शिमला से करीब 198 किलोमीटर दूर मंडी जिले में एक गांव है, टांडी. दिसंबर की 23वीं तारीख जेठाराम ठाकुर के परिवार के लिए बेचैनी भरी थी. परिवार का हर आदमी टीवी पर नजर जमाकर बैठा हुआ था. लगभग यही हाल गांव के दूसरे लोगों का था. शाम ढलते-ढलते तमाम टीवी चैनलों पर सूत्रों के हवाले से जेपी नड्डा को हिमाचल का नया मुख्यमंत्री बनाए जाने की खबर चलने लगी. मायूसी के साथ इस परिवार ने टेलीविजन बंद कर दिया और सोने चले गए.
जयराम ठाकुर: एक किसान के बेटे का मुख्यमंत्री बनना
हिमाचल में धूमल के अवसान और एक नए नेता के उभरने की कहानी.

इधर शिमला के सियासी गलियारे जाग रहे थे. यहां पहलकदमी काफी तेज थी. कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे. पहला कयास यह कि क्या मुख्यमंत्री के चेहरे धूमल को साजिशन हराया गया?
क्या धूमल को साजिशन हराया गया
प्रेम कुमार धूमल ने विधानसभा का चुनाव पहली बार 1998 में हमीरपुर की बमसन विधानसभा से लड़ा था. इस सीट से वो 2007 तक चुनाव जीतते रहे. 2007 में परिसीमन के बाद यह सीट खत्म कर दी गई. तो 2012 के चुनाव में उन्हें मजबूरन सीट बदलनी पड़ी. वो बमसन छोड़कर हमीरपुर सदर की सीट पर चले गए. 2017 के चुनाव में हमीरपुर सदर से बीजेपी का टिकट नरिंदर ठाकुर के खाते में गया. उसी समय यह कयास लगाए जाने लगे कि बीजेपी आलाकमान ने धूमल के राजनीतिक करियर के अंत की इबारत रख दी है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा और प्रेम कुमार धूमल: दूर-दूर ही सही.
यहां दो चीजें समझनी जरुरी है. पहली कि 2012 में नई बनी सुजानपुर सीट का बड़ा हिस्सा बमसन विधानसभा से आता है. बमसन के 92 में से 47 बूथ सुजानपुर के हिस्से आए, 35 भोरंज में गए, बाकी हमीरपुर में गए. ऐसे में धूमल एकदम नए मैदान में लड़ाई नहीं लड़ रहे थे. दूसरा, हमीरपुर उनका गृह जिला है. उनके बेटे वहां से सांसद हैं. ऐसे में इस जिले में धूमल की पकड़ स्वाभाविक तौर पर मजबूत मानी जाती है.
तो आखिरकार हिमाचल में बीजेपी का सबसे कद्दावर नेता अपने ही घरेलू मैदान में कैसे खेत रहा? कारण बहुत बुनियादी हैं. हिमाचल में घर-घर जाकर प्रचार करने की रवायत आज भी ज़िंदा है. धूमल इसी जगह मात खा गए. उनके खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे राजेंद्र राणा किसी दौर में उनके सबसे करीबी लोगों में से एक थे. वो 2012 में यहां से धूमल के आशीर्वाद से ही निर्दलीय विधायक चुने गए थे. वो लगातार इस क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि धूमल अपने ही अखाड़े में अपने चेले के हाथों चित्त हो गए.
जे.पी. नड्डा दौड़ में थे भी?
1 नवंबर, 2017 को अमित शाह हमीरपुर में रैली को संबोधित कर रहे थे. चुनाव होने में महज 8 दिन बाकी थे. मंच पर उनके बगलगीर थे प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर. अमित शाह ने मंच पर खड़े होकर कहा,
"बाकी जगहों पर मैं प्रचार करने जा सकता हूं. वहां के कार्यकर्ताओं को कह सकता हूं कि भाई जोर लगाकर लड़ना. हमीरपुर में तो मुझे यहां के कार्यकर्ताओं से गारंटी चाहिए कि वो धूमल जी मुख्यमंत्री बनाने के लिए पूरे दम-खम से लड़ेंगे."
मंच पर खड़े अमित शाह के पीछे एक बड़ी सी घड़ी टंगी हुई थी. घड़ी की सुई का बयान है कि उस समय 4 बजकर 10 मिनट हो रहे थे. यही वो मौक़ा था जब जगत प्रकाश नड्डा मुख्यमंत्री की रेस से बाहर हो गए. नड्डा फिलहाल राज्यसभा से सांसद हैं और स्वास्थ्य मंत्री हैं. 2007 में विलासपुर विधानसभा से विधायक चुने गए थे और धूमल सरकार में मंत्री भी थे.

