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जानवर के अंगों को इंसानों में लगाना कितना मुश्किल? ट्रांसप्लांट के बाद हुई मौतों पर क्या बोले एक्सपर्ट?

दूसरे जानवरों से इंसानों में अंगों के ट्रांसप्लांट का दौर पुराना है. वहीं फ्रेंच सर्जन वोरोनॉफ 1920 के दशक में एक अजीब वकालत करते नजर आते थे. उनका कहना था कि बंदरों के अंडकोष के ऊतकों को इंसानों में ट्रांसप्लांट करने से, उम्र बढ़ाई जा सकती है. इसके इतर अब किए जा रहे अंगों के ट्रांसप्लांट कैसे हो पाए?

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बताया जा रहा है मरीज की मौत ट्रांसप्लांट के अलावा दूसरी वजहों से हुई है. (Massachusetts General Hospital)

हाल ही में खबर आई थी कि अपनी तरह के पहले मामले में, एक इंसान को सूअर या पिग की किडनी लगाई गई (Pig kidney transplant). किसी दूसरे जानवर से इंसानों में अंगों के ट्रांसप्लांट को ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन (Xenotransplantation) कहा जाता है. अब खबर है कि ट्रांसप्लांट के करीब दो महीने बाद, ट्रांसप्लांट के अलावा दूसरी वजहों से शख्स की मौत हो गई. पहले भी दो इंसानों में सूअर का दिल ट्रांसप्लांट (Pig Heart transplant) किए जाने के मामलों में नतीजे उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे. ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि वो मरीज थे जो गंभीर रूप से बीमार थे. इन्हें अंगों की सख्त जरूरत थी. बंदरों में ऐसे ट्रांसप्लांट ज्यादा सफल देखे गए हैं. ऐसे में समझते हैं कि इन ट्रांसप्लांट्स से जुड़े डॉक्टर इस बारे में क्या बता रहे हैं. इंसानोें में ज़ीनोट्रांसप्लांट से अब तक क्या कुछ समझा गया है.

20वीं सदी से चल रही है कोशिश

द हिंदू की खबर के मुताबिक देश में कम से कम 20 लोग, हर रोज ट्रांसप्लांट के लिए अंगों के इंतजार में अपनी जान गंवा देते हैं, जिसकी वेटिंग लिस्ट करीब 3 लाख मरीजों की है. स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में अंग दान करने वाले लोगों की संख्या महज 6,916 थी, जो 2022 तक सिर्फ 16,041 पहुंच पाई. 

ऐसे में ट्रांसप्लांट के लिए अंगों की कमी लाजमी है. ये कमी सिर्फ हमारे देश में नहीं है. न ही आज से है. ऐसे में वैज्ञानिक इंसानों के अलावा, दूसरे जानवरों के अंगों का ट्रांसप्लांट करने के बारे में 20वीं सदी से कोशिश करते आ रहे हैं. शुरुआत में दूसरे जानवरों की त्वचा इंसानों में लगाने की कोशिश की गई.

फिर एक दौर आया, जब 1920 में फ्रेंच सर्जन वोरोनॉफ ने बंदरों के अंडकोष के ऊतक (Tissues) इंसानों में लगाने की वकालत की. उनका कहना था कि इससे निकलने वाले हार्मोन्स से जवानी फिर से वापस आ सकती है. खैर, ये तो विवादित मामला था. इसके बाद 60 के दशक में चिंपैंजी की किडनी इंसानों में लगाने की कोशिश की गई.

डॉक्टर्स ने चिंपैंजी के दिल को भी इंसानों में ट्रांसप्लांट करना चाहा. लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई. फिर वोरोनॉफ के विवादित बयानों से करीब 100 साल बाद, 2022 में 57 साल के डेविड बेनेट को सूअर का दिल ट्रांसप्लांट किया गया. एक सवाल मन में आता है कि सूअर के अंगों की तरफ वैज्ञानिकों ने रुख क्यों किया?

एक्सपर्ट्स के मुताबिक सूअर बाकी जानवरों से बेहतर डोनर माने जाते हैं क्योंकि 

  • ये काफी संख्या में मिल सकते हैं.
  • इनके अंगों का आकार इंसानों जैसा ही होता है. 
  • इनसे बीमारियों के आने का खतरा कम होता है.
100 सालों में क्या दिक्कतें आईं? 

वैसे तो अंगों के लिए सही डोनर ढूंढना मुश्किल है ही. लेकिन किसी दूसरी प्रजाति के अंगों को इंसानों में लगाने के साथ और भी समस्या हैं. एक तो है हमारा खुद का इम्यून सिस्टम. दरअसल, हमारे इम्यून सिस्टम का एक काम बाहरी खतरों से हमें बचाने का है. लेकिन अंगों के ट्रांसप्लांट के मामले में यही इम्यून सिस्टम दिक्कत कर सकता है. जैसे ये दूसरे इंसान या प्रजाति के ट्रांसप्लांटेड अंगों पर हमला करके, उसकी कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है.

ज़ीनोट्रांसप्लांट के मामले में ऐसा ना हो इसलिए कई तरीके अपनाए जाते हैं. एक तो जिस सूअर के अंग को लगाना है, उसे लैब में बड़ा किया जाता है. इसके अलावा उसमें कई तरह के जेनेटिक बदलाव किए जाते हैं.

माने उसके DNA  और जीन्स में बदलाव करके कोशिश की जाती है कि वो अंग इंसानों के मुताबिक काम कर सके. और हमारा इम्यून सिस्टम उस पर हमला करके उसे नुकसान न पहुंचाए. इसके लिए मरीजों को एंटी रिजेक्शन दवाएं भी दी जाती हैं.

ज़ीनोट्रांसप्लांट के तीन मरीजों से क्या समझा गया?

इस बारे में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से सर्जन रॉबर्ट मॉन्टगोमेट्री बताते हैं,

ट्रांसप्लांट बंदरों वगैरह में हुए हैं. लेकिन इंसानों में हुए दूसरे जानवरों के अंगों के ट्रांसप्लांट बंदरों के मुकाबले अभी कम सफल नजर आते हैं. पिग ऑर्गन ट्रांसप्लांट किए तीन मरीजों की जान करीब 2 महीनों में चली गई. लेकिन इसमें एक बात समझने की जरूरत है.ये तीनों मरीज गंभीर रूप से बीमार थे. और इनकी आखिरी उम्मीद यही थी.

ऐसे में रिसर्चर्स को इससे काफी कुछ समझने को मिला है. उन्होंने ये भी कहा कि ये कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका हल नहीं निकाला जा सकता है. और ये अच्छा है कि हम इतनी दूर तक आ पाए हैं.

पिग हार्ट ट्रांसप्लांट वाले सर्जन ने क्या बताया?

किसी इंसान में पहला ज़ीनोट्रांसप्लांट 57 साल के डेविड बेनेट पर किया गया था. जो सूअर के दिल के साथ 60 दिन जिये. वहीं साल 2023 में दूसरा ट्रांसप्लांट लॉरेंस फैसेट को मिला जो करीब 40 दिन जी पाए. लेकिन इनके कम जी पाने के पीछे सिर्फ ट्रांसप्लांट का हाथ नहीं था. 

अमेरिका की मैरीलैंड यूनिवर्सिटी से सर्जन मोहम्मद मोहिद्दीन इन मरीजों की देखभाल से जुड़े रहे हैं. वो इस बारे में रिसर्च जर्नल नेचर को बताते हैं,

मरने से कुछ हफ्ते पहले बेनेट को एक इनफेक्शन हुआ था. जिसकी वजह से फिजिशियन ने उन्हें कई डोनर्स की एंटीबॉडी की इम्यून-बूस्टिंग थेरेपी के तौर पर दी थी. जो इनफेक्शन से लड़ने में मदद करती है. वैज्ञानिकों को बाद में पता चला कि कुछ एंटीबॉडी सूअर के अंग तक पहुंच गए थे. हो सकता है ये ट्रीटमेंट बेनेट के दिल के लिए खतरनाक बना हो.

उन्होंने आगे बताया कि इसका दूसरा कारण बेनेट के ट्रांसप्लांटेड दिल में हुआ एक इनफेक्शन भी हो सकता है. जो पोर्काइन साइटोमेगलोवायरस की वजह से होता है. उन्होंने बताया कि ट्रांसप्लांट के समय ये वायरस जांच में नहीं आया था. लेकिन बेनेट के मरने के बाद ये हार्ट में मौजूद था.

आखिरी इलाज

बताया जा रहा है, ज़ीनोट्रांसप्लाट किए गए सभी जीवित मरीजों को अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) की तरफ से ‘कंपैशनेट यूज’ की मंजूरी थी. माने जिन मरीजों की जान को बहुत खतरा हो और कोई दूसरा इलाज ना बचा हो. ऐसे हालात में दी जाने वाली इजाजत. मतलब ऐसे मरीज दूसरे मरीजों के मुकाबले ज्यादा बीमार थे. जिसकी वजह से भी ये अनचाहे नतीजे हो सकते हैं.

पिग किडनी ट्रांसप्लांट के बाद मरीज रिचर्ड स्लेमैन (Credit: Michelle Rose/Massachusetts General Hospital)
पिग किडनी ट्रांसप्लांट पर क्या पता चला?

दूसरी तरफ पिग किडनी ट्रांसप्लांट किए गए मरीज रिचर्ड स्लेमैन का मामला अलग था. इस सर्जरी से जुड़े मैसेच्यूसेट जनरल हॉस्पिटल के डॉ तत्सो कवाई बताते हैं,

मरने से एक दिन पहले स्लेमैन की किडनी ठीक फंक्शन कर रही थी. उनके मुताबिक स्लेमैन की मौत ट्रांसप्लांट के अलावा दूसरी वजहों से हुई थी. ट्रांसप्लांट से करीब एक साल पहले उन्हें एक हार्ट कंडीशन हो गई थी.

हालांकि, दूसरे जानवरों से अंगों के ट्रांसप्लांट आम लोगों तक बहुतायत में पहुंचने में अभी वक्त है. लेकिन एक्सपर्ट्स अंगों की कमी से निपटने के लिए, इसे एक अहम जरिया मानते हैं. सूअर के अंगों को रिजेक्शन से बचाने के लिए इनमें और जेनेटिक बदलाव भी किए जा रहे हैं. स्लेमैन की सर्जरी में जिस सूअर की किडनी का इस्तेमाल किया गया था, वो ई-जेनेसिस नाम की एक बॉयेटेक्नोलॉजी फर्म ने विकसित की थी. इसमें रिकार्ड 69 एडिट किए गए थे.

समझा जा सकता है कि ये डगर लंबी है, लेकिन ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन के मामले में हम काफी दूर तक पहुंचें हैं. और जिन लोगों को अंगों की जरूरत है, उनके लिए यह एक अहम जरिया हो सकता है. बाकी जीन एडिटिंग और पिग ऑर्गन को इंसानों के लिए और बेहतर बनाने के प्रयास लगातार जारी हैं.

वीडियो: सेहत: कैसे की जाती है हार्ट ट्रांसप्लांट सर्जरी, जिसमें लगाया जाता है मरे हुए इंसान का दिल