
2016 में ‘दी लल्लनटॉप’ ने आपको महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला ‘रेडियो ज़ुबानी’ की 20 किस्तें पढ़ाई थी. महेंद्र जी की व्यस्तताओं के चलते ये सिलसिला थोड़ा रुक गया था, जिसे अब फिर से चलाया जा रहा है. इस सीरीज में महेंद्र मोदी के लिखे रेडियो से जुड़े किस्से पढ़ने मिलेंगे. साथ ही वो किस्से-कहानियां भी जिनपर आधारित नाटक रेडियो पर प्रसारित हुए. बीकानेर में पैदा हुए महेंद्र मोदी मुंबई में रहते हैं. विविध भारती के अवकाशप्राप्त चैनल हेड हैं.
अभी दशक भर पहले तक रेडियो हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा हुआ करता था. बदलते समय में रेडियो भले ही थोड़ा साइडलाइन हो गया हो लेकिन हमारी यादों में इसकी जगह हमेशा के लिए महफूज़ है. 90 के दशक से पहले पैदा हुए हर शख्स के पास रेडियो को लेकर एक कहानी ज़रूर-ज़रूर होती है. रेडियो के श्रोता रहे लोगों के पास ही जब कहने के लिए बहुत कुछ होता है, तो उस शख्स के संस्मरणों की गठरी कितनी समृद्ध होगी, जिसने ज़िंदगी के 40 साल रेडियो को दिए हो! रेडियो के नॉस्टैल्जिया की सैर कराने के लिए महेंद्र मोदी बिल्कुल फिट शख्स हैं. तो पढ़े जाए रेडियो से जुड़े किस्से महेंद्र मोदी की ज़ुबानी.
ये 26वीं किस्त है.
मैंने जब आकाशवाणी का ऑडिशन दिया था, बीकानेर के ढेरों कलाकार, बल्कि लगभग सारे कलाकार ऑडिशन देने के लिए आये थे. नाम इसलिए नहीं लूंगा, क्योंकि वो सब उस वक्त बीकानेर के बहुत बड़े बड़े नाम थे, लेकिन सब के सब उस इम्तहान में फेल हो गए थे. बस दो तीन ही नाम थे, जो मेरे साथ पास हुए थे. उनमे से एक नाम था. हनुमान पारीक. नाम से लगता है कि कोई लंबा चौड़ा व्यक्तित्व होगा, परन्तु शानदार आवाज़ के मालिक, वो हनुमान पारीक इतने दुबले पतले थे कि फूँक मारो तो उड़ जाएं. ऑडिशन के वक्त जब हम सब लोग बाहर खड़े हुए तैयारी कर रहे थे, पारीक जी ने मुझे दो लोगों से मिलवाया. एक का नाम था, श्री सूरज सिंह पंवार और दूसरे का नाम था श्री वेद प्रकाश मिश्रा. मिश्राजी पेशे से आयुर्वेदिक वैद्य थे, इसलिए लोग उन्हें बैद जी के नाम से जानते थे. दोनों ही मुझसे उम्र में काफी बड़े थे.

सूरज सिंह जी ने मुझे बताया कि वो लेखक और डायरेक्टर हैं, स्टेज करते हैं. अगर मैं चाहूँ तो उनके ग्रुप के साथ जुड सकता हूँ. मुझे और क्या चाहिए था? इतने सीनियर कलाकार मुझे अपने साथ काम करने की दावत दे रहे थे, मैं कैसे मना करता? मैंने हाँ भर दी. सूरज सिंह जी ने मुझसे कहा, “ठीक है, आप आ जाओ. हमारा एक नाटक सरू होणे वाळा है, 'सौंदर्य की सांझ'. हम लोग ये नाटक जोधपुर लेकर जायेंगे, आप भी उसमे रोल करो.”
मैंने बिना कुछ सोचे विचारे फ़ौरन हाँ भर ली.
दो दिन बाद ही मैं सूरज सिंह जी से मिला. पता लगा लीड रोल सूरज सिंह जी खुद करेंगे और उनके साथ में थी पुष्पा जैन. हालांकि इससे पहले भी मैंने थोड़ा बहुत स्टेज किया था, लेकिन वो सारा स्कूल कॉलेज का स्टेज हुआ करता था. उसे प्रोफेशनल स्टेज नहीं कह सकते थे. अब ये जो मैं करने जा रहा था, ये बीकानेर का प्रोफेशनल स्टेज था. हालांकि मुझे प्रोफेशनल और शौकिया की कोई खास समझ नहीं थी, फिर भी इतना तो मैं समझ ही रहा था कि ये स्कूल कॉलेज के ड्रामा से कुछ अलग है.
