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भारत के जिस आर्मी अफसर ने पाकिस्तान को सबसे बड़ी शर्मिंदगी दी, वो जिंदगी भर कुवांरा रहा

दुनिया में किसी भी देश की सेना को इतनी बेइज्जती नहीं सहनी पड़ी है, जितनी उस दिन पाकिस्तान को सहनी पड़ी थी.

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1971 की इस लड़ाई में भारत की जीत के पीछे कई कारण थे. पहला, सरकार और सेना के बीच कोई संवादहीनता नहीं थी. न ही कोई ओवरकॉन्फिडेंस था कि बिना तैयारी किए जंग में कूद गए. इसमें कोई शक नहीं कि इन सब बातों का एक बड़े श्रेय आर्मी चीफ सैम मानेकशॉ और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जाता है. ये 1971 के जंग की ही तस्वीर है. भारतीय सैनिक एक खाली छोड़े गए टैंक के पास से गुजर रहे हैं (फोटो: Getty)
25 जुलाई, 2018 को पाकिस्तान में चुनाव हुए. पाकिस्तान में लोकतंत्र का पस्त रेकॉर्ड रहा है. ऐसे में यहां कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर ले, तो बड़ी बात है. ये पहली बार हुआ कि पाकिस्तान में बैक-टू-बैक दो सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया. ये जो हुआ है, वो ऐतिहासिक है. इस खास मौके पर द लल्लनटॉप पाकिस्तान की राजनीति पर एक सीरीज़ लाया है. शुरुआत से लेकर अब तक. पढ़िए, इस सीरीज़ की 11वीं किस्त.


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24 दिसंबर, 1971. जुल्फिकार अली भुट्टो ने एक जांच बिठाई. हमुदुर रहमान कमिटी. इस जांच का मकसद था, 19871 की हार का पोस्टमॉर्टम. ये खोजना कि हारे, तो क्यों हारे. और किनकी वजह से हारे. याहया को भी पूछताछ के लिए पेश होना पड़ा. लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अल्ताफ कादिर ने सवाल पूछा- लोग कहते हैं कि आपको बहुत सारी औरतों के साथ अफेयर है? ये सच है क्या? याहया कुर्सी पर बैठे थे. हाथ में सिगरेट थी. उन्होंने एक कश भरा. फिर धुआं उड़ाते हुए बोले-
मैंने कभी किसी को अपने पास नहीं बुलाया. खुद उनके पति उन्हें मेरे पास लेकर आते थे. बताओ, इसमें मेरी क्या गलती थी?



ये तूफान गुजर जाने के बाद की बात है. तूफान, जो 1971 की जंग थी. इस किस्त में इसी जंग का हाल है.
ऐसा लग रहा था कि याहया खान बहुमत का फैसला मानने जा रहे हैं. उन्होंने ढाका में नैशनल असेंबली का सत्र बुलाने की घोषणा भी की. लेकिन फिर वो पश्चिमी पाकिस्तान के दबाव के आगे झुक गए. उनके इस गुनाह ने न केवल पाकिस्तान के दो टुकड़े किए, बल्कि लाखों बेगुनाह बेमौत मारे गए. याहया को आगे चलकर इसकी सजा मिली. इसी बंटवारे ने उनकी गद्दी छीन ली (फोटो: Getty)
भुट्टो ने बाद में इटली की एक पत्रकार को दिए गए इंटरव्यू में कहा. कि ढाका में उनकी और मुजीब की बातचीत बेनतीजा थी. वो हर शाम याहया को ये बताते. मगर याहया को जैसे कोई दिलचस्पी नहीं थी. वो टीवी न होने की शिकायत करते रहते. याहया ने रावलपिंडी से अपने पसंदीदा गानों के कैसेट्स मंगवाए थे. जो तब तक वहां ढाका नहीं पहुंचे थे. भुट्टो के मुताबिक, इतनी गंभीर स्थिति में भी याहया ये रोना रोते कि वो गाने नहीं सुन पा रहे हैं (फोटो: Getty)

