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क्या होती है आइडेंटिटी क्राइसिस, जिस महामारी से पूरा समाज जूझ रहा है

'भदेस से दूरी आदमी को भीरु बनाती है, और मृत्यु जीवन का सबसे भदेस सत्य है.'

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प्रतीकात्मक फोटो
himanshu singhहिमांशु दृष्टि समूह के संपादक मंडल के सदस्य हैं और 'दी लल्लनटॉप' के दोस्त हैं.  हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.
वो लड़का बमुश्किल 20 साल का रहा होगा. दुबला-पतला, फ़टी जीन्स को 'डैमेज़' ज़ाहिर करता हुआ, बेंच पर बैठी बेबनुमा लड़कियों के इर्दगिर्द मंडरा रहा था. वो उनका अटेंशन पाना चाहता था और लड़कियां उसे बाकायदा अवॉयड कर रहीं थीं. यानी वो अटेंशन पा रहा था. थोड़ी देर तक मंडराता रहा, फिर तेज़ आवाज़ में 'मेटालिका' का 'नथिंग एल्स मैटर' गाने लगा, और उन लड़कियों के सामने एकाएक जमीन पर फुर्ती से पुश-अप्स करने लगा. तमाम ठहाकों के बीच वो आधे मिनट तक ऐसा करता रहा, फिर किसी परफ़ॉर्मर की तरह दर्शकों पर बगैर कोई नज़र डाले ही पूरी अदा से उठा और रैंप वॉक करता हुआ चला गया. मुझे ये किसी प्रैंक सरीखा मालूम हुआ, पर ये प्रैंक नहीं था. लड़कियों का हंस-हंसकर बुरा हाल था. आस-पड़ोस में खड़े लोग भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए. ये पूरा वाकया बीते इतवार की शाम कनॉट प्लेस का है. शुरुआत में मुझे ये भी लगा कि वो लड़का छीना-झपटी के चक्कर में है. पर असल में वो लड़का आइडेंटिटी क्राइसिस, अभाव, और नगण्यताबोध के मिले-जुले प्रभाव से ग्रस्त था. 20-21 साल का लौंडा, ऊर्जा से लबरेज़, बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहा था कि उसे कुछ न समझा जाए. ऊपर से कनॉट प्लेस की चमक-दमक ऐसी कि अच्छे-अच्छों की शर्ट-इन करवा दे. सच बात तो ये है कि मैं कनॉट प्लेस जाता भी इसी लालच में हूं कि हर बार कुछ न कुछ कंटेंट मिल जाता है. खैर, वो लड़का रैंप-वॉक करते हुए चला गया. उसकी ऑडिएंस भी ठहाके मारती हुई चली गई. पर मैं वहीं बेंच पर बैठकर इस घटना को मथने लगा, और समझ में यