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सेवाग्राम आश्रम में ऐसा क्या हो रहा है कि गांधी के नाती-पोते सरकार को चिट्ठी लिख रहे हैं?

जानिए ख़ुद महात्मा गांधी की इस बारे में क्या राय थी?

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सेवाग्राम आश्रम, वर्धा में पेड़ काटे जा रहे हैं. और लोग इसके ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं. (तस्वीर: संदीप कुमार)
किसी तीर्थ यात्रा को आसान बनाने की आवश्यकता नहीं है, तीर्थयात्रा में तपस्या का एक तत्व अवश्य रहना चाहिए.
ये एक पत्र का अंश है. 2 सितंबर को ये पत्र कई प्रतिष्ठित अख़बारों में छपा. ऐसा क्या था इस पत्र में? ये पत्र तुषार गांधी ने महाराष्ट्र सरकार को लिखा था. तुषार गांधी, महात्मा गांधी के पड़पोते हैं. पूरा मामला क्या है, आइए जानते हैं.
# हुआ क्या है
अहमदाबाद का साबरमती आश्रम. गांधी और उनके कार्यों का हेडक्वार्टर. लेकिन 1930 में डांडी यात्रा के बाद वो कई वर्षों तक वहां नहीं लौटे. बोले- जब तक देश आज़ाद नहीं हो जाता, वापस नहीं आऊंगा.
सन् 1934. उद्योगपति जमनालाल बजाज के बुलाने पर महात्मा गांधी महाराष्ट्र के वर्धा में रहने गए. अप्रैल 1936 में उन्होंने वर्धा के एक गांव सेगांव को अपना ठिया बनाया. एक दशक से ज़्यादा का समय यहीं गुज़ारा. इसी जगह का नाम बाद में ‘सेवाग्राम आश्रम’ रखा गया.
न केवल भारतीय बल्कि विदेशी पर्यटक भी बड़ी संख्या में सेवाग्राम आश्रम पहुंचते हैं. हर साल क़रीब 5 लाख लोग.
महाराष्ट्र सरकार ने इसी ‘टूरिज़्म’ वाले बिंदु को ध्यान में रखते हुए सोचा कि क्यों न वर्धा के गांधी चौक से सेवाग्राम (बापू कुटी) के 9 किलोमीटर के रास्ते को चौड़ा किया जाए. ताकि गांधी जी की 151वीं जयंती, 02 अक्टूबर, 2020 को आने वाले पर्यटकों को आवागमन में सहूलियत भी रहे और जगह सुंदर भी दिखे.
सड़क चौड़ी करने के लिए आवश्यक था कि बीच में पड़ने वाले पेड़ काट दिए जाएं. सरकार के इसी फ़ैसले का वर्धा और आश्रम के आस-पास रहने वाले करीब 4,000 लोग विरोध करने लगे. कहा कि ये पेड़ बापू जी के समय के लगाए हुए है. और अगर पर्यटन के नज़रिए से भी देखें तो ये न केवल वर्धा से सेवाग्राम आश्रम आने वाले टूरिस्ट्स को छांव और सुस्ताने की जगह देते हैं, बल्कि वातावरण में शांति और ठंडक बनाए रखते हैं.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार


पहले तो सरकार ने गांववालों और आश्रम के निवासियों के विरोध का सम्मान रखते हुए साफ़ किया कि वो किसी भी तरह से पेड़ काटने के पक्ष में नहीं हैं. बापू के समय के लगाए पेड़ तो कभी नहीं.
लेकिन कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान सरकार ने तक़रीबन 70 बड़े पेड़ों को गिरा दिया. और 27 जुलाई को फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर ने ऑर्डर निकाला कि रोड-वाइडनिंग (सड़क-चौड़ीकारण) के इस प्रोजेक्ट के लिए 160 पेड़ और गिराने की प्लानिंग है. इसी घटना से आहत होकर तुषार गांधी ने ये पत्र महाराष्ट्र सरकार को लिखा था.
# क्या कहना है इस पूरे आंदोलन से जुड़े लोगों का?