26 नवंबर, 1971. भारत पूर्वी पाकिस्तान में घुस गया. मगर ये भारत की तरफ से जंग की शुरुआत नहीं था. इस बात के पूरे आसार थे कि भारत पूर्वी पाकिस्तान में घुसेगा. पाकिस्तान में बातें चल भी रही थीं. कि उन्हें भारत के खिलाफ पश्चिमी बॉर्डर पर हमला कर देना चाहिए. ताकि भारत का ध्यान वहां फोकस हो जाए. 23 नवंबर को ही पाकिस्तान आर्मी के हेडक्वॉर्टर में इस विकल्प पर बात हुई थी. मगर याहया टालते रहे. कहा, 27 तक बताता हूं कि क्या करना है. उससे पहले ही भारत ईस्ट पाकिस्तान में घुस गया. फिर याहया बोले, 29 को वेस्टर्न फ्रंट से लड़ाई शुरू कर देंगे. मगर जमीन पर तैनात सेना तक ये बात पहुंची 2 दिसंबर को. अगले दिन, यानी 3 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ने भारत से जुड़ी पश्चिमी सीमा पर जंग शुरू कर दी. दोपहर बाद पर पाकिस्तान एयर फोर्स के तकरीबन 32 विमानों ने भारत के एयरफील्ड्स पर हमला किया. भारत को बहुत मामूली नुकसान हुआ. 'पाकिस्तान: ऐट द हेल्म' नाम की किताब में इस हमले का ब्योरा इस तरह है-
पाकिस्तानी हवाई हमले का मकसद था इंडियन एयरबेस के रनवे तबाह करना. इसके लिए उसने अपने एफ-86 विमानों को भेजा. ये काफी काम का एयरक्राफ्ट था. लेकिन इससे बस एक काम ठीक-ठीक नहीं हो पाता था. वो था- बम गिराना. अगर हजार पाउंड वाले दो बम गिराने हैं, तो इस एयरक्राफ्ट को 10 हजार फुट ऊंचे जाना पड़ता था. फिर वहां से 45 डिग्री का डाइव लगाओ. फिर साढ़े चार हजार फुट की ऊंचाई पर पहुंच कर एक तय रफ्तार में बम गिरा दो. इतनी शर्तें थीं कि इससे गिराए गए ज्यादातर बम निशाने पर गिरे ही नहीं. जहां गिरे भी, वहां इतना कम नुकसान हुआ कि भारत कुछ घंटों के भीतर उसकी मरम्मत कर सकता था.
याहया को लगता था कि शायद इंदिरा गांधी पूर्वी पाकिस्तान के एक छोटे से हिस्से पर कब्जा करने की कोशिश करें. ताकि निष्कासन में बनी बांग्लादेश की सरकार को वहां स्थापित किया जा सके. याहया को या फिर पाकिस्तान को भारत से इतने बड़े स्तर पर किसी सैन्य ऑपरेशन की आशंका ही नहीं था. हालांकि अमेरिका उसे इस बात के लिए आगाह भी कर चुका था (फोटो: Getty)
याहया को लगता था कि शायद इंदिरा गांधी पूर्वी पाकिस्तान के एक छोटे से हिस्से पर कब्जा करने की कोशिश करें. ताकि निष्कासन में बनी बांग्लादेश की सरकार को वहां स्थापित किया जा सके. याहया को या फिर पाकिस्तान को भारत से इतने बड़े स्तर पर किसी सैन्य ऑपरेशन की आशंका ही नहीं था. हालांकि अमेरिका उसे इस बात के लिए आगाह भी कर चुका था (फोटो: Getty)

याहया को भारत से 'शराफत' की उम्मीद थी पाकिस्तान की तैयारी बड़ी कच्ची थी. असल में याहया ये मानकर बैठे थे कि भारत बहुत से बहुत करेगा, तो पूर्वी पाकिस्तान का एक हिस्सा कब्जा में लेकर वहां निर्वासन में बनी बांग्लादेशी सरकार की ताजपोशी कर देगा. यही सोचकर पाकिस्तान ने अपनी ज्यादातर फौज सीमा पर तैनात की हुई थी. अंदर लड़ने के लिए उसके पास लोग ही नहीं थे. पाकिस्तानी हुकूमत ढाका की अहमियत ही नहीं समझी. उन्हें लगा ही नहीं था कि ढाका को पकड़कर रखने की जरूरत है. वो तो जब भारत की सेना ढाका की तरफ बढ़ी, तब जाकर पाकिस्तान की आंखें खुलीं. मगर तब तक देर हो चुकी थी. उसके पास ढाका में रिइन्फॉर्समेंट का रास्ता ही नहीं था.
अपने एक इंटरव्यू में मानेकशॉ ने कहा था. कि जहां-जहां सेना ने मुल्क पर शासन किया है, वहां सिर्फ बर्बादी आई है. क्योंकि सेना लड़ने के लिए प्रशिक्षित होती है. जबकि देश चलाने का काम नेताओं का होता है. ये भारत की ताकत थी कि यहां सेना और सरकार, दोनों को अपना-अपना काम मालूम था. मानेकशॉ जानते थे कि सेना कहां कमजोर पड़ेगी. उन्होंने इस कमजोरी को दूर करने पर काम किया और फिर आगे बढ़े. दूसरी तरफ पाकिस्तान था, जिसमें हमेशा की तरह खोखला ओवरकॉन्फिडेंस था (फोटो: इंडियन आर्मी)
अपने एक इंटरव्यू में मानेकशॉ ने कहा था. कि जहां-जहां सेना ने मुल्क पर शासन किया है, वहां सिर्फ बर्बादी आई है. क्योंकि सेना लड़ने के लिए प्रशिक्षित होती है. जबकि देश चलाने का काम नेताओं का होता है (फोटो: इंडियन आर्मी)