मैं रिहर्सल के लिए पहुंचा. सारे कलाकारों से परिचय हुआ. उनमे से कुछ लोगों के नाम मैंने सुन रखे थे, कुछके नहीं. सबने बहुत प्यार से मेरा स्वागत किया. एक लड़की जो यकीनन मुझसे उम्र में बड़ी थी, आगे बढ़ी और अपना हाथ आगे बढाते हुए कहा, “मैं हूँ पुस्बा जैन.” बीकानेर में श या ष है ही नहीं और पुष्पा को लगभग सभी लोग पता नहीं क्यों, पुस्बा ही बोलते हैं. इसी तरह एक और नाम है, जिसे शायद बीकानेर के अलावा कहीं भी इस तरह नहीं बोला जाता होगा. यहाँ हनुमान जी के मंदिर को कोई हनुमान जी का मंदिर नहीं बोलता. हर इंसान बोलेगा, हडमान जी का मंदिर. यहाँ तक कि अगर किसीका नाम हनुमान प्रसाद है, तो वो अपना नाम बताएगा, हड्मान प्रसाद. ठीक वैसे ही जैसे उत्तर प्रदेश में आप किसीको पूछेंगे, आपका नाम क्या है? तो जवाब मिलेगा, बी एन पाण्डेय. आप कहेंगे भाई आपका पूरा नाम बताइये न, तो जवाब होगा, विश्व नाथ पाण्डेय.अब पता नहीं विश्व नाथ पाण्डेय, वी एन की जगह बी एन पाण्डेय क्यों बन जाते हैं?

नाटक की रिहर्सल शुरू हुई. बहुत अच्छा और दोस्ताना माहौल था. डायरेक्टर के तौर पर सूरज सिंह जी थोड़े सख्त थे. रिहर्सल के वक्त हंसी मजाक या इधर उधर की बातचीत उन्हें पसंद नहीं थी. हाँ बीच बीच में ब्रेक होता था तो हंसी मजाक भी खूब चलता था. कुल मिलाकर सब कुछ बहुत बैलेंस्ड था. मुझे वहाँ अच्छा लगने लगा था. हमारे साथ मेरी ही उम्र के लेकिन मुझसे ज़्यादा तजुर्बे वाले कलाकार थे, प्रदीप भटनागर. स्वभाव के भी बहुत अच्छे, बहुत नम्र और तहजीब वाले. मेरी उनसे उस नाटक के दौरान जो ट्यूनिंग हुई तो आज तक बनी हुई है.
पुस्बा जैन बहुत बिंदास किस्म की लड़की थी. वो अक्सर अपने बराबर के कलाकारों को तू कहकर ही बुलाती थी. शुरू शुरु में मैं उसे आप कहकर बुलाने लगा तो वो बोली,
“देख महेंदर मुझसे ये आप वाप बहुत मुश्किल से बोला जाता है. जो लोग उम्र में बहुत बड़े है, उन्हें तो आप कहना ठीक है लेकिन हम लोग तो उम्र में बराबर के हैं, मैं तो तुझे तू ही कहकर बुलाऊंगी. ज़रा सोच, तुझे भी यहीं बीकानेर में स्टेज करना है और मुझे भी. अब अगर हम लोग इतने फॉर्मल रहेंगे तो कैसे काम चलेगा? हो सकता है किसी नाटक में मैं तेरी छोटी बहन का रोल करूं, ये भी हो सकता है कि किसी नाटक में तेरी प्रेमिका का रोल करूं, अब इतने फॉर्मल होकर आप आप करते रहेंगे तो हो गया नाटक.”मैंने कहा “ ठीक है भाई जैसी तेरी मर्जी.”
सूरज सिंह जी उस से बहुत खुश थे क्योंकि वो ऐसे सारे सीन भी खुलकर करती थी, जिनमें उस ज़माने की लडकियां अक्सर घबरा जाया करती थीं. हालांकि मैं आपको बता दूं कि उस ज़माने में आज की तरह के खुले सीन हुआ भी नहीं करते थे, लेकिन जब फिल्म सेंसर बोर्ड भी ज़रा सा पल्लू खिसकने को अश्लील मान लेता था, तो स्टेज पर होने वाले नाटकों में अगर आलिंगन के सीन को बुरा मान लिया जाए, तो कोई ताज्जुब की बात नहीं.
पुस्बा जैन ने एक दिन रिहर्सल के दौरान मुझसे पूछा, “महेंदर, तेरा घर कहाँ है रे?”और दूसरे दिन वो वास्तव में पता पूछते-पूछते मेरे घर आ पहुँची. मैंने अपनी माँ से पुस्बा का परिचय करवाया. थोडी ही देर में वो मेरी माँ से इस तरह घुल मिल गयी थी, जैसे वो उन्हें बरसों से जानती हो. उस दिन वो काफी देर हमारे घर रही और इसके बाद भी कई बार वो हमारे घर आ जाया करती थी और मेरी माँ से घंटों बात करती रहती थी. वो कुछ दिन घर नहीं आती तो मेरी माँ भी पूछने लगती थीं, पुस्बा नहीं आयी बहुत दिन से.