तुषार के पिता और गांधी के पोते, अरुण गांधी ने इस मामले में लिखा,



अरुण गांधी अरुण गांधी


ये पेड़ ख़ुद महात्मा गांधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी ने लगाए हैं. वे जब सेवाग्राम आश्रम आए थे तो यहां की ज़मीन बिल्कुल बंजर थी. बापू जी और बा ने मिलकर अपना जीवन इन पेड़ों को दिया. इसीलिए इन वृक्षों का टूरिज़्म के हिसाब से भी अपना महत्व है. और इन्हें केवल रोड को चौड़ा करने के लिए काटना बिल्कुल ही ग़लत होगा.
तुषार गांधी और अरुण गांधी ही नहीं, गांधी परिवार के अन्य सदस्यों ने भी महाराष्ट्र सरकार, उद्धव ठाकरे, पर्यावरण मंत्री व पीडबल्यूडी को लेटर लिखे हैं.
हमने इस विषय में ‘जल-थल-मल’ के लेखक, पर्यावरण विशेषज्ञ, पत्रकार और गांधी-वादी चिंतक सोपान जोशी से बात की. उन्होंने कहा,

सोपान जोशी सोपान जोशी


मुझे जो कहना है, वो इतनी सी बात है कि अगर गांधी जी को बड़ी सड़क और औद्योगिक विकास जमता, तो क्या वो वर्धा में एक ग्रामीण इलाक़े में अपना आश्रम बनाते? और ये कोई मुख्य सड़क है भी नहीं.
ये (गांधी) पिछली सदी के सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति हैं. उन्होंने जो आश्रम इतने ध्यान से बनाया, उसमें ये नियम था कि आसपास नौ किलोमीटर के दायरे में जो सामान मिले, उसी से आश्रम बनेगा. 100 रुपया दिया था शुरू में उन्होंने कि इतने में ही बनेगा. आज हम 100 करोड़, 150 करोड़ कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार हैं, उस विचार से उल्टा जा रहे हैं. और उसी व्यक्ति के नाम पर ये कर रहे हैं.
गांधी किसी भी औद्योगिक विकास के पक्ष में नहीं थे. उनका कहना था कि ये हमें और ग़ुलाम बनाएगा.
जो आश्रम स्वराज्य को देसी स्वरूप देने के लिए बनाया गया था, उसके आसपास ग़ुलामी का विकास करने का क्या औचित्य?
इस तरह का औद्योगिक विकास, कंक्रीट और शीशा लगाना, ये गांधी जी के विचार के साथ नहीं है. ऐसे अगर हम गांधी को याद करेंगे, तो फिर हम मान सकते हैं कि हमने उनको पहले की भुला दिया.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार


अंत में उन्होंने जोड़ा-
आजकल सामाजिक कार्यकर्ता जो भी करना चाहते हैं, उनकी सामाजिक चिन्ताएं सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती के सामने खड़ी ही नहीं हो पातीं. जो लोग इस मुहिम में आगे हैं, आप सीधे उनसे बातें कर सकते हैं.
और फिर हमें उन्होंने आलोक बंग का नंबर दिया. आलोक इकोलॉजिस्ट हैं. मतलब परिस्थिति विज्ञान का अध्ययन करते हैं. IISc बेंगलुरु से PhD की है. PhD के बाद फ्रान्स में पेरिस यूनिवर्सिटी और भारत में IISER पुणे में पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्चर रह चुके हैं. भारत में अनेक सामाजिक संस्थाओं के साथ जंगल और जैव विविधता के मुद्दों पर रिसर्च करते रहे हैं इस पूरे घटनाक्रम पर उन्होंने कहा,

आलोक बांग आलोक बंग


"168 पेड़ कटने के लिए अप्रूव किए जा चुके थे, जिनमें से 70 पेड़ ऑलरेडी कट चुके हैं. 6 और 7 अगस्त को.
100 और काटे जाने वाले थे. पर हम सबने ये मूवमेंट खड़ा किया. अब लोकल कलेक्टरेट और पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट ने अभी इस पर स्टे लगाया है. लेकिन पता नहीं कब वो फिर से कटाई शुरू कर दें. अभी तो 100 पेड़ बचे हैं पर ये कभी भी काटे जा सकते हैं.
ये सिर्फ़ चुनिंदा ‘गांधीवादियों’ या ‘लिबरल एलीट्स’ का ऑपरेशन नहीं है. हमारे साथी अद्वैत देशपांडे, प्रशांत नागोसे, मनोज ठाकरे, निरंजना मारू और दर्ज़नों मित्र पिछले दो हफ़्तों से लगातार गांवों में संपर्क बना रहे हैं
हम लोगों के बीच गए, वो क्या सोचते हैं, ये हमने जाना. लगभग 4,000 घरों में हम गए. उनसे बात की. 4,000 लोगों का सिग्नेचर कैंपेन हमने लोकल से लेकर स्टेट अथॉरिटी तक, सबको सबमिट किया है. तो ये लोग ही इस आंदोलन का चेहरा हैं. ये लोग कह रहे हैं, "हमारी अनुमति नहीं ली गई, हमें इस रास्ते के पेड़ काटकर रास्ता चौड़ा करने की कोई भी ज़रूरत नहीं लगती." शासन कहता है ट्रैफ़िक 15-20 साल बाद बढ़ेगा. लेकिन जब रोड इन्हीं लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाएगी, तो इन्हीं लोगों की मर्ज़ी भी होनी चाहिए.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार


पेड़ क्यों नहीं काटे जाने चाहिए? इस सवाल के उत्तर में आलोक ने तर्क दिए-
इसके मूलतः दो एंगल हैं-
# हिस्टोरिकल और कल्चरल. इसकी जानकारी हमें इस आंदोलन के शीर्षस्थ दो लोगों से मिली: विभा गुप्ता और सुषमा शर्मा. उन्होंने बताया कि ये गांधी जी के टाइम के लगाए हुए पेड़ हैं, उस वक्त ‘नई तालीम’ में जो बच्चे पढ़ रहे थे, उसमें से 3-4 बच्चे अभी भी सेवाग्राम में हैं. उनसे पता चला है कि ये 1940 के दशक में लगाए गए थे. मतलब इनकी उम्र कम से कम 80 वर्ष है. तो ये गांधी के डिसाइपल्स तीन लोग प्रभाकर जोसेफ़, आर्यनायकम, अन्ना साहेब सहस्त्रबुद्धे ने मिलकर नई तालीम के बच्चों के साथ ये पेड़ लगाए थे. पानी नहीं था तो दूर-दराज़ से पानी ला कर पेड़ों की देखभाल की, उन्हें जिलाया.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार

# दूसरी बात 80 साल पुराने पेड़ हैं तो निश्चित रूप से इनकी एक एन्वायरन्मेंटल वैल्यू भी है.
अव्वल तो रास्ता चौड़ा करने की ज़रूरत नहीं है. क्यूंकि वर्धा के इर्द-गिर्द बहुत सारे नेशनल और स्टेट हाइवेज़ हैं. तो इसकी ज़रूरत नहीं है. दूसरी बात, इट गोज़ फ़्रॉम विदिन द हार्ट ऑफ़ दी सिटी. ये रास्ता रेजिडेंशियल एरियाज और स्कूल कॉलेज को छूकर वर्धा से सेवाग्राम जाता है. अभी के रास्ते काफी हैंचौड़े रास्तों की ज़रूरत नहीं है. 
वैकल्पिक रास्ता सुझाते हुए आलोक कहते हैं-
रोड-वाइडनिंग में ऐसे विकल्प भी हैं, जिनमें पेड़ों को बचाया जा सकता. हमारी टीम में सिविल इंजिनियर्स हैं. जैसे सुनील फ़रसोले, जो महाराष्ट्र स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन में इंजिनियर थे. जिन्होंने कुछ ऑल्टरनेटिव भी सुझाए हैं, जिनके चलते ये पेड़ बच सकते हैं. ऐसी बहुत सी मॉडर्न टेक्नॉलजी हैं, जो रोड भी बना सकती है, और इर्द गिर्द के पेड़ों को भी बचा सकती है. विदेशों की ट्री-ट्रांसप्लांट करने की भी तकनीक है. जो अब भारत में भी आ गई है. बेंगलुरु जैसे शहरों में इसका इस्तेमाल हुआ है.
दिक्कत सिर्फ़ काटे जा रहे पेड़ों तक ही सीमित नहीं. आलोक बताते हैं-
वाइडनिंग की एक्टिविटीज़ चल रही हैं, इस वजह से टेक्निकली तो काफ़ी सारे पेड़ खड़े रहेंगे, पर उनके इतने क़रीब ये सब कन्स्ट्रक्शन होगा कि आने वाले महीनों या सालों में अंततः वो भी मर जाएंगे. हम तब नहीं जान पाएंगे कि ऐसा क्यूं हुआ. क्यूंकि अगर किसी भी पेड़ का ‘क्रिटिकल रूट ज़ोन’ हम बहुत डिस्टर्ब कर देते हैं तो उनकी हानि होना निश्चित है. इस वज़ह से ये जो 200 पेड़ कह रहे हैं, ये 200 नहीं, कई सौ की तादात में होंगे. एक एक्सपर्ट, एक ईकोलॉजिस्ट के तौर पर मैं निश्चित रूप से ऐसा कह सकता हूं.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार


सरकार की इस बात पर कि ‘हर काटे गए पेड़ों की एवज़ में दस और नए पेड़ लगाए जाएंगे’ आलोक तर्क देते हैं-
एक ग़ैर-जानकर भी जानता है कि 50 साल पुराने पेड़ की भरपाई 5-10 साल पुराने पेड़ नहीं कर पाएंगे.
वर्धा और विदर्भ जिस भौगोलिक एरिया में हैं, ये बेसॉल्ट रीज़न है. ये बहुत कठोर मौसमों का साक्षी रहा है. गर्मियां बहुत गर्म और जाड़े बहुत ठंडे. ऐसे माहौल में भी जो पेड़ बचे हुए हैं, वो इन सभी दिक़्क़तों से गुज़र चुके हैं. ये एक तरह से ‘फिटेस्ट ऑफ़ दी लॉट’ हैं. मतलब सबसे योग्य, सबसे मज़बूत हैं. ऐसे पेड़ों को काट के 5 साल पुराने पेड़ लगाएंगे, उनमें से काफ़ी सारे मरने ही हैं.
ये बहुत ‘फूलहार्डी’ (ज़ल्दबाज़ी और बिना भविष्य की सोचे लिया गया) निर्णय है. और शासन इसे समाधान बता रहा है.
नई डेवलपमेंट के बारे में आलोक ने बताया-
महाराष्ट्र के PWD मिनिस्टर अशोक चव्हाण ने पिछले कुछ हफ़्तों की घटनाओं, ख़ासकर गांधी परिवार के सदस्यों के पत्र लिखने के चलते स्टेटमेंट दिया. उन्होंने कहा कि इस पूरे प्रोजेक्ट का रीएसेसमेंट किया जाएगा.
इसमें अभी जितने पेड़ कटने प्रपोज़्ड हैं, वो भी न कटें, ऐसा वो री-सर्वे करेंगे. लेकिन ये सिर्फ़ स्टेटमेंट हैं और अभी ऑफ़िशियल कॉपी देखना बाक़ी रहता है. मुझे नहीं पता रीएसेसमेंट का क्या मतलब होगा, पर जो कहा जा रहा है कि शुरुआत से ही पेड़ नहीं कटने वाले थे, ये बात पूर्णतः ग़लत है. ये सच होता तो 168 पेड़ों के काटने की अनुमति सरकार नहीं देती.
उन्होंने इन पेड़ों के काटे जाने की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते हुए कहा,
कोई भी पेड़ काटने की एक ऑफ़िशियल प्रक्रिया होती है, ज़मीन, जिस भी ग्राम पंचायत या शहर की हद में होती है उससे नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफ़िकेट लेना ज़रूरी है. और ये रास्ता चार ग्राम पंचायतों से होकर जाता है.
तस्वीर: संदीप कुमार तस्वीर: संदीप कुमार

हमारे साथी विट्ठल साळवे ने RTI के तहत ये पता किया कि तीन ग्राम पंचायतों से नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफ़िकेट लिया ही नहीं गया था. और एक ग्राम पंचायत के सिर्फ़ सरपंच से नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफ़िकेट लिया गया था. वहां भी बाक़ी सदस्य इसमें सहभागी नहीं थे. तो उस ग्राम पंचायत का सर्टिफ़िकेट अमान्य हो जाता है. तो ये पूरी प्रक्रिया काफ़ी लूपहोल्स और इनकंसिस्टेंसी से भरी हुई है. एक तरह से अवैध.

अंत में आलोक ने जो बात बताई उसके साथ आपको छोड़े जाते हैं, ताकि आप निर्णय ले सकें कि क्या सही, क्या ग़लत-
गांधी जी कहते थे, ‘रोड बनाने की ज़रूरत नहीं है. जब कोई भी यात्री सेवाग्राम आए, तो उनके लिए वर्धा से सेवाग्राम का ये रास्ता चलना ज़रूरी है. ये एक तरह की तपस्या है.’