मानेकशॉ ने लकी नंबर देखकर जंग की तारीख तय की जब पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर हमला कर दिया, तो भारत ने भी जंग छेड़ दी. कहते हैं कि भारतीय सेना ने वैसे भी 4 दिसंबर की तारीख तय की हुई थी. सैम मानेकशॉ को लगता था कि 4 उनका लकी नंबर है. सो उन्होंने तय किया था कि 4 दिसंबर को ही आधिकारिक तौर पर जंग शुरू करेंगे. मगर इससे पहले पाकिस्तान ने शुरुआत कर दी. भारत के लिहाज से ये अच्छा ही था. इस समय पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के कमांडर थे लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी. 3 सितंबर, 1971 को उन्हें ईस्ट पाकिस्तान का मार्शल लॉ अडमिनिस्ट्रेटर बना दिया गया था. नियाजी के बारे में मशहूर है कि उन्हें सेना की चीजों से ज्यादा दिलचस्पी गंदे-भद्दे चुटकुलों में थी. कहते हैं कि ईस्ट पाकिस्तान में पोस्टिंग के दौरान सेना का एक अफसर उन्हें ब्रीफिंग देने पहुंचा. उसकी ब्रीफिंग सुनने की जगह नियाजी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-
यार, लड़ाई की फिक्र न ही करो. वो तो हम कर लेंगे. अभी तो तुम मुझे बंगाली गर्लफ्रेंड्स के नंबर दे दो.
जे एफ आर जैकब पहले ब्रिटिश आर्मी में थे. उन्होंने दूसरा विश्व युद्ध लड़ा था. मेजर जनरल जैकब को 1969 में ही इंडियम आर्मी के ईस्टर्न कमांड का चीफ ऑफ स्टाफ बनाया गया था. ये उनका ही प्लान था कि देहातों और गांवों से होते हुए ढाका पहुंचा जाए. ताकि रास्ते में पाकिस्तानी सेना के साथ भिड़ंत की कम से कम आशंका हो. और भारत आसानी से ढाका को आजाद करा सके (फोटो: सोशल मीडिया)
मेजर जनरल जैकब को 1969 में ही इंडियम आर्मी के ईस्टर्न कमांड का चीफ ऑफ स्टाफ बनाया गया था. ये उनका ही प्लान था कि देहातों और गांवों से होते हुए ढाका पहुंचा जाए. ताकि रास्ते में पाकिस्तानी सेना के साथ भिड़ंत की कम से कम आशंका हो. और भारत आसानी से ढाका को आजाद करा सके (फोटो: सोशल मीडिया)

इंडियन आर्मी की खास रणनीति 1971 की इस लड़ाई के समय सेना के ईस्टर्न कमांड के चीफ ऑफ स्टाफ थे मेजर जनरल जे एफ आर जैकब. पूरा नाम- जैक फ्रेड्रिक राल्फ. मानेकशॉ चाहते थे कि भारतीय सेना सीधे-सीधे बांग्लादेश में घुसे और सारे बड़े शहरों को जीत ले. मगर जैकब ने कहा, ये ठीक नहीं होगा. इसमें जोखिम ज्यादा है. मानेकशॉ ने पूछा, फिर क्या करें? जवाब में जैकब लेकर आए एक खास स्ट्रैटजी. वॉर ऑफ मूवमेंट. इसके मुताबिक, भारतीय सेना को पूरा बांग्लादेश आजाद कराना था. लेकिन शहरों से होकर नहीं. बल्कि छोटे-छोटे गांवों और देहातों से होते हुए. ये स्ट्रैटजी बहुत कामयाब रही. क्योंकि इन इलाकों में भारतीय सेना को बहुत कम विरोध झेलना पड़ा. वो बिना ज्यादा गंवाए ढाका पहुंच गई.
बॉर्डर की कहानी इसी
बॉर्डर की कहानी इसी लोंगेवाला पोस्ट की लड़ाई पर थी. ये पोस्ट भारत के लिए बेहद अहमियत रखती थी. अगर भारतीय सैनिक इस पोस्ट से पीछे हट जाते या इसे हार जाते, तो पाकिस्तानी सेना आगे जैसलमेर तक बढ़ आती. वहां उसके पास नुकसान पहुंचाने को आबादी भी होती. 

सन्नी देओल की 'बॉर्डर' वाली लड़ाई भी इसी वक्त हुई थी 4 दिसंबर के दिन हुई लोंगेवाला की लड़ाई. वो लड़ाई, जिसके ऊपर आगे चलकर जे पी दत्ता ने 'बॉर्डर' बनाई. राजस्थान के थार रेगिस्तान की छोटी सी पोस्ट. 23 पंजाब रेजिमेंट के कुल 120 जवान यहां तैनात थे. रात के वक्त पाकिस्तानी फौज ने हमला किया. उनके पास तोप भी थे. पोस्ट की कमांड थी मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के हाथ में. उन्होंने अपने सीनियर्स को खबर दी. सीनियर्स ने कहा, पोस्ट खाली कर दो. भाग आओ. मगर मेजर इसके लिए तैयार नहीं हुए. गिनती के जवान और गिनती के हथियार, गोला-बारूद लेकर भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज का मुकाबला किया. जैसे ही सुबह हुई, पास के जैसलमेर एयरफील्ड से भारतीय वायु सेना मदद के लिए वहां पहुंच गई. और इस तरह भारत ये लड़ाई जीत गया.
कैप्टन मुल्ला: सबको बचा लिया, लेकिन खुद जहाज के साथ डूब गए 7 दिसंबर तक भारतीय सेना ने जेसोर और सियालहट को भी आजाद करा लिया. पूर्वी और पश्चिमी, दोनों मोर्चों पर लड़ रहा था भारत. 8 दिसंबर को भारतीय नौसेना ने कराची पर अटैक किया. यहीं पर पाकिस्तानी नौसेना ने भारत के जहाज 'खुकरी' को डुबाया था. खुकरी के कप्तान एम एन मुल्ला भी अपने जहाज के साथ ही डूब गए. जब ये साफ हो गया कि जहाज डूबने वाला है, तो कैप्टन मुल्ला ने बाकी सबों को जहाज से चले जाने का आदेश दिया. लेकिन खुद जहाज छोड़कर नहीं गए. उधर भारतीय सेना ईस्ट पाकिस्तान में पहले देहातों को आजाद करवा रही थी. क्योंकि वहां पर पाकिस्तानी सेना की कम मौजूदगी थी.
कहते हैं कि याहया को देखकर लगता ही नहीं था कि ईस्ट पाकिस्तान की हालत इतनी खराब है. वो कभी इसे लेकर असहायता दिखाते, कभी कहते कि पाकिस्तान किसी भी कीमत पर जीतेगा. कभी वो पूर्वी पाकिस्तान में नियुक्त अपने मातहतों से कहते कि जो ठीक लगे, करो. तो कभी हथियार न डालने पर टल जाते. शुरुआत में तो याहया की उम्मीदें अमेरिका और चीन की मदद पर टिकी थीं. फिर वो UN की दखलंदाजी के भरोसे बैठे रहे (फोटो: Getty)
कहते हैं कि याहया को देखकर लगता ही नहीं था कि ईस्ट पाकिस्तान की हालत इतनी खराब है. वो कभी इसे लेकर असहायता दिखाते, कभी कहते कि पाकिस्तान किसी भी कीमत पर जीतेगा. कभी वो पूर्वी पाकिस्तान में नियुक्त अपने मातहतों से कहते कि जो ठीक लगे, करो. तो कभी हथियार न डालने पर टल जाते. शुरुआत में तो याहया की उम्मीदें अमेरिका और चीन की मदद पर टिकी थीं. फिर वो UN की दखलंदाजी के भरोसे बैठे रहे (फोटो: Getty)

