वित्त मंत्रालय के फैसले के बाद SEBI ने इस फैसले को मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (MCX) में लागू किया है. मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज दरअसल स्टॉक एक्सचेंज की तरह ही काम करता है, पर शेयर्स के बदले कमोडिटीज़ के वास्ते. मने सारी कमोडिटीज़ की खरीद-फरोख्त MCX पर ही की जाती है. सेबी के फैसले के मुताबिक, बैन की हुई कमोडिटीज़ में अगले आदेश तक कोई भी नयी ट्रेडिंग नहीं की जा सकती. हालांकि सेबी ने इन्वेस्टर्स को राहत देते हुए रनिंग पोजीशन वाली ट्रेडिंग यानी जो ट्रेड पहले ही ली जा चुकी हैं उनको स्क्वायर ऑफ करने की अनुमति दी है. स्क्वायर ऑफ यानी सौदा पूरा करने का मतलब हम आपको पहले ही शेयर मार्केट से जुड़े हुए कई वीडियोज़ में बता चुके हैं.
खबर की शुरुआत से ही बार-बार अपार चर्चा को प्राप्त हो रही दो चीज़ें ‘कमोडिटी’ और ‘फ्यूचर ट्रेडिंग’ क्या हैं ये समझेंगे. लेकिन पहले ये जान लेते हैं कि एसेंशियल कमोडिटीज़ की फ्यूचर ट्रेडिंग ( Future Trading) पर बैन लगाने के पीछे सरकार की क्या मंशा है.

सिक्योरिटीज एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (SEBI) एक वित्तीय नियामक संस्था है (फोटो सोर्स -बिज़नेस टुडे)
# फैसले की वजह (खाने को नहीं दाने, चले प्रॉफिट कमाने)- बात थोड़ी गंभीर है. दरअसल एसेंशियल कमोडिटीज की फ्यूचर ट्रेडिंग पर बैन के पीछे सरकार का उद्देश्य महंगाई कम करना है. ग्लोबल लेवल पर महंगाई इस वक़्त अपने उच्चतम स्तर पर है. कोविड ने यूं भी आर्थिक स्तर पर पूरी दुनिया को पीछे ढकेला है, और अब इसके नए वैरिएंट ओमिक्रॉन को लेकर शंकाएं और डर वैश्विक बाज़ार पर हावी हैं. दुनिया भर के सेंट्रल बैंक और US फ़ेडरल रिज़र्व महंगाई कम करने करने की कोशिशों में लगे हैं. ऐसे में एसेंशियल कमोडिटीज़ को लेकर SEBI का भी मानना है कि इनकी फ्यूचर ट्रेडिंग को कुछ वक़्त के लिए रोककर महंगाई कंट्रोल की जा सकती है. सही भी है, क्योंकि ये कमोडिटीज़ ही हैं जो पब्लिक की जेब पर सीधा असर डालती हैं. और फ्यूचर ट्रेडिंग करके इन कमोडिटीज़ से प्रॉफिट कमाने वाले इन्वेस्टर इनके प्राइस बढ़ा रहे थे. वैसे इन लोगों का भी कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि फायदा तो आखिर फायदा है. डॉजकॉइन भले मजाक में शुरू हो, लेकिन एलन मस्क जैसा कोई व्यक्ति उसका नाम ले ले, लोग इन्वेस्ट करने लगें तो जनाब कीमत फिर इसकी बढ़ेगी ही. इसमें न तो डॉजकॉइन की गलती है और न ही कोई ख़ास श्रेय. जो चलेगा वो बढ़ेगा. # आंकड़े क्या कहते हैं- बढ़ी हुई महंगाई समझने के लिए अगर कुछ आकंड़ों की बात करें तो CPI यानी कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स इस महीने अक्टूबर में 4.48% से बढ़कर 4.91% आंका गया. ये पिछले तीन महीनों में सबसे ज्यादा है. फर्क क्या पड़ेगा इसे ऐसे समझिए कि CPI ही असल में आम लोगों की जिंदगी में महंगाई का एक पैरामीटर है. इसी CPI का एक हिस्सा कंस्यूमर फूड प्राइस इंडेक्स से तय होता है, जिसमें खाद्य सामानों की कीमतों में महंगाई का स्तर तय किया जाता है. CPI तय करने में सबसे बड़ा रोल खाद्य तेल यानी एडिबल ऑयल की कीमतों का है जिसमें 29.67% की बढ़त रिकॉर्ड की गयी है, जबकि टोटल फ़ूड इन्फ्लेशन 1.87% है, जो कि तीन महीने के उच्चतम स्तर पर है. और इसीलिए सरकार के लिए पॉइंट ऑफ़ कंसर्न CPI के अलावा ख़ास तौर पर खाद्य पदार्थों की महंगाई बना हुआ है.
