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53 साल पहले, जब भारत के आगे चीनी सेना ने घुटने टेक दिए थे

इस लड़ाई का जिक्र बहुत कम होता है.

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1967 में सिक्किम के पास नाथु ला और चो ला में भी भारत-चीन की लड़ाई हुई थी. इसमें भारतीय जवानों ने चीनी सेना को बुरी तरह हराया था. (Photo: Bharat Rakshak)
लद्दाख में गालवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों में झड़प हो गई. एक कर्नल सहित भारतीय सेना के तीन जवान शहीद हो गए. चीन के सैनिकों के भी मारे जाने की खबर है. घटना 15 जून की रात की है. इस मामले के सामने आने के बाद दिन भर यह बात खूब चली कि भारत चीन सीमा पर आखिरी गोली 1967 में चली थी. नाथु ला और चो ला की लड़ाई के दौरान. लेकिन आम जनमानस की स्मृति में भारत-चीन के झगड़े को लेकर आने वाला साल 1962 है, जब भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ. तो फिर पांच साल बाद दोबारा गोली चलने की नौबत क्यों आई?
क्या हुआ था 1962 के पांच साल बाद
पहले ये जानिए कि 1962 से 67 के बीच क्या हुआ. चूंकि भारत चीन से बुरी तरह हारा था, तो भारत ने अपना पूरा ध्यान सेना को मज़बूत करने में लगाया. भारी संख्या में फौज में भर्तियां हुईं, सैनिक प्रशिक्षण और रणनीति में बड़े बदलाव किए गए. भारत ने तय किया कि चीन से बातचीत चलती रहेगी. लेकिन अगर दोबारा हमला हो जाए, तो हमारी तैयारी पूरी रहे. इसी तैयारी का हिस्सा थे सेना के माउंटेन डिविज़न्स. सेना की वो टुकड़ियां, जो वैसे पहाड़ी इलाकों में लड़ने में माहिर हों, जैसे चीन की सीमा पर पड़ते हैं.
सिक्किम के पास नाथु ला और चो ला में 1967 में भारत-चीन के बीच लड़ाई हुई थी.
सिक्किम के पास नाथु ला और चो ला में 1967 में भारत-चीन के बीच लड़ाई हुई थी.

भारत ने सिक्किम में भी इन टुकड़ियों को तैनात किया. तब सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं था. लेकिन 1950 में भारत और सिक्किम के बीच एक संधि हुई थी, जिसके तहत भारत ने सिक्किम को संरक्षण दिया हुआ था. तो भारत की सेना सिक्किम और तिब्बत की सीमा पर तैनात रहती थी. भारत अब चीन को दोबारा अपने इलाके में घुसने का मौका नहीं देना चाहता था. इसीलिए जितने दर्रे या माउंटेन पास थे, उन पर सघन निगरानी रहती थी. इनमें सबसे प्रमुख था सिक्किम की राजधानी गंगटोक से कुछ 50 किलोमीटर दूर नाथु ला पास. यहां भारत और चीन की सेनाएं आज भी बहुत करीब-करीब तैनात हैं. कुछेक जगह तो बस 25 मीटर की दूरी है. चीन को इस बात से चिढ़ थी. तो उसने 1965 से भारत को अल्टीमेटम देने शुरू किए कि नाथु ला और जेलेप ला से अपनी फौज हटा ले.
दिल्ली में सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज़ (CLAWS) नाम का एक थिंक टैंक है, जो रक्षा मामलों पर काम करता है. इसकी वेबसाइट पर 27 मई, 2011 को मेजर जनरल शेरू थापलियाल (रिटायर्ड) का एक लेख छपा, जिसमें उन्होंने 1967 में नाथु ला की लड़ाई का ब्योरा दिया है. थापलियाल नाथु ला ब्रिगेड के कमांडर रहे हैं. वो लिखते हैं कि जेलेप ला से तो भारत की फौज हटी. लेकिन नाथु ला पर तैनात माउंटेन डिविज़न ने पीछे हटने से इनकार कर दिया. उन दिनों इस डिविज़न के जनरल ऑफिसर कमांडिंग माने GOC होते थे लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह.
बाड़ बिछाने को लेकर शुरू हुआ विवाद
6 सितंबर, 1967 को नाथु ला पर बॉर्डर पेट्रोलिंग के वक्त बहस हो गई. बहस के बाद दोनों तरफ से धक्का-मुक्की हुई. इसमें चीन की टुकड़ी में तैनात पॉलिटिकल कॉमिसार गिर गए. उनका चश्मा टूट गया. भविष्य में ऐसा कोई विवाद बढ़ते-बढ़ते हाथ से न निकल जाए, इसके लिए सेना ने एक जुगाड़ वाला समाधान निकाला. क्योंकि सीमा पर मार्किंग नहीं थी, तय हुआ कि नाथु ला के पास स्थित सेबु ला और कैमल्स बैक तक एक बाड़ बिछा दी जाए. सेबु ला और कैमल्स बैक सिक्किम की हद में थे. यहां से नाथु ला पर नज़र रखी जाती थी. बाड़ बिछ जाती, तो रोज़-रोज़ दोनों तरफ के जवान नहीं उलझते.
1962 में जंग के 5 साल बाद 1967 में भारत और चीन की सेनाएं फिर से आमने-सामने थीं.
1962 में जंग के 5 साल बाद 1967 में भारत और चीन की सेनाएं फिर से आमने-सामने थीं.