मानेकशॉ ने पर्चियां बंटवाई 11 दिसंबर आते-आते भारतीय सेना के प्रमुख सैम मानेकशॉ ने परचे छपवाकर बांग्लादेश में जगह-जगह बंटवाए. इनमें पाकिस्तानी सेना से अपील की गई थी. कि वो हथियार डाल दें. मानेकशॉ ने ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से भी यही संदेश दिया. उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में जो पाकिस्तानी सैनिक हैं, उनके पास भागने का कोई रास्ता नहीं बचा है. न ही पाकिस्तान से कोई मदद उन तक पहुंच सकती है. उसके पास अपने जवानों की जान बचाने का एक ही रास्ता है- आत्मसमर्पण. अगर ऐसा नहीं होता है, तो मुक्ति वाहिनी के गुस्से से उनके परिवारों को बचा पाना भी मुश्किल होगा.
नियाजी की हिम्मत तो पहले ही चुक चुकी थी. 'पाकिस्तान: आई ऑफ द स्ट्रॉम' में ओवेन बैनेट जोन्स ने लिखा है-
7 दिसंबर को नियाजी पहुंचे गवर्नर ए एम मलिक के पास. गर्वनर ने कुछ ही शब्द कहे होंगे कि नियाजी ने रोना शुरू कर दिया. वो जोर-जोर से रो रहे थे. गवर्नर अपनी सीट से उठे. उन्होंने नियाजी की पीठ थपथपाई. उन्हें ढाढ़स बंधाया.
लेफ्टिनेंट जनरल जैकब ने अपनी आत्मकथा भी लिखी है. नाम है- ऐन ऑडिसी इन वॉर ऐंड पीस: ऐन ऑटोबायोग्रफी. इस सरेंडर के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा है. कि 16 दिसंबर की सुबह मानेकशॉ ने उन्हें फोन करके ढाका जाने को कहा. ताकि वहां सरेंडर करवाया जा सके. मानेकशॉ ने उनसे कहा- तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है (फोटो: रोली पब्लिकेशन)
लेफ्टिनेंट जनरल जैकब ने अपनी आत्मकथा भी लिखी है. नाम है- ऐन ऑडिसी इन वॉर ऐंड पीस: ऐन ऑटोबायोग्रफी. इस सरेंडर के बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा है. कि 16 दिसंबर की सुबह मानेकशॉ ने उन्हें फोन करके ढाका जाने को कहा. ताकि वहां सरेंडर करवाया जा सके. मानेकशॉ ने उनसे कहा- तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है (फोटो: रोली पब्लिकेशन)

ना ना कहते-कहते पाकिस्तान ने हां कर दी नियाजी ने अमेरिकी दूतावास के हाथों मानेकशॉ तक खबर भिजवाई. कि वो संघर्षविराम के लिए तैयार हैं. हालांकि इसके पहले वो लगातार ये कह रहे थे कि पाकिस्तान किसी भी कीमत पर हथियार नहीं डालेगा. नीचे उनके एक इंटरव्यू का लिंक है. ये उन्होंने 13 दिसंबर, 1971 को दिया था. यानी, सीजफायर के बस तीन दिन पहले-