WPI यानी होलसेल प्राइस इंडेक्स के आंकड़े भी चढ़े हुए हैं. थोक कीमतों में महंगाई के चलते नवंबर में WPI 14.23 फ़ीसद पर था. वहीं अक्टूबर में WPI 12.54% रेकॉर्ड किया गया था. हालांकि लगातार 8 महीने से WPI डबल डिजिट में ही रहा है. लेकिन चिंता की बात ये है कि नवंबर में WPI पिछले पांच महीनों के हाई पर है. वजह वही फ़ूड प्राइसेज़ की महंगाई.
हालांकि सरकार ने महंगाई को कम करने के लिए एक्साइज ड्यूटी में भी कटौती की और राज्य सरकारों ने भी इसमें केंद्र सरकार का सहयोग किया, लेकिन बढ़ी हुई महंगाई पर एक्साइज ड्यूटी की कटौती का भी कोई फर्क नहीं पड़ा.
ये तो वो वजहें हैं जिनके चलते एसेंशियल कमोडिटीज़ की फ्यूचर ट्रेडिंग रोककर सरकार महंगाई कम करना चाह रही है. अब आसान भाषा में समझते हैं कि कमोडिटीज़ और फ्यूचर ट्रेडिंग क्या हैं.

CPI की दरें दर्शाता हुआ ग्राफ (फोटो सोर्स -बिज़नेस टुडे)
#कमोडिटी (ज़माना हमसे है)- कमोडिटीज़ को बेसिकली दो कैटेगरीज़ में रखा जाता है. पहली हार्ड कमोडिटीज़ यानी वो जिन्हें हम नेचुरल रिसोर्सेज के तौर पर यूज़ करते हैं जैसे कि गोल्ड, ऑयल, स्टील, लोहा वगैरह. और दूसरी कैटेगरी है- सॉफ्ट कमोडिटी यानी ऐसी कमोडिटीज़ जो हमें एग्रीकल्चर प्रोडयूस के तौर पर मिलती हैं जैसे दाल, गेंहू, चावल, चाय वगैरह.