जय प्रकाश नड्डा काफी पहले ही रेस से बाहर हो चुके थे.
2012 में नड्डा केंद्र की राजनीति की तरफ बढ़ गए थे. उन्हें हिमाचल से राज्यसभा भेज दिया गया. पिछले डेढ़ साल से जेपी नड्डा फिर से हिमाचल की राजनीति में सक्रिय हुए थे. हालांकि स्थानीय संगठन पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत नहीं थी कि वो धूमल के वर्चस्व को तोड़ पाते. जब धूमल सुजानपुर से 1919 वोट से चुनाव हार गए तब एक बार उनका नाम फिर से उछला लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.
अपने ही दांव में घिरे धूमल
कहते हैं कि जब बीजेपी के अंदर नए मुख्यमंत्री के चेहरे पर बहस छिड़ी हुई थी तब धूमल ने एक तर्क को ढाल की तरह इस्तेमाल किया था. यह तर्क था कि विधायक दल का नेता जनता का चुनकर आया हुआ प्रतिनिधि होना चाहिए. धूमल अपने इस तर्क से नड्डा को किनारे लगा रहे थे. नतीजों को बाद यही तर्क उनके खिलाफ गया.
चुनाव नतीजों के बाद बीजेपी के आला-कमान ने निर्मला सीतारमण और नरेंद्र तोमर को शिमला भेजा. इन दोनों नेताओं पर जिम्मेदारी थी कि वो नए मुख्यमंत्री की ताजपोशी बिना किसी रक्तपात के करवा दें. जब ये दोनों नेता शिमला पहुंचे तो धूमल के समर्थकों ने जमकर नारेबाजी की. नतीजे आने के बाद हिमाचल के तीन बीजेपी विधायक धूमल के लिए अपनी सीट छोड़ने का ऐलान कर चुके थे. धूमल समर्थक बीजेपी के भीतर दबाव बना रहे थे.

क्या सुजानपुर की हार धूमल के राजनीतिक करियर का अंत साबित होगी?
बीजेपी आलाकमान चुनाव से पहले ही हिमाचल में नया नेतृत्व चाहती थी. ऐसे में सुजानपुर के नतीजों ने इसके लिए जरुरी बहाना दे दिया. धूमल को उन्हीं के तर्क से शांत किया गया. वो चुनाव हार चुके थे और ऐसे में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं दी जा सकती थी. नतीजतन 23 तारीख को बयान जारी करके कहना पड़ा कि वो मुख्यमंत्री पद की रेस में नहीं हैं.
कैसे चुने गए जयराम ठाकुर?
24 तारीख की सुबह मंडी के गांव टांडी में बीरी सिंह ठाकुर के पास फोन गया. दूसरी तरफ थे जयराम ठाकुर. बीरी सिंह उनके सगे भाई हैं. जयराम ने बीरी को बताया कि वो हिमाचल के अगले सीएम बनने जा रहे हैं. इस मौके पर वो अपनी मां से बात कर रहे हैं. आधे घंटे में टांडी का माहौल बदल गया. पूरा गांव खुशी के मारे फट पड़ा था. यह जयराम ठाकुर का पैतृक गांव है.

जयराम ठाकर ने अपनी पढ़ाई के लिए पैसे खुद जुटाए थे.
जयराम ठाकुर संघ की नर्सरी से निकले आदमी हैं. उनकी छवि गंभीर किस्म के नेता की है. सार्वजनिक मंचों पर भी बहुत तोल-मोल कर बोलते हैं. अनुभव के आधार पर भी वो बीजेपी के नए विधायक दल में महेंद्र सिंह ठाकुर के बाद सबसे अनुभवी नेता हैं. महेंद्र सिंह ठाकुर सात बार विधायक रह चुके हैं. वो अलग-अलग दलों से होते हुए दस साल पहले ही बीजेपी में आए थे. ऐसे में संघ की पृष्ठभूमि वाले जयराम ठाकुर पर भरोसा जताया जाना स्वाभाविक है. हालांकि उनके चुनाव पर कुछ बगावत हुई जरुर थी लेकिन यह इतनी कमजोर थी कि इसे अनसुना कर दिया गया.
जयराम मंडी जिले से आते हैं. उन्हें विधानसभा चुनाव में इस जिले की जिम्मेदारी दी गई थी. बीजेपी ने मंडी की दस में 9 सीटों पर परचम लहराया. यह बात जयराम ठाकुर के पक्ष में गई.
बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से आया नेता
जयराम ठाकुर के पास कोई सियासी विरासत नहीं है. वजीर के खाने में बैठने का सफ़र उन्होंने प्यादे के खाने से शुरू किया था. वो किसान परिवार से आते हैं. मंडी जिले के छोटे से गांव टांडी में उनका जन्म 6 जनवरी 1965 को हुआ. उनके पिता जेठाराम ठाकुर किसान थे. वो रिजक चलाने के लिए मिस्त्री का भी काम कर लिया करते थे.