इस कहानी का स्पेशल हीरो 15 दिसंबर को मानेकशॉ ने सीजफायर की हामी भर दी. मानेकशॉ ने 16 तारीख की सुबह मेजर जनरल जैकब को फोन करके उन्हें ढाका जाने को कहा. आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर दस्तखत करवाने के लिए जो इंतजाम करने थे, वो सब करने के लिए. जैकब बस एक स्टाफ साथ लेकर निहत्थे ही ढाका पहुंच गए. उनके पास सिवा उस 'सरेंडर अग्रीमेंट ड्राफ्ट' के और कुछ नहीं था. मेजर जनरल जैकब नियाजी से मिलने पहुंचे. कहा, पाकिस्तानी सेना को बिना शर्त समर्पण करना होगा. वो भी पब्लिक सरेंडर. जनता के बीच, लोगों के सामने हथियार डालने होंगे. नियाजी ने इनकार किया. पहले कभी किसी देश ने यूं सार्वजनिक सरेंडर नहीं किया था. नियाजी की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे. उन्होंने कहा- किसने कहा कि मैं सरेंडर कर रहा हूं? आप तो यहां बस सीजफायर की शर्तों और सेना वापसी पर बात करने आए हैं.
मेजर जनरल जैकब को वक्त की चिंता थी. 15 दिसंबर की रात से जो संघर्षविराम लागू हुआ था, उसे खत्म होने में कुछ ही वक्त बचा था. पाकिस्तानी सेना के पास उस समय ढाका के अंदर 26,400 की फौज थी. भारत के पास तकरीबन 3,000 सैनिक थे. वो भी 30 मील दूर. वो जानते थे कि नियाजी को सरेंडर के लिए राजी करने का बहुत कम वक्त बचा है. ऊपर से जनरल जैकब बिल्कुल कॉन्फिडेंट नजर आ रहे थे. मगर अंदर ही अंदर उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी. वो सोच रहे थे कि अगर नियाजी ने सरेंडर करने से इनकार कर दिया, तो आगे की क्या रणनीति होगी. उन्होंने नियाजी से कहा कि अगर वो सरेंडर से इनकार करते हैं, तो भारतीय फौज पाकिस्तानी फौजियों और उनके परिवारवालों की हिफाजत नहीं कर सकेगी. जैकब ने नियाजी को फैसला लेने के लिए 30 मिनट का वक्त दिया था. 30 मिनट बाद वो फिर से नियाजी के पास आए. उन्होंने तीन बार नियाजी से पूछा. कि क्या आपको सरेंडर की शर्त मंजूर है. नियाजी बिल्कुल खामोश. कोई जवाब नहीं दिया. फिर जनरल जैकब ने सरेंडर का वो कागज उठाते हुए कहा-
तो ठीक है फिर. मैं आपकी खामोशी को आपकी हां मान रहा हूं.
एक शॉर्ट फिल्म है- मुक्ति. ये खास1971 की जंग के इसी हिस्से पर बनी है. इसमें मिलिंद सोमण मेजर जनरल जैकब के रोल में हैं. नीचे इसका यूट्यूब लिंक है. आप देखेंगे, तो शायद बेहतर समझ पाएंगे. कि जनरल जैकब ने क्या गजब का काम किया था.

मानेकशॉ ने कहा- इतना अच्छा मौका है, बीवी को साथ ले जाओ 16 दिसंबर, 1971. शाम के साढ़े चार बजे का वक्त. जगह, ढाका का रामना रेसकोर्स. वहीं जगह, जहां खड़े होकर शेख मुजीब-उर-रहमान ने बांग्लादेश की आजादी का ऐलान किया था. जहां बांग्लादेश का झंडा लहराया गया था. यहां पहुंचने से पहले जनरल नियाजी ढाका एयरपोर्ट गए थे. वहां उन्हें लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को रिसीव करना था. अरोड़ा ईस्टर्न कमांड के कमांडर थे. उनके साथ उनकी पत्नी भांति अरोड़ा भी थीं. भांति अपने पति के साथ जाना चाहती थी. आर्मी चीफ मानेकशॉ ने भी इसके लिए हामी भरी थी. मानेकशॉ ने लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा से कहा था- ये ऐतिहासिक मौका है. अपनी बीवी को भी साथ लेकर जाओ. अरोड़ा और उनकी पत्नी, दोनों हेलिकॉप्टर से ढाका पहुंचे थे. जनरल नियाजी ने उन्हें देखा. और तनकर वो मिलिटरी वाली सलामी दी. फिर आगे बढ़कर नियाजी ने अरोड़ा से हाथ मिलाया. यहां से वो लोग सीधे रामना रेसकोर्स पहुंचे. हजारों बंगालियों की भीड़ वहां मौजूद थी. वो भारतीय सेना के लिए नारे लगा रही थी. भारतीय जवानों के लिए ताली बजा रही थी. लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा और उनकी पत्नी के गले मालाओं से भर गए. इसी जगह पर ठीक 04.31 मिनट पर नियाजी ने सरेंडर के दस्तावेज पर दस्तखत किए. ये पहली बार था जब किसी देश की सेना को यूं खुलेआम, लोगों के बीच आत्मसमर्पण करना पड़ा था.
बांग्लादेश बन गया. मुजीब उस इतिहास को देखने के लिए वहां मौजूद नहीं थे. वो देशद्रोह के इल्जाम में वेस्ट पाकिस्तान की जेल के अंदर बंद थे. बांग्लादेश बन जाने के बाद इंदिरा की सबसे बड़ी चिंता मुजीब को रिहा कराने की थी (फोटो: Getty)
बांग्लादेश बन गया. मुजीब उस इतिहास को देखने के लिए वहां मौजूद नहीं थे. वो देशद्रोह के इल्जाम में वेस्ट पाकिस्तान की जेल के अंदर बंद थे. बांग्लादेश बन जाने के बाद इंदिरा की सबसे बड़ी चिंता मुजीब को रिहा कराने की थी (फोटो: Getty)