मैंने उसे अपना पता समझाया तो वो बोली, “कल आ रही हूँ तेरे घर”
मैंने कहा, “ठीक है, ज़रूर आओ.”
रोज शाम को रिहर्सल होती थी. बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था मुझे इस रिहर्सल से. हालांकि ज़्यादातर कलाकारों के उच्चारणों पर राजस्थानी का बहुत भयंकर प्रभाव था, लेकिन थे सब के सब बहुत तजुर्बे वाले, इसलिए उनका स्टेज पर खडा होना, चलना फिरना, फेस एक्सप्रेशन, बहुत सी ऐसी चीज़ें थीं, जो मैं इस रिहर्सल में सीख रहा था.
हमारे डायरेक्टर सूरज सिंह जी का व्यक्तित्व बहुत शानदार था. छः फुट से दो इंच ऊपर का कद, बड़ी बड़ी आँखें, पतली राजकुमार स्टाइल की मूंछें और प्रभावशाली आवाज़. सभी कलाकार उनकी डांट से बहुत घबराते थे. कलाकारों के अलावा भी हर तरफ उनका अच्छा रुआब था. शाम के वक्त वो जब भी खाली होते थे, अक्सर रेलवे स्टेशन के सामने रूपम होटल के नीचे बनी पान की दुकान पर खड़े होकर यार दोस्तों से गप शप किया करते थे.
पान की दुकान, चाय की थड़ी या फिर चौक में बिछे पाटों पर गपशप की महफ़िलें सजाना बीकानेर की तहजीब का एक बहुत अहम हिस्सा रहा है. पान यू पी में भी बहुत चाव से खाया जाता है और बीकानेर में भी. बस पान लगाने और खाने के तरीके दोनों जगह थोड़े मुख्तलिफ हैं. बनारस, इलाहाबाद में पान को छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर, उस पर कत्था चूना अलग अलग रखकर, उसमे एक एक टुकड़ा सुपारी का रखा जाता है और एक जोड़ा पान, लौंग लगाकर पेश किया जाता है. कुछ लोग एक साथ, दो जोड़े पान भी एक बार में मुंह में रखना पसंद करते हैं. साथ में एक प्लेट में थोड़ा चूना, थोड़ी सुपारी और तम्बाकू की कई तरह की पत्तियां सजाकर, ग्राहक के सामने पेश की जाती है और ग्राहक अपनी रूचि के अनुसार सुपारी, तम्बाकू और चूना लेकर ऊपर से खा लेता है.

बीकानेर में पान लगाने और खाने का तरीका थोड़ा अलग है. यहाँ पान का एक बडा पत्ता लिया जाता है, बल्कि अगर पत्ता ज़रा भी छोटा है, तो दो पत्ते लिए जाते हैं. उन पर जी भरकर चूने और कत्थे का लेप किया जाता है, इस क़दर कि कत्था लगाने वाली डंडी पान से होकर पान लगाने वाले की उँगलियों तक की यात्रा कर लेती है. उसपर फिर ग्राहक की पसंद के हिसाब से सुपारी, लौंग, इलायची, किवाम, स्टार, चटनी, 10 तरह के मसाले और तम्बाकू डालकर पानवाला जब ग्राहक के हाथ में पकडाता है, तो दिल करता है, कहा जाए, “शाबाश बीकानेर वालो. इस दुनिया में और कोई नहीं है, जो इस पान को पूरा का पूरा मुंह में डाल सके. ये हिम्मत सिर्फ बीकानेर का वो इंसान ही कर सकता है, जिसने अपने पूर्वजों को भी इसी तरह विशालकाय पान खाते हुए देखकर, बाकायदा पान खाना सीखा है.” मज़े की बात ये है कि इस पान को मुंह में डाल लेने के बाद जो रस मुंह में बनता है, ये पान खाने के चैम्पियन मुंह ऊंचा करके घंटे घंटे भर तक, उस रस को भी सहेजे रहते हैं और आप से बात भी कर लेते हैं.

हमारे सूरज सिंह जी पान के बहुत शौक़ीन नहीं थे, लेकिन पान की दुकान पर खड़े खड़े कभी कभी, मसाले वाला पान खा लिया करते थे. कभी कभार शौकिया तौर पर सिगरेट भी पी लिया करते थे. अब यार दोस्तों के साथ पान की दुकान पर खड़े होकर गपशप करेंगे, तो कुछ बिक्री तो दुकानवाले को भी करवानी ही पड़ेगी. एक रोज उनके एक वाकिफ उनके पास आकर रोने लगे, “ यार सूरज सिंह जी, वो एक वकील है ना गोरा सा, उसने मेरी 20 लोगों के सामने इतनी बेइज्ज़ती की. इतनी बेइज्ज़ती की कि मेरी मिट्टी पलीत हो गयी. क्या करूँ? दिल करता है खुदकशी कर लूं.”