किसी कंपनी के शेयर्स में ट्रेडिंग की तरह ही इन कमोडिटीज़ में भी ट्रेडिंग की जा सकती है. और ये ट्रेडिंग होती है कमोडिटी मार्केट में. यहां आप किसी कंपनी के रेडीमेड प्रोडक्ट की बजाय उस प्रोडक्ट में लगने वाले कच्चे माल की बाइंग या सेलिंग करते हैं, मिसाल के तौर पर आशीर्वाद आटा की बजाय गेहूं खरीदना और बेचना. यानी कमोडिटीज़ से तमाम फ़ूड प्रोडक्ट बनते हैं जिनकी ट्रेडिंग की जा सकती है. जिस कंपनी ने प्रोडक्ट बनाया है उसके शेयर्स लेकर. लेकिन कमोडिटीज़ खुद में वो एसेट है जिन पर ट्रेडिंग होती है. और जाहिर है कि किसी कंपनी के किसी प्रोडक्ट की तरह ही इन्हें भी खरीदना स्टोर करना और बेचना, कुछ भी फिजिकली नहीं करना होता, बल्कि कमोडिटी एक्सचेंज पर इनमें इन्वेस्ट करना होता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे शेयर्स में इन्वेस्ट करते हैं. अब चलते हैं फ्यूचर ट्रेडिंग यानी वायदा बाजार की तरफ. # फ्यूचर ट्रेडिंग (वायदा बाज़ार)- मान लीजिए आपकी जेब की हालत बिल्कुल चकाचक है, इस वक़्त आपके पास खूब पैसे हैं और आप उन पैसों से छह महीने का राशन ख़रीदना चाहते हैं. अब आप क्या करते हैं, परचून वाले के पास जाते हैं और सारा सामान घर में भर लेते हैं. लेकिन कुछ दिनों बाद देखते हैं, चावल चूहे खाने लग गये. दालों में कीड़े लग गए. दो दिन लाइट नहीं आई, फ्रिज में रखा बटर पिघलने लगा. मतलब नुक़सान.
इससे बेहतर तो ये है कि आप हर महीने राशन ख़रीदें. लेकिन सोचिए, अगर राशन के दाम बहुत तेज़ी से घटते-बढ़ते हों तो? और कहीं इसकी कीमत लगातार बढ़ने लगे, तो? आप कहेंगे कि इसी जोखिम के बारे में सोचकर ही तो आप एक मुश्त राशन ख़रीद रहे थे. तो फिर क्या कोई तीसरा विकल्प भी है? जी बिल्कुल. इसी तीसरे विकल्प का नाम है वायदा बाज़ार, जिसमें आपके और दुकान के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट हो गया. करार हुआ कि अगले महीने, यानी मई में वो दुकानदार आपको 5000 रुपये में ही राशन देगा और उसके अगले महीने 6000 में. फिर चाहे उस वक़्त राशन की कीमत इससे कम हो या ज़्यादा. इस सिस्टम में आप सामान तो करार के मुताबिक, तय वक़्त पर लेंगे. मगर पैसे कॉन्ट्रैक्ट बनते वक़्त ही दे देने पड़ेंगे.
अब ये जो आपके और दुकानदार के बीच आने वाले महीनों के लिए 5000 और 6000 का कॉन्ट्रैक्ट हुआ, उसे ‘राशन मई फ़्यूचर कॉन्ट्रैक्ट’ और ‘राशन जून फ़्यूचर कॉन्ट्रैक्ट’ कहेंगे. अब आपको ये करना है कि मई और जून में दुकानदार के पास जाकर अपना राशन घर ले आना है. उस वक़्त न दुकानदार आपसे पैसे बढ़ाकर मांगेगा. न ही राशन लेने से इनकार करके आप अपना पैसा वापस मांग सकते हैं.
हालांकि दुकानदार के पास एक विशेषाधिकार है. ये कि, वो आपको चुनने का मौक़ा दे. कि कॉन्ट्रैक्ट में जितना सामान देना तय था, या तो उतना सामान ले लो. या फिर सामान के वर्तमान मूल्य के बराबर रक़म ले लो. वो ईनाम वग़ैरह में ‘उतने ही मूल्य की नगदी’ का ज़िक्र होता है न कई बार, उसी तरह की व्यवस्था समझिए इसको. अब अगर सामान के रेट बढ़ गए तो जितने का सामान आपने लिया था, उसकी रकम वापस लेने पर घाटा होगा. माने शुरू में बताई पहली वाली कहावत चरितार्थ हो गई.