ये एक नए मुल्क का जन्म था. 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान पैदा हुआ. 15 अगस्त, 1947 में भारत आजाद हुआ. 16 दिसंबर, 1971 को बांग्लादेश की पैदाइश हुई. उस तरफ से सरेंडर हो रहा था और इस तरफ नई दिल्ली में सदन की कार्रवाई चल रही थी. सरेंडर का वक्त जान-बूझकर 04.31 तय किया गया था. ताकि इंदिरा गांधी सदन की कार्यवाही के बीच में इसका ऐलान कर सकें. सरेंडर के कुछ ही मिनटों पर बाद इंदिरा तक खबर पहुंची. उन्होंने संसद में कहा-
अब ढाका एक आजाद देश की आजाद राजधानी है.
मानेकशॉ ने छह महीने मांगे थे, 13 दिन में काम कर दिया जंग शुरू होने से पहले इंदिरा ने मानेकशॉ से पूछा था. कि जंग खत्म होने में कितना वक्त लगेगा. तब मानेकशॉ ने इंदिरा से छह महीने का वक्त मांगा था. लेकिन ये लड़ाई बस 13 दिन में खत्म हो गई. बाद में इंदिरा ने मानेकशॉ से पूछा. तुमने छह महीने कहा, तो फिर 13 दिन में कैसे जीत गए? मानेकशॉ बोले-
मैडम, अगर मैंने आपको 13 दिन कहा होता, तो 14वें ही दिन से आप मुझसे पूछने लगतीं. कि अब तक क्यों नहीं जीते. इसीलिए मैंने छह महीने का वक्त बताया था.
इंदिरा ने सेना को तैयारी के लिए पूरा वक्त दिया था. उन्हें सैम मानेकशॉ पर पूरा भरोसा था. इसीलिए उन्होंने मानेकशॉ को फ्री हैंड भी दिया था.
इंदिरा ने सेना को तैयारी के लिए पूरा वक्त दिया था. उन्हें सैम मानेकशॉ पर पूरा भरोसा था. इसीलिए उन्होंने मानेकशॉ को फ्री हैंड भी दिया था. मानेकशॉ ने बाद के दिनों में अपने कई इंटरव्यूज में कहा था. कि तैयारी के साथ उतरने की वजह से उन्हें भारतीय सेना की जीत में रत्तीभर भी शक नहीं था. 

उधर जंग चल रही थी, इधर इंदिरा दीवान की चादर बदल रही थीं इंदिरा को मानेकशॉ पर पूरा यकीन था. उन्हें अपनी सेना पर पूरा यकीन था. इंदिरा जानती थीं कि वो अपने पिता जवाहर लाल नेहरू जैसी गलती नहीं कर रही हैं. नेहरू, जिन्होंने बिना ये देखे कि हम कितने पानी में हैं, चीन के खिलाफ उतरने का फैसला किया. और फिर मुंह की खाई. इंदिरा को यकीन था कि हिंदुस्तान जीतेगा. एक किस्सा है इसी का. तब युद्ध चल रहा था. इंदिरा के डॉक्टर उन्हें देखने उनके घर पहुंचे. देखा, इंदिरा बिल्कुल रिलेक्स्ड हैं. दीवान की चादर बदल रही हैं. इंदिरा जीत के लिए बिल्कुल आश्वस्त थीं. मानेकशॉ ने उनसे कहा था. अगर अमेरिका परमाणु युद्ध छेड़ दे, तब मैं कुछ नहीं कर सकता. वरना मेरा वादा है. हम ये लड़ाई किसी भी कीमत पर जीतेंगे. मानेकशॉ तो इस बात के लिए भी तैयार थे कि अमेरिका पाकिस्तान की मदद के लिए अपनी फौज भेज दे. बाद के दिनों में वो कहते थे. कि अगर अमेरिका ने अपनी फौज भेजी होती, तो ज्यादा अच्छा होता. फिर मुझे इस बात का फख्र होता कि हमने बस पाकिस्तान को ही नहीं, बल्कि अमेरिका को भी हराया है.
 (फोटो: Getty)
बंटवारे के समय खुद जिन्ना ने मानेकशॉ को पाकिस्तान आने का ऑफर दिया था. मगर मानेकशॉ ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था.(फोटो: Getty)