सूरज सिंह जी झट से बोले, “क्यों तुम खुदकशी क्यों करो? ऐसा कुछ करो ना कि वो चुल्लू भर पानी में डूब मरे.”अगले दिन सूरज सिंह जी पहुँच गए रूपम होटल. उनका वो वाकिफ भी दूर एक किनारे खडा हुआ था. सूरज सिंह जी ने आज शानदार झकाझक मक्खन जीन की सफ़ेद पैंट पहन रक्खी थी. सबने उनसे दुआ सलाम की. पान वाले ने उनका पसंदीदा मसाले का पान बना कर दिया. उन्होंने पान खाया. एक तरफ होकर अपनी नयी पैंट पर पीक की पिचकारी छोड़ी और पास में खड़े वकील साहब के गाल पर खींच कर धाड़ से एक तमाचा जड दिया. दो चार गालियाँ ठोकी और बोले,
जिगरी बोला, “ऐसा क्या करूँ, आप ही बताओ.”
सूरजसिंह जी ने दस सेकंड सोचा, फिर बोले, “देख भायला, तेरा बदला तो मैं ले लूंगा, लेकिन मुझसे कोई गळत काम करवाया ना, तो मैं तेरा जीणा हराम कर दूंगा.”
उस वाकिफ की आँखें डबडबा गईं. बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से निकला, “आपकी सौगन (सौगंध) सूरज सिंह जी. मैं सच कह रहा हूँ, कुछ करो, वरना मैं खुदकशी कर लूंगा.”
सूरज सिंह जी ठहरे दयावान इंसान. बोले, “मैं जाणता हूँ उस वकील को. वो रोजीने(रोजाना) पान खाने रूपम होटल आता है. कल शाम को छः बजे तुम आ जाणा वहाँ और तमासा देख लेना.”
“दिखाई नहीं देता क्या? मेरी नयी की नयी पैंट पर पीक थूक दी तुमने!”आस पास के सब लोगों ने कहा, “भई देखकर थूकना चाहिए.” “हाँ हाँ. ये कोई बात हुई कि पान खाया और बिना इधर उधर देखे पिच्च से पीक थूक दी.”
बेचारे वकील साहब ने सवा छः फुट के सूरज सिंह जी से बहस करके और मार खाने की बजाय, वहाँ से चुपचाप खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी. कोई भी उनसे आकर कह देता कि उसके साथ अन्याय हो रहा है, तो वो उसके साथ खड़े हो जाते थे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए. ऐसी फितरत थी उनकी.करीब एक महीना हम लोग रिहर्सल करते रहे. इसके बाद तयशुदा तारीख को हम लोग बस से जोधपुर के लिए रवाना हुए. नाटक में क़रीब 15 एक्टर्स थे जिनमे एक कॉमेडियन कन्हैया सोनी भी था, जो शरीर में अच्छा ख़ासा तगड़ा था लेकिन उसकी लम्बाई तीन फुट से ज्यादा नहीं थी. इनके अलावा कुछ संगीत के कलाकार थे, कुछ मैनेजमेंट देखने वाले लोग थे. पूरी बस भर चुकी थी. जैसे ही बस रवाना हुई, सूरज सिंह जी का आर्डर हुआ, चुपचाप नहीं बैठना है. पहले अपनी अपनी जगह पर बैठे बैठे ही एक बार नाटक की रिहर्सल करेंगे, उसके बाद सब लोग मिलकर गाने गाएंगे. इतने कलाकार इकट्ठे हो जाएँ, तो वैसे भी चुप तो क्या रहेंगे भला? नागौर से थोड़ा आगे पहुंचे, तो बस रोकी गयी. आगे ही आगे तीन फुट का कॉमेडियन कन्हैया उतरा. जैसे ही वो नीचे उतरा, एक लड़का जोर से चिल्लाया, “अरे देखो रे देखो. कित्तो छोटो आदमी.” कन्हैया के ठीक पीछे ही सूरज सिंह जी थे. उन्होंने बस से उतरते हुए एक ज़ोरदार राक्षसी ठहाका लगाया और चिल्लाये, “हा हा हा. लै अबै देख कित्तो बड्डो आदमी!”
सूरज सिंह जी की आवाज़ और उनके चेहरे के भाव देखकर उन सारे बच्चों के होश उड़ गए. और सब के सब भाग खड़े हुए.