चुनाव प्रचार के दौरान जयराम ठाकुर
जयराम की शुरुआती पढ़ाई बगसीआद के सरकारी स्कूल से हुई. यहां से 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद दो साल तक उनकी पढ़ाई रुकी रही. जयराम के पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो उन्हें कॉलेज भेज सकें. ऐसे में वो पिता के साथ खेत में काम करते, उसके बाद छोटी-मोटी मजदूरी के लिए निकल जाते. दो साल की मेहनत के बाद उन्होंने अपने कॉलेज के लिए फीस जुटाई और मंडी के वल्लभ कॉलेज पढ़ाई के लिए चले गए. इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में जयराम याद करते हैं-
"मेरा बचपन गांव के दूसरे बच्चों की तरह रहा था. मेरे माता-पिता खेतों में काम किया करते थे. पिता की कमाई बहुत कम थी और हम भाई-बहनों के लिए जिंदगी में एेशो-आराम जैसी कोई चीज नहीं थी.
12वीं की पढ़ाई के बाद मैंने महसूस किया कि मेरे पिता मेरी आगे की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते हैं. इसलिए मैंने उन पर आगे पढ़ाने के लिए दबाव भी नहीं बनाया. मैं अगले दो साल अपने मां-बाप के साथ काम करता रहा और अपनी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाता रहा."
वल्लभ कॉलेज में उनका साबका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से पड़ा. 1984 में जिंदगी में पहली बार कोई चुनाव लड़ रहे थे. उन्हें कॉलेज के पहले ही साल में क्लास रिप्रजेंटेटिव चुना गया. यह उनका सियासी अन्नप्राशन था. इसके बाद वो संघ और विद्यार्थी परिषद के रंग में इतने रंग गए कि संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए. साल था 1990 का. उन्हें विद्यार्थी परिषद का काम देखने के लिए जम्मू भेजा गया. यह राम मंदिर का दौर था. जयराम इस राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय हो गए.

मंडी का वल्लभ कॉलेज, जहां जयराम का साबका आरएसएस के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद से पड़ा
1992 के अंत में वो फिर से घर लौटकर आए. 1993 में उन्हें हिमाचल प्रदेश बीजेपी युवा मोर्चा का सचिव बनाया गया. युवा मोर्चा के कोटे से ही उन्हें 1993 के विधानसभा का टिकट मिला. घरवालों के विरोध के बावजूद वो चच्योट विधानसभा से चुनाव लड़ गए. उम्र थी महज 28 साल. इस चुनाव में वो बुरी तरह से खेत रहे. 1998 में वो फिर से इसी सीट से चुनाव में उतरे. सामने थे कांग्रेस के मोतीराम. यह चुनाव में उन्होंने 1800 के मार्जिन से जीता.
सन 2000 से 2003 के बीच वो मंडी जिले के बीजेपी अध्यक्ष रहे. 2003 में उन्हें प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया. 2006 में वो प्रदेश अध्यक्ष बना दिए गए. 2007 में विधानसभा चुनाव थे और संगठन की कमान जयराम ठाकुर के हाथ में थी. उस समय हिमाचल में साफ़ तौर पर दो फाड़ थे. पहले धड़े का नेतृत्व शांताकुमार कर रहे थे और दूसरे की कमान धूमल के पास थी. ऐसे में संगठन को चलाना किसी चुनौती से कम न था. जयराम ठाकुर ने यह बखूबी करके दिखाया.
2007 के चुनाव में 68 में से 41 सीट बीजेपी के खाते में गई और धूमल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे. धूमल सरकार में जयराम ठाकुर को पंचायती राज मंत्री बनाया गया.
जयपुर के जंवाई
जयराम की पत्नी डॉ. साधना ठाकुर कन्नड़ मूल की हैं. उनके पिता श्रीनाथ राव आरएसएस से जुड़े हुए थे. वो 1974 के साल में जयपुर आ गए थे और यहां खजाने वालों का रास्ता में अपना व्यवसाय शुरू किया. साधना का बचपन यहीं बीता. फिलहाल उनका परिवार जयपुर के खातीपुरा इलाके में रहता है. साधना ने जयपुर के ही सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की है. वो 1992 में राजस्थान में विद्यार्थी परिषद की प्रचारक हुआ करती थीं. जम्मू में संगठन के एक सम्मलेन में उनकी मुलाकात जयराम ठाकुर से हुई. यहां दोनों में दोस्ती हुई जो बाद में प्यार में बदल गई.

अपनी पत्नी डॉक्टर साधना के साथ जयराम ठाकुर
1993 का चुनाव हारने के बाद जयराम ठाकुर आर्थिक संकट का दौर देख रहे थे. ऐसे दौर में साधना ने उनका साथ दिया और बड़े साधारण तरीके से दोनों ने शादी कर ली. साधना जयराम के साथ हिमाचल में ही बस गई. यहां उन्होंने मेडिकल प्रेक्टिस की बजाए संघ के काम में खुद को जुटाए रखा. वो संघ के तमाम अनुषांगिक संगठनों के मेडिकल कैंप में देखी जा सकती हैं.
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