Costao (2025)
Director: Sejal Shah
Cast: Nawazuddin Siddiqui, Priya Bapat, Kishor Kumar G
Rating: 3 Stars (***)
मूवी रिव्यू - कॉस्ताओ
Nawazuddin Siddiqui ने फिल्म में कस्टम्स ऑफिसर Costao Fernandes का रोल किया है. कैसी है ये फिल्म, जानने के लिए रिव्यू पढ़िए.

ज़ी5 पर Costao नाम की फिल्म रिलीज़ हुई है. ये कस्टम्स ऑफिसर Costao Fernandes के जीवन की घटनाओं पर आधारित है. फिल्म में Nawazuddin Siddiqui ने उनका रोल किया है. उनके अलावा Priya Bapat, Kishor, Gagan Dev Riar और Hussain Dalal ने भी अहम रोल्स किए हैं. कैसी है फिल्म, अब उस बारे में बात करते हैं.
‘कॉस्ताओ’ के पहले शॉट में गोल्ड बार्स दिखते हैं. फिर एक बच्ची का वॉयस-ओवर आता है. वो कहती है कि 24 कैरट गोल्ड सबसे प्योर होता है. लेकिन उससे आभूषण नहीं बन सकते. वो किसी के काम नहीं आ सकता. कॉस्ताओ भी ऐसा ही है. इस पहले फ्रेम से दो बातें एस्टैब्लिश हो जाती हैं. पहला कि यहां सोने का अहम रोल होने वाला है. दूसरा ये कि कॉस्ताओ बहुत ईमानदार किस्म का आदमी है. गोवा में अलफोन्सो डी’मेलो नाम का एक रसूखदार आदमी है. वो अपने भाई पीटर के साथ मिलकर सोने की स्मगलिंग का धंधा करता है. कॉस्ताओ को पता चलता है कि वो लोग 150 किलो स्मगल किया हुआ सोना लाने वाले हैं. लेकिन पूरी कहानी सिर्फ इतनी नहीं थी. डी’मेलो 150 नहीं बल्कि 1500 किलो सोना ला रहा था.

कॉस्ताओ उसे पकड़ने की पुरजोर कोशिश करता है. इसी दौरान उसके हाथों पीटर डी’मेलो की हत्या हो जाती है. एक ही पल में सब कुछ उसके खिलाफ हो जाता है. ऐसे में वो खुद को बेगुनाह कैसे साबित करता है, यही आगे की कहानी है. ‘कॉस्ताओ’ सिर्फ उस ऑफिसर की कहानी नहीं है. ये उस बच्ची की भी कहानी है जो अपने पिता के बिना बड़ी हो रही है. वो बच्ची जो देखती है कि आधी रात को पिता को अचानक से फोन आया और वो अंधेरे में गायब हो गए. ये उस औरत की भी कहानी है जिसे बस एक साल में दो ही मौकों पर अपने पति से I Love You सुनने को मिलता है. उसका पति कहता तो है कि उसके लिए ड्यूटी और पत्नी एक ही तराजू पर हैं, लेकिन अपनी हरकतों से ऐसा दर्शा नहीं पाता.
पूरी फिल्म देखते हुए ये सवाल कई बार आता है कि कॉस्ताओ की बच्ची को इतना क्यों दिखाया गया. कोर्टरूम में पीटर की पत्नी के इतने शॉट क्यों थे. लेकिन अंत में फिल्म इसका भी जवाब देती है. ये दोनों किरदार पूरी फिल्म में कभी नहीं मिलते. बस एक ट्रैजडी से जुड़े हुए होते हैं. इनके जीवन के पुरुषों ने जो किया, उसका गहरा असर इन पर पड़ा. कॉस्ताओ अपने फर्ज़ के लिए सब कुछ भूल जाता है. स्मगलिंग रैकेट को ध्वस्त करने की कोशिश में लगा है. आदर्श जीवन में ये सब बहुत कूल लगेगा. लेकिन दुर्भाग्यवश ये आदर्श जीवन नहीं है. ये सत्तर के दशक की कोई हिन्दी फिल्म नहीं जहां हीरो अपने फर्ज़ के लिए सब कुछ कुर्बान कर दे और ऑडियंस बस तालियां बजाती रह जाए. ‘कॉस्ताओ’ उस किस्म की फिल्म है जहां हीरो को अपने चुनाव की कीमत चुकानी पड़ती है. वो बात अलग है कि उससे ज़्यादा ये कीमत करीबी लोग चुकाते हैं. यही वजह है कि उसकी पत्नी बनीं प्रिया बापट के चेहरे पर हमेशा तनाव के निशान देखने को मिलते हैं. दरवाज़ा जोर से बंद होने पर वो घबरा जाती है. उसके पति ने भले ही देशसेवा चुनी, लेकिन उसका सबसे ज़्यादा असर उस औरत पर आया.

एक सीन है जहां कॉस्ताओ और उसकी पत्नी झगड़ रहे हैं. यहां गुस्से में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का किरदार अपनी बात कहते हुए व्याकरण की बहुत गलतियां करता है. लेकिन वो इतने पैशन से अपनी बात कह रहा होता है कि इरादा ध्यान में रह जाता है, शब्द नहीं. इस सीन में दोनों में से कोई भी गलत नहीं है. ब्लैक और व्हाइट वाला हिसाब नहीं है. एक तरफ पति-पत्नी झगड़ रहे हैं और दूसरी तरह आपका ध्यान उनकी सहमी हुई बच्ची पर जाता है. वो बच्ची इस फिल्म की gaze है, कि किस नज़र से डायरेक्टर सेजल शाह अपने किरदार को देख रही हैं.
बाकी अगर एक्टिंग की बात करें तो कॉस्ताओ बने नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने सही काम किया है. बस कुछ मौकों पर उनके और किरदार के बीच का अंतर मिटने लगता है. वहां बोलने के लहजे से आप समझ जाते हैं कि ये लाइन कॉस्ताओ ने नहीं बल्कि नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने बोली है. किशोर ने डी’मेलो का रोल किया. वो एक टिपिकल किस्म का विलेन है जो अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता है. फिल्म उसे किसी और रोशनी में दिखाने की ज़हमत नहीं उठाती. गगन देव रियाड ने एक सीबीआई ऑफिसर का रोल किया है जो डी’मेलो के लिए ही काम कर रहा होता है. भले ही गगन के फिल्म में कम सीन थे, लेकिन उनका काम ऐसा था कि किरदार पर गुस्सा आने लगेगा.
दो घंटे की ‘कॉस्ताओ’ अधिकांश हिस्से में एक एंगेजिंग फिल्म है. हालांकि सेकंड हाफ में ये अपनी दिशा से भटक जाती है. ये आपको कॉस्ताओ के निजी जीवन में भी इंवेस्टेड रखना चाहती है. लेकिन साथ ही उसके न्याय पाने की कहानी भी दिखाना चाहती है. फिल्म इन दोनों पहलुओं के बीच ठीक बैलेंस नहीं बना पाती. वही वजह है कि कोर्टरूम वाला हिस्सा फ्लैट सा लगता है. आप उसका कोई इम्पैक्ट महसूस नहीं करते. इस एक मसले से इतर ये आपको अपने किरदारों और उनकी दुनिया में पूरी तरह से इंवेस्टेड रखती है.
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