सुबह सुबह तीन बजे हम लोग जोधपुर पहुँच गए. बस स्टेशन के पास ही बनी हुई जसवंत सराय के सामने रुकी. सब लोग उतर कर उसमें घुस गए. सूरज सिंह जी वहाँ के इंतज़ाम करने वालों के साथ मिलकर हमें रुकवाने का इंतजाम करने लगे. थोड़ी देर में सब लोगों के रुकने का इंतज़ाम हो गया और दो दो लोगों को एक एक कमरा दे दिया गया. सब लोग अपने अपने बिस्तर में घुसकर सो गए. अगला दिन आराम का दिन था. बस थोड़ी रिहर्सल करनी थी और आराम करना था. उससे अगले दिन शो होने वाला था. सभी लोग देर तक सोते रहे. ज़हूर साहब ने, जो सूरज सिंह जी के दोस्त भी थे और उनके ग्रुप के मेनेजर भी थे, सबको जगाया और कहा कि सब लोग तैयार हो जाएँ. खाना खाया जायेगा और उसके बाद रिहर्सल होगी. सब लोग नहा धो कर तैयार हो गए. सूरज सिंह जी ने कहा, एक बार रिहर्सल होगी, थोड़ी देर आराम किया जायेगा फिर शाम का खाना होगा और उसके बाद एक बार और रिहर्सल. मेरे जैसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, जब चाहें रिहर्सल कर लें, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें फर्क पड़नेवाला था.

हम लोगों ने एक रिहर्सल की और अपने अपने कमरे में चले गए. थोड़ा आराम किया, तब तक शाम हो गयी थी. थोड़ी देर में देखा कि कुछ हंगामा हो रहा है और सबके मुंह पर एक ही बात थी. अरे कहीं सूरज सिंह जी को पता न लग जाए. मुझे समझ नहीं आया कि आखिर बात क्या है? मैं हंगामे वाली दिशा में गया. देखा एक कमरे में हमारे साथी कलाकार प्रदीप जी लेटे हुए हैं और उनके आस-पास सारे लोग बैठे हुए हैं. प्रदीप जी के चेहरे पर बहुत घबराहट के भाव हैं, वो काँप रहे हैं और कह रहे हैं. हे हे हे. ये मैं ऊपर जा रहा हूँ. हे ये छत तक जा पहुंचा. अरे अरे अरे. अब नीचे गिर रहा हूँ. मुझे पकड़ो, मुझे पकड़ो. बैद जी, मैं गिर रहा हूँ. उनके पास वेद प्रकाश मिश्रा जी सर पर हाथ रखे हुए बैठे थे. एक मिनट बाद ही फिर प्रदीप जी कहने लगते, बैद जी मैं ऊपर जा रहा हूँ. ऊपर जा रहा हूँ. वो गया वो गया. अरे गिर रहा हूँ नीचे. बैद जी पकड़ो ना मुझे. वेद प्रकाश जी घबराए हुए भरे गले से बोले “अरे प्रदीप जी. के कर रिया हो. जे सूरज सिंह जी ने ठा पड़गी तो कच्चो ई खा जावेगा मन्नै. (अरे प्रदीप जी क्या कर रहे हो? अगर सूरज सिंह जी को पता चल गया तो वो कच्चा चबा जायेंगे मुझे ). मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मामला क्या है? मैंने बाकी लोगों से पूछा कि माजरा क्या है? लेकिन सब चुप.
आखिर पुस्बा ने मुझे एक तरफ ले जाकर बताया कि वेद प्रकाश जी शाम को अपनी आदत के अनुसार भांग खाने निकले, तो प्रदीप जी भी वहीं थे. वेद प्रकाश जी ने कहा “प्रदीप जी गोळी लेस्यो के छोटी सी ?”(प्रदीप जी, भांग की छोटी सी गोली लेंगे क्या?) प्रदीप जी को वो एक तरह का चैलेन्ज लगा. उन्होंने कह दिया, हाँ चलिए. लेकिन उन्होंने व्हिस्की तो पी रखी थी, भांग नहीं. उन्हें नहीं पता था कि भांग का असर फ़ौरन नहीं होता , थोड़ी देर बाद होता है. अब एक छोटी सी गोली उन्होंने ली, कुछ पता नहीं लगा, कोई असर महसूस नहीं हुआ तो उन्होंने एक और गोली ले ली. थोड़ी ही देर में भांग ने अपना असर दिखाना शुरू किया और अब उनकी ये हालत हो रही थी.इधर वेद प्रकाश जी घबरा रहे थे कि अगर सूरज सिंह जी को पता चल गया तो उनकी हालत खराब कर देंगे. ऐसे में पुस्बा भागी भागी गयी, पता नहीं कहाँ से तीन चार नीम्बू लेकर आयी और वो सारे नीम्बू प्रदीप जी के हलक में निचोड़ दिए. थोड़ी देर में नीम्बुओं ने अपना असर दिखाया और प्रदीप जी थोड़े नॉर्मल हो गए. तभी सूरज सिंह जी का रिहर्सल के लिए बुलावा आ गया. हम सब लोग रिहर्सल के लिए उनके कमरे में इकट्ठे हो गए. सूरज सिंह जी के अलावा सबको मालूम था कि प्रदीप के साथ क्या बीती है. सब यही कोशिश कर रहे थे कि प्रदीप जी की पोल न खुले वरना प्रदीप जी और बैद जी दोनों की शामत आने वाली थी. जहां कहीं भी प्रदीप जी डायलॉग में कुछ गडबड करते, हर कलाकार उनकी मदद करने के लिए दौडता. इधर प्रदीप जी के गडबड करते ही, उनसे ज़्यादा बैद जी की हालत खराब हो जाती. किसी तरह रिहर्सल पूरी हुई , सबने चैन की सांस ली और अपने अपने कमरे में जाकर सो गए.