इसके लिए इंजीनियर्स की 70 फील्ड कंपनी और 18 राजपूत की एक कंपनी को लगाया गया. 11 सितंबर 1967 की सुबह ये काम शुरू हुआ. पॉलिटिकल कॉमिसार अपने साथ चीनी फौज के कुछ जवान लेकर नाथु ला पहुंचे. उन्होंने वहां मौजूद लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह से बाड़ का काम रोकने को कहा. यही बातचीत विवाद में बदली और थोड़ी देर धक्का-मुक्की के बाद कॉमिसार अपनी टुकड़ी लेकर लौट गए. बाड़ लगाने का काम फिर शुरू हुआ. लेकिन तभी चीन की तरफ से हमला हो गया.
भारत ने गोलियों का बदला गोलों से लिया
थापलियाल लिखते हैं कि 70 फील्ड रेजिमेंट और 18 राजपूत के जवान खुले में थे. तो जब उन पर मीडियम मशीन गन से गोलिया चलाई गईं, तो कई जवान शहीद हो गए. दो ग्रेनेडियर्स के कैप्टन डागर और 18 राजपूत के मेजर हरभजन सिंह ने मीडियम मशीन गन पर चढ़ाई की, लेकिन शहीद हो गए. कुछ ही देर में भारत की तरफ से तकरीबन 70 सैनिक शहीद हो चुके थे. इसके बाद भारत ने गोलियां का बदला गोलों से लिया. चूंकि भारत की आर्टिलरी (तोपखाने) की पोज़िशन चीन के तोपखाने की तुलना में बेहतर थी, चीन को भारी नुकसान हुआ. 14 सितंबर को जाकर दोनों तरफ से गोलाबारी रुकी. तब तक चीन के 300 से 400 सैनिक मारे जा चुके थे. 15 सितंबर को दोनों तरफ से पार्थिव शरीरों की अदला-बदली हुई, जिस दौरान लेफ्टिनेंट जनरल सैम मानेकशॉ खुद वहां मौजूद थे.
नाथु ला के बाद चो ला में हुई झड़प
बीस दिन बाद लगभग इसी तरह की झड़प चो ला नाम की जगह पर हुई. ये भी एक दर्रा है - नाथु ला से कुछ ही किलोमीटर उत्तर की दिशा में. 1 अक्टूबर 1967 को यहां दोनों सेनाओं के बीच झड़प हुई, जो एक पूरे दिन तक चली. शुरुआत में 7/11 गोरखा और 10 जम्मू कश्मीर राइफल्स ने कुछ नुकसान उठाया, लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसके बारे में मेजर जनरल थापलियाल लिखते हैं कि लड़ते-लड़ते चीन की सेना को तीन किलोमीटर तक पीछे हटना पड़ा. आज भी चीन की सेना इसी पॉइंट पर तैनात है, जिसे काम बैरेक्स कहा जाता है.
1967 की जंग पर जेपी दत्ता ने पलटन नाम से फिल्म भी बनाई थी. हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई थी.
1967 की जंग पर जेपी दत्ता ने 'पलटन' नाम से फिल्म भी बनाई थी. हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई थी.