...तो पाकिस्तान के आर्मी चीफ होते सैम मानेकशॉ युद्ध खत्म हो गया. बांग्लादेश बन गया. मगर पाकिस्तान के 93,000 युद्धबंदी भारत के पास रह गए. इनमें करीब 12,500 आम नागरिक भी थे. भारत ने इनके लिए जगह-जगह 100 से भी ज्यादा कैंप्स बनवाए. भारत ने इन युद्धबंदियों को अपने यहां रखा. क्योंकि उसे डर था कि बांग्लादेश के लोग अपने ऊपर हुए जुल्म का बदला लेंगे. खुद आर्मी चीफ सैम मानेकशॉ इन शिविरों का मुआयना किया करते थे. वो वहां जाकर पाकिस्तानी युद्धबंदियों से बात करते. उनसे पूछते, खाना तो अच्छा मिलता है. बिस्तर पर खटमल तो नहीं काटते. शौचालय तो साफ रहता है. कोई तंग तो नहीं करता. यहां से इन युद्धबंदियों के संदेश रेडियो पर प्रसारित किए जाते. ताकि उनके परिवारवालों को मालूम चले. कि उनका अपना बिल्कुल ठीक है. आठ महीने बाद हुए शिमला समझौते के बाद ये युद्धबंदी रिहा हुए. वो जब अपने मुल्क वापस लौटे, तो वहां भारतीय सेना की तारीफ करते थे. और मानेकशॉ? उनका तो कल्ट बन गया पाकिस्तान में. बाद के दिनों में पाकिस्तान को बड़ा अफसोस होता था. कि बंटवारे के समय मानेकशॉ पाकिस्तान क्यों नहीं आए, भारत के साथ क्यों रुक गए. खुद जिन्ना ने एक बार उनसे कहा था. कि तुम पाकिस्तान चले आओ. मगर मानेकशॉ ने जिन्ना का प्रस्ताव ठुकरा दिया था.
16 दिसंबर की शाम करीब सवा सात बजे का वक्त था. रेडियो पर याहया खान की आवाज गूंजी. वैसे ही, जैसे कभी अयूब खान की गूंजी थी. एक बार फिर पाकिस्तानी सेना अपनी जनता को मूर्ख बनाने जा रही थी. याहया कह रहे थे-
हम भारत से बस एक लड़ाई हारे हैं. जंग नहीं हारे. ये जंग चलती रहेगी. सीजफायर जरूरी था. मैंने हमेशा कहा है. कि लड़ाइयों से मसले नहीं सुलझते हैं.
पाकिस्तान बस जंग नहीं हारा था. वो बंट गया था. ये मैदान से ज्यादा मन की हार थी. जिन्ना ने कहा था. हिंदू और मुसलमान मजहब से अलग हैं. उनका एक साथ गुजारा नहीं हो सकता. मुसलमानों के लिए अलग देश- इस लकीर पर भारत बंटा था. 1971 की हार जिन्ना और मुस्लिम लीग की भी हार थी. पाकिस्तान जिस खयाल पर बना था, उस खयाल की हार थी. अगर मजहब से मुल्क था, तो वो मुल्क फिर बंटा क्यों? अगर मजहब की पहचान ही सबसे खरी है, तो बंगाल अपनी भाषा-संस्कृति के लिए इतना पागल क्यों हो गया? 16 दिसंबर, 1971. ये दिन पाकिस्तान के इतिहास का सबसे कमजोर पल था. इस देश ने कई तख्तापलट देखे, कई तानाशाह देखे, कई लड़ाइयां देखीं, कई बम धमाके देखे. मगर उस बंटवारे जितना बुरा पाकिस्तान ने कुछ और नहीं देखा. ये बंटवारा याहया को लील गया. लोग इतने नाराज थे कि खुद सेना ने याहया से कहा. बेहतर होगा कि आप इस्तीफा दे दें.
1965 की ही तरह 1971 की लड़ाई में भी भुट्टो का नाम शामिल था. ये वो ही थे, जिन्होंने मुजीब को सत्ता सौंपे जाने का सबसे ज्यादा विरोध किया था. उन्होंने तो बंटवारे से पहले ही मुजीब के सामने ये प्रस्ताव रख दिया था कि तुम उधर संभालो, मैं इधर संभालता हूं. 1971 की जंग के बाद हुआ भी यही. भुट्टो के हाथ में पाकिस्तान आया और बांग्लादेश की सत्ता मुजीब को मिली (फोटो: Getty)
1965 की ही तरह 1971 की लड़ाई में भी भुट्टो का नाम शामिल था. ये वो ही थे, जिन्होंने मुजीब को सत्ता सौंपे जाने का सबसे ज्यादा विरोध किया था. उन्होंने तो बंटवारे से पहले ही मुजीब के सामने ये प्रस्ताव रख दिया था कि तुम उधर संभालो, मैं इधर संभालता हूं. 1971 की जंग के बाद हुआ भी यही. भुट्टो के हाथ में पाकिस्तान आया और बांग्लादेश की सत्ता मुजीब को मिली (फोटो: Getty)

जाते-जाते
दिसंबर 1971 की बात है. याहया को लगने लगा कि अब बस जंग छिड़ने वाली है. हर बार की तरह पाकिस्तान को अमेरिका और चीन का सहारा था. मगर उसके दोस्त काम नहीं आए. याहया की आखिरी उम्मीद थी UN. उन्होंने भुट्टो को UN भेजा. 8 दिसंबर को भुट्टो रवाना हुए. याहया बेकरार हुए जा रहे थे कि भुट्टो किसी तरह जल्द से जल्द न्यू यॉर्क पहुंचें. मगर भुट्टो तो जैसे किसी ट्रिप पर निकले थे. बीच में रुकते-ठहरते 10 दिसंबर को न्यू यॉर्क पहुंचे. 14 दिसंबर को पोलैंड ने सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव रखा. कि पूर्वी पाकिस्तान के चुने हुए प्रतिनिधियों, यानी मुजीब ऐंड पार्टी को शांति से सत्ता सौंप दी जानी चाहिए. इधर UN में ये प्रस्ताव पेश हो चुका था और भुट्टो बेखबर थे. उनको बाद में मीडिया से मालूम हुआ. न तो भुट्टो ने और पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ने, दोनों में से किसी ने याहया को खबर देना जरूरी नहीं समझा. 24 घंटे बाद जाकर याहया को उस प्रस्ताव की कॉपी मिली.
याहया ने न्यू यॉर्क फोन मिलाया. ताकि भुट्टो से कह सकें कि प्रस्ताव पर हामी भर दो. मगर भुट्टो कहीं मिले ही नहीं. सब भुट्टो को खोजने में लगे थे, मगर वो मिले ही नहीं. काफी बाद में भुट्टो मिले. याहया को फोन मिलाया गया. याहया ने कहा, प्रस्ताव ठीक है. रजामंदी दे दो. फोन के इस तरफ भुट्टो कह रहे थे- हेलो, हेलो. मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है. फोन के दूसरी तरफ से याहया ने कई बार अपनी बात दोहराई. मगर भुट्टो का वही जवाब- हेलो, हेलो. मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा. याहया और तेज से बोले जा रहे थे. भुट्टो जहां बैठकर बात कर रहे थे, वहीं पास में फोन ऑपरेटर भी थी. उससे रहा नहीं गया. उसने कहा- सर, जब मुझे सुनाई दे रहा है तो आपको कैसे नहीं सुनाई दे रहा. भुट्टो ने गुस्से से उसकी तरफ देखा. फिर बोले- शट अप. 19 दिसंबर, 1971 को भुट्टो ने अमेरिका में एक इंटरव्यू दिया था. नीचे उसी इंटरव्यू का लिंक है-