अगले दिन नाटक बहुत हिट रहा और सबसे ज़्यादा तालियाँ बटोरी, प्रदीप जी ने. उनकी एक्टिंग की इतनी तारीफ़ हुई कि वो खुद हक्के बक्के रह गए. सारे अखबारों ने प्रदीप जी की तस्वीरें छापी थीं और उन्हें न जाने कौन कौन सी पदवियों से नवाज़ दिया था. हम सब लोग खुश थे कि सूरज सिंह जी को पता भी नहीं चला और प्रदीप जी की इतनी तारीफ़ हो गयी. अगले दिन सुबह जब हम लोग वापस बीकानेर के लिये रवाना हुए तो रास्ते में सूरज सिंह जी पता नहीं कहाँ से हरे रंग का भांग जैसा दिखाई देने वाला एक गोला लेकर आये और वेद प्रकाश जी और प्रदीप जी के सामने रख दिया. वो दोनों हैरान. कुछ नहीं बोल पाए. अब सूरज सिंह जी बोले. लो ये भांग का गोला है, दोनों मिलकर खा लो, अब तो ड्रामा भी नहीं करना है. अब हमें पता चला कि सूरज सिंह जी को सब कुछ पता था, लेकिन वो ड्रामा वाले दिन कुछ नहीं बोले थे. प्रदीप जी ने कसम खाई कि अब ड्रामा के लिए जायेंगे, तो इस तरह के एक्सपेरिमेंट हरगिज़ नहीं करेंगे. वेद प्रकाश जी बेचारे क्या बोलते? वो तो रोज विजया(भांग) का सेवन करने वालों में से थे. इस तरह जोधपुर का हमारा वो दौरा पूरा हुआ.
सूरज सिंह जी के साथ और भी कई नाटक मैंने किये. कॉलेज में था तब भी उन्हें डायरेक्टर के तौर पर कॉलेज में बुलाया और उनका एक बहुत ही मशहूर ड्रामा 'मोटी आवाज़' किया जिसमे मेरे कॉलेज के दोस्त लोग प्रमोद खन्ना, विभा गुप्ता, सरोज शर्मा वगैरह मेरे साथ थे. उन दिनों बीकानेर में कई ड्रामा ग्रुप्स थे. हर ग्रुप के अपने अपने कलाकार थे जिन्हें लेकर सब ग्रुप्स नाटक किया करते थे, लेकिन मैं, प्रदीप भटनागर, एस डी चौहान, हनुमान पारीक और पुष्पा जैन ऐसे कलाकार थे, जो किसी एक ग्रुप से बंधे हुए नहीं थे. किसी खास तरह के रोल के लिए या वैसे भी ज़रूरत पड़ने पर, हमें किसी भी ग्रुप के लोग बुला लेते थे और हम किसी भी कला ग्रुप के साथ काम कर लिया करते थे.
अब बात पुष्पा जैन और सूरज सिंह जी की चल पडी है, तो उनकी ही बात करता हूँ. रेडियो में आने के बाद सूरज सिंह जी के साथ नाटक करना बहुत कम हो गया था. कभी कभार उनसे मिलन होटल पर मुलाक़ात हो जाया करती थी. बहुत खुश हो कर मिला करते थे. इधर चूंकि रेडियो की मसरूफियात की वजह से स्टेज बहुत कम हो गया था, पुष्पा से भी मुलाक़ातें नहीं के बराबर हो गयी थी. एक रोज के ई एम् रोड पर से गुजर रहा था कि एक अम्बेसडर कार मेरे सामने आ कर रुकी. मैं गौर से देखने लगा. सफ़ेद वर्दी पहने ड्राइवर ने फुर्ती से उतरकर पीछे का दरवाजा खोला और लकदक गहने पहने एक लेडी, कार की पिछली सीट से मुस्कुराती हुई उतरी, उतरकर मेरे सामने आ खडी हुई. मैंने और गौर से देखा. अरे ये तो पुष्पा जैन है. मैंने कहा, “अरे पुष्पा? भई वाह क्या ठाट है? क्या है ये सब?” वो मेरे और करीब आई और बोली, “हाँ महेंदर, मैं पुस्बा ही हूँ.”