चो ला भारत के नियंत्रण में रहा और आज भी है. चो ला और नाथु ला में मिलाकर भारत के 80 से ऊपर सैनिक शहीद हुए. चीन की तरफ से 300-400 जवानों के मारे जाने का ज़िक्र मिलता है. लेकिन यहां बात सिर्फ मृत्यु के आंकड़े की ही नहीं है. नाथु ला और चो ला में मिली जीत ने सेना का मनोबल बढ़ाने का काम किया. कि चीन चाहे जितना बड़ा और ताकतवर लगे, उसे सबक सिखाया जा सकता है.
1975  में आखिरी बार चली थी गोली
लेकिन 1967 वो आखिरी साल नहीं था जब भारत और चीन के बीच गोली चली. 'द हिंदू' अखबार में 14 जून को अनंत कृष्णन की एक रिपोर्ट छपी है. इसमें अनंत कृष्णन लिखते हैं कि 1967 के आठ साल बाद भी भारत और चीन के बीच गोली चली थी. 20 अक्टूबर 1975 में अरुणाचल प्रदेश तुलुंग ला में असम राइफल्स के चार जवानों की एक पेट्रोल पार्टी पर चीनियों ने हमला किया. इसमें चार जवान शहीद हो गए. इस वाकये को लेकर कुछ मतभेद भी हैं. कुछ लोग इसे कोहरे की वजह से हुआ एक हादसा बताते हैं. लेकिन अनंत की रिपोर्ट में पूर्व विदेश सचिव और चीन में राजदूत रहीं निरुपमा राव का बयान छपा है. राव कहती हैं कि 20 अक्टूबर 1975 को जो हुआ, वो हादसा नहीं, हमला था, जिसमें चार जानें भी गई थीं.
आठ दिन बाद शव ला पाया था भारत
गोलीबारी के बाद विवाद तुरंत शांत नहीं हुआ, क्योंकि भारत पार्थिव शरीर 28 अक्टूबर को वापस ला पाया. अनंत अपनी रिपोर्ट में अमेरीकी सरकार के एक दस्तावेज़ का हवाला देते हैं, जिसमें एक भारतीय खुफिया विभाग के अधिकारी के हवाले से ये लिखा है कि चीन भारत के हिस्से में एक दीवार बनाने की कोशिश कर रहा था. भारत सरकार भी यही मानती है कि चीन के सैनिक LAC के इस तरफ आए और उन्होंने पेट्रोल पार्टी पर हमला किया. चीन का कहना है कि उसने जो किया, वो आत्मरक्षा में किया.
इन दोनों वाकयों से मालूम चलता है कि भारत और चीन की सेनाओं की बीच सीमा विवाद को लेकर झड़पों का स्वरूप कितना कम बदला है. बात पेट्रोलिंग से शुरू होती है, मार्किंग को लेकर विवाद होता है, बहस होती है, फिर हाथापाई. 1967 और 1975 की घटनाएं अपवाद लगती थीं. कि 1962 के बाद बस यही दो मौके थे, जब किसी की जान गई. लेकिन 15 जून, 2020 की तारीख ने इसे बदल दिया है.


Video: लद्दाख के गलवान घाटी में हिंसक झड़प, भारतीय सेना के कर्नल और सेना के दो जवान शहीद