इससे पहले कि UNSC में पेश हुए प्रस्ताव पर अमल होता, पाकिस्तान ढाका हार चुका था.
सत्ता हासिल होने के बाद भुट्टो ने याहया को एक सरकारी बंगले में नजरबंद कर दिया. सत्ता भोगने का बहुत ही कम वक्त मिला याहया को (फोटो: Getty)
सत्ता हासिल होने के बाद भुट्टो ने याहया को एक सरकारी बंगले में नजरबंद कर दिया. बाद के दिनों में भुट्टो कहते थे कि हार के बाद याहया अपना मानसिक संतुलन खो चुके थे (फोटो: Getty)

20 तारीख को भुट्टो वापस पाकिस्तान पहुंचे. याहया से मिलने राष्ट्रपति भवन पहुंचे. वहां देखा, बरामदे में याहया अकेले बैठे हैं. नशे में धुत्त. आस-पास कोई भी नहीं. याहया के दिमाग का संतुलन चला गया था जैसे. अभी हंसते, अभी रोने लगते. उनके ऐसा होने की कहानी बाद में भुट्टो ने ही सुनाई. कहा, याहया की ऐसी हालत देखकर ही तो मैंने सत्ता संभाली. वरना देश का क्या होता? और इस तरह याहया का भी दौर बीत गया. उनको नजरबंद कर दिया. उसी रावलपिंडी के एक सरकारी बंगले में, जहां से गलत फैसले लेकर याहया ने पाकिस्तान को दो फाड़ में बंट जाने दिया था.जुल्फिकार अली भुट्टो राष्ट्रपति बने. और बने पाकिस्तान के पहले सिविलयन मार्शल लॉ अडमिनिस्ट्रेटर. दो जंग लड़ने और हारने के बाद आखिरकार अब जाकर भुट्टो का दौर शुरू होने वाला था. पूर्वी पाकिस्तान में नरसंहार को अंजाम देने वाले उस टिक्का खान को भुट्टो ने बतौर इनाम आर्मी चीफ बना दिया.
स्पेशल मेंशन
जेएफआर जैकब 2016 में गुजर गए. हम जाते-जाते उनकी लिखी ये अपील पढ़वा रहे हैं आपको (पाकिस्तान डिफेंस फोरम)
जेएफआर जैकब 2016 में गुजर गए. हम जाते-जाते उनकी लिखी ये अपील पढ़वा रहे हैं आपको (पाकिस्तान डिफेंस फोरम)

और अब जिक्र हमारी इस कहानी के स्पेशल हीरो का. मेजर जनरल जैकब. यहूदी थे. कोलकाता में पैदा हुए. उनका परिवार बगदाद ये आकर बंगाल में बस गया था. जैकब ने ब्रिटिश सेना जॉइन कर ली. दूसरे विश्व युद्ध में शिरकत की. पूरी जिंदगी शादी नहीं की उन्होंने. बिल्कुल अकेले रहे. एक बार एक पत्रकार ने उनसे पूछा. कि क्या यहूदी होने की वजह से उन्हें भारत में कभी किसी भेदभाव का शिकार होना पड़ा. जवाब में उन्होंने कहा कि दुनिया में बस एक जगह ही उन्हें ऐसा भेदभाव महसूस हुआ. और वो जगह थी- ब्रिटिश फौज. 2016 में वो गुजर गए. करीब 90 बरस की उम्र में उन्होंने युवाओं के नाम एक चिट्ठी लिखी थी. चिट्ठी क्या थी, अपील थी उनकी. ऊपर जो तस्वीर है, उसमें आपको जनरल जैकब की लिखी चिट्ठी दिखेगी. पढ़िए और उस इंसान को शुक्रिया कहिए.
हां, एक और बात. कई पाकिस्तानी वेबसाइट्स पर आपको उनकी तारीफ मिल जाएगी. उन्होंने हिंदुस्तानी फौज में रहते हुए अपने वतन के लिए जो किया, उसकी तारीफ हमारा पड़ोसी भी करता है. खासतौर पर पाकिस्तानी डिफेंस वेबसाइट्स. वैसे ही, जैसे हम हिली की लड़ाई में पाकिस्तानी फौज की दिखाई बहादुरी की तारीफ करते हैं. ये भी 1971 की जंग का हिस्सा थी. 25 दिनों से ज्यादा तक चली ये लड़ाई. इसे उस जंग की सबसे खूनी लड़ाई कहा जाता है. भारत हिली पर कब्जा करना चाहता था. ताकि पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद पाकिस्तानी सेना को दो धड़ों में बांटकर उनकी ताकत कम की जा सके. 23 नवंबर को रात के वक्त भारत ने हिली पर हमला किया. उसके साथ मुक्ति वाहिनी के लड़ाके भी थे. दोनों तरफ की फौजों ने जान लड़ा दी. यहीं पर शहीद हुए थे लांस नायक एल्बर्ट एक्का. जिन्हें बाद में परमवीर चक्र मिला. और यहीं शहीद हुए पाकिस्तान के मेजर मुहम्मद अकरम. जिन्हें मरने के बाद अपने मुल्क का सबसे बहादुरी वाला इनाम 'निशान-ए-हैदर' मिला.


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