मैंने कहा, “लेकिन ये सब क्या है? ये कार, ये गहने.”उसका चेहरा एकदम तमतमा गया और वो और भी जोर से चिल्ला पडी, “नहीं मैंने मंत्री जी से शादी नहीं की है, उनके नब्बे साल के पिताजी से शादी की है, तू देख रहा है ना. कितना सोना है मेरे बदन पर? और मैं कितनी खुश हूँ?”
वो बोली, “महेंदर मैंने शादी कर ली है.”
मुझे लगा, इसमें तो कोई बुराई नहीं. मैंने कहा, “ये तो बहुत अच्छी बात है. हमें भी बुलाना चाहिए था, अपनी शादी में. खैर कहाँ की तूने शादी?”
वो ज़रा अजीब सी हंसी हंसकर बोली, “राजस्थान के एक मंत्री जी हैं.”
मैंने हँसते हुए कहा, “अच्छा तो मंत्री जी से शादी की है, ये तो बहुत अच्छी बात है, कोई काम अटकेगा तो काम तो आयेगी तू.”
वो चिल्ला पडी “चुप कर तू.”
मैंने कहा, “क्या हुआ पुष्पा? अगर तूने किसी मंत्री से शादी कर ली है, तो इसमें परेशान होने की क्या बात है?”
और ये कहते कहते वो रो पडी. मेरी कुछ समझ नहीं आया कि मैं उसे ढाढस बँधाऊँ या उसके साथ रोने लगूं. मैंने सिर्फ इतना ही कहा, “पुष्पा, इसी का नाम ज़िंदगी है.” उसने एक क़दम आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया और बोली, “महेंदर पुस्बा मर गयी. हाँ यही समझ लेना कि पुस्बा मर गयी.” और मरे मरे क़दमों से चलते हुए, भरी आँखें लिए, वो कार में जाकर बैठ गयी. मैं वहीं खडा उस कार को दूर तक जाते हुए देखता रहा. मुझे सचमुच लगा. वो पुस्बा मेरे लिए मर गयी. अब ज़िंदगी में शायद उसकी शक्ल कभी नहीं देख पाऊंगा.
लेकिन... ज़िंदगी तो आखिर ज़िंदगी है. वो कब कहाँ किससे मिलवा देगी और किस से बिछोह करवा देगी, कुछ पता नहीं लगता. अभी दो साल पहले की बात है, मैं मुम्बई से ट्रेन से आया था. स्टेशन पर उतरा तो ललित जी मुझे लेने आये थे. जैसे ही स्टेशन पर बने पुल की सीढियां चढ़ा, तो देखा एकदम सन जैसे सफ़ेद बालों वाली एक बूढ़ी सी औरत सामने खडी कान पर फोन लगाए किसी से बातें कर रही है. मैंने गौर से देखा. अरे, ये तो पुष्पा है, पुष्पा जैन. मैं एक पल को उसके पास रुक गया. ललित जी मुझसे आगे थे. वो भी एक पल को ठिठके. मैंने कहा, “पुष्पा, मैं महेंदर.” उसने बिलकुल अनजान निगाहों से मुझे देखा और फोन पर बात करते हुए, दूसरी तरफ देखने लगी. शायद वो भी किसी को स्टेशन लेने आयी थी और उसकी निगाहें उस चेहरे को ढूंढ रही थी. या शायद उसने मुझे नहीं पहचाना था. ललित जी आगे रुके हुए थे, मैं भी कुछ सेकंड रुककर उनकी तरफ बढ़ गया. क्या मतलब था उस औरत को वापस 45 साल पीछे घसीटकर ले जाने का जिसने खुद कह दिया था,
“महेंदर, पुस्बा मर गयी.”बीकानेर से मेरा ताल्लुक तो जन्म जन्म का है. मैं नहीं जानता कि कब वो बरसों पहले मेरे लिए मर चुकी पुस्बा, फिर से मेरे सामने आ खड़ी हो, लेकिन दुआ करता हूँ, वो लड़की जिसने कुछ सुखों की चाह में, अपने से तीन गुना से भी ज़्यादा उम्र के इंसान से शादी की थी, कम से कम उसे वो सुख तो ताउम्र मिलते रहें.

प्रतीकात्मक तस्वीर.
