काल जेहन में कौंधते हैं, जिन्होंने वही राह अपनाई.
कोई उस हाफ़िज़ सईद के घोड़े को ये बताये कि जब वो उन्ही ताज मोहम्मद खान के बेटे - शाहरुख़ ख़ान - को भारत छोड़कर पाकिस्तान आने का न्योता दे रहा होता है तो दरअसल ख़ुद का ही मखौल उड़ा रहा होता है. और कोई रेडक्लिफ़ रेखा के इस ओर रह रहे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के बचे-खुचे ध्वजवाहकों तक भी ये सन्देश पहुंचा दे कि वे जिसे पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दे रहे हैं, उसके पूर्वजों ने पाकिस्तान को लात मारकर इस मुल्क को अपनाया है.
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