राशन की दुकान (प्रतीकात्मक फोटो - बिज़नेस टुडे)
# वायदे से फायदा- अब ऐसा तो नहीं है कि आप को अकेले दुकानदार ऐसा कॉन्ट्रैक्ट देगा. उसका तो बिज़नस मॉडल ही है ये, सो वो कइयों के साथ ऐसा करार करके बैठा होगा. इसमें कुछ लोग क्या करते हैं कि उन्हें मई का राशन नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी इस कॉन्ट्रैक्ट को ख़रीद लेते हैं. क्यों? क्योंकि उन्हें लगता है कि वे इस कॉन्ट्रैक्ट को और अधिक दामों में बेच सकते हैं. दूसरी कहावत यहां फिट बैठती है. यहां पर उनका मक़सद केवल फ़ायदा कमाना है. राशन ख़रीदने से उन्हें कोई मतलब नहीं हैं. इस तरीक़े से बाज़ार में इस कॉन्ट्रैक्ट का ख़रीदना-बेचना चलता रहता है. जिस बाज़ार में ये खरीद-बिक्री हो रही है, उसे ही वायदा बाज़ार (फ़्यूचर मार्केट) कहते हैं.
लोग किसी सुपरहिट मूवी के टिकट भी तो कई बार थोक में ख़रीद लेते हैं. इसलिए नहीं कि उन्हें मूवी देखनी है. बल्कि इसलिए कि उन्हें ये टिकट ब्लैक करके प्रॉफ़िट कमाना है. लेकिन इस ब्लैक करने में भी दो चीज़ें हो सकती हैं.
पहली ये कि किसी टिकट ब्लैक करने वाले से कोई दूसरा टिकट ब्लैक करने वाला ही टिकट ख़रीद ले, ताकि वो उसे और अधिक दामों में बेच सके. दूसरा ये कि ब्लैक करने वाले ने शुरुआत में टिकट इसलिए ख़रीदी कि उसे लगा, पिक्चर भाईजान की है और हिट होगी ही होगी. लेकिन पिक्चर निकलती है ‘ट्यूबलाइट’. अब टिकट ख़रीदने वाले को पिक्चर तो देखनी नहीं. तो वह घाटा खाकर टिकट बेचना शुरू कर देता है. यहां ये भी जानना ज़रूरी है कि टिकट हमेशा के लिए बचाकर नहीं रखी जा सकती. ये नहीं हो सकता कि आप सोचें, ‘जब दाम बढ़ेंगे तो बेच दूंगा.’
ऐसा इसलिए कि आपके पास मैटिनी शो की टिकट है और उसको तीन बजे से पहले ही बेच देना है. इस तीन बजे को समझ लीजिए टिकट की ‘एक्सपायरी डेट’.
अगर यहां पर टिकट के बदले फ़्यूचर कॉन्ट्रैक्ट और ब्लैक के बदले सब लीगल हो जाए, तो टिकट खिड़की के बाहर का सारा कारोबार वायदा बाज़ार या फ़्यूचर मार्केट कहलाएगा. तब हम टिकट की ‘एक्सपायरी डेट’ नहीं, कॉन्ट्रैक्ट की ‘एक्सपायरी डेट’ कहेंगे.
जिस तरह टिकट, टिकट-खिड़की से बाहर निकलने से लेकर टिकट चेकर के हाथों फटने तक, कई हाथों से गुजर सकता है. और इस दौरान उसकी कीमत घट या बढ़ सकती है. उसी तरह फ़्यूचर कॉन्ट्रैक्ट भी बनने से लेकर डिलिवरी लेने तक, कई हाथों से गुजरता है और उसके दाम घटते-बढ़ते रहते हैं. लेकिन इस सब के दौरान दो चीज़ें ध्रुव की तरह टिकी रहती हैं. एक, पिक्चर बनाने वाले को मिला टिकट का दाम. दूसरा, दर्शक द्वारा देखी जाने वाली फ़िल्म का अनुभव.
उम्मीद है वायदा बाज़ार को आप अब तक समझ गए होंगे. SEBI कुछ कमोडिटीज़ की फ्यूचर ट्रेडिंग पर रोक क्यों लगा रही है ये भी स्पष्ट है, अब इससे महंगाई पर कितना प्रभाव पड़ेगा ये देखने वाली बात होगी.