इधर सूरज सिंह जी से बरसों से मुलाक़ात नहीं हुई थी. जब भी बीकानेर आता, तो उनसे मिलने की सोचता, लेकिन उनका घर प्रकाश चित्र के पीछे की तरफ है, जहां कार नहीं जा सकती, इसलिए हर बार बस सोचकर रह जाता. जुलाई 2014 में भाई साहब की तबियत काफी खराब थी, तो मैं बीकानेर आया. जाने क्यों इस बार मुझे सूरज सिंह जी की बहुत याद आयी और मैंने तय किया, मैं उनसे मिलूँगा, चाहे मुझे पैदल ही क्यों न चलना पड़े. एक दिन मैंने कार रतन बिहारी जी के बाग में खड़ी की और पैदल चल पड़ा, प्रकाश चित्र की तरफ. पिछले तीस बरस में काफी कुछ बदल गया था. ढूंढते ढूंढते मैंने सूरज सिंह जी का घर ढूंढ ही लिया.
जैसे ही घंटी बजाई, भाभी जी ने दरवाज़ा खोला. उन्होंने मुझे नहीं पहचाना. मैंने नीचे झुक कर उनके पैर छुए तो बोलीं, “खुश रहो. लेकिन भैया मैंने आपको पहचाना नहीं.” मैं कुछ बोलूँ, उससे पहले ही उनके पीछे से सूरज सिंह जी नमूदार हुए और बोले, “क्या है ये? तू किसी को पहचानती ही नहीं." और फिर मेरी तरफ मुखातिब होते हुए बोले, “आओ आओ नाहटा जी अंदर आ जाओ, ये तो किसी को पहचानती ही नहीं.” मैंने पैर छुए और हंसकर बोला, "वाह भाई साहब आप भी मुझे नाहटा जी पुकार रहे हैं, यानी आपने भी मुझे नहीं पहचाना?”
मेरी आवाज़ सुनते ही वो एकदम से चौंक पड़े, “अरे भायला महेंदर, तू? अरे कित्ते दिन से तुझे याद कर रहा हूँ रे.” और उनकी आँखें भर आईं. उन्होंने मुझे गले से लगा लिया. बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो पिछले तीस पैंतीस बरस की अनगिनत बातें, हम दोनों एक दूसरे को सुनाने लगे. न जाने पूरा दिन कहाँ गुजर गया. बहू और बेटी की मौत के सदमों को झेलकर, वो पत्थर जैसा मज़बूत इंसान बहुत कमज़ोर हो गया था. उन्होंने अपनी कुछ किताबें मुझे दीं और कहा, “देखणा यार अगर इन पर कुछ काम किया जा सके तो. मेरी ज़रूरत समझो तो जब बुलाओगे, मैं मुम्बई आ जाऊंगा.”
मैं वो किताबें लेकर घर आ गया. कुछ ही दिन बाद मुम्बई लौट आया.
मुम्बई आये बमुश्किल पन्द्रह दिन हुए थे कि प्रदीप जी ने, जोकि मेरे ताऊजी के लड़के रतन के साथ रोज शाम को घूमने जाते हैं, फोन पर बताया कि सूरज सिंह जी नहीं रहे. मेरा एक डायरेक्टर जिस से मैंने नाटक के कई पाठ पढ़े थे, इस दुनिया-ए-फानी को छोड़कर चला गया था. प्रदीप जी ने बताया कि कुछ ही दिन पहले एक दोस्त फोटोग्राफर ने कहा, “ आइये सूरज सिंह जी आपके कुछ फोटो खींचते हैं.”
कुछ और दोस्त लोग भी साथ थे. वो एक दोस्त से बोले, “यार एक काम करो. एक माळा लेकर आओ, वो पहन कर फोटो खिंचवाऊंगा.”और उन्होंने माला पहनकर फोटो खिंचवा ली. दो दिन बाद ही बीकानेर के अखबारों के पहले पन्ने पर छपा था. “बीकानेर के मशहूर रंगकर्मी श्री सूरज सिंह पंवार नहीं रहे.”
किसी ने कहा, “नहीं नहीं माला पहन कर क्यों फोटो खिंचवाएंगे आप?”
तो वो बोले, “अरे भायला इत्ती उम्र हो गयी, क्या पता कब बुलावा आ जाए, माळा पहनकर फोटो खिंचवाई होगी और दो दिन बाद ही मैं गुड़क (लुढक) जाऊं, तो आप लोगों को फोटो को माळा पहराणे की ज़रूरत नईं पड़ेगी.”
रेडियो ज़ुबानी की पिछली किस्तें:
जब एक पाकिस्तानी जासूस के लिए हिंदुस्तानी जनता ने ज़िंदाबाद के नारे लगाए
जब 1971 के भारत-पाक युद्ध की आंच राजस्थान तक जा पहुंची
बीकानेर का डूंगर कॉलेज और करणी सिंह बॉस का आतंक
कहानी अमरू की, जो बेटियों की शादी से हासिल रकम से ज़िंदगी चलाता था
'जब पूरा पेज पढ़कर हटा, तो मेरा चेहरा आंसुओं में डूबा हुआ था'
वीडियो: यहां का नवाब पाकिस्तान भाग गया, जो रह गया उसका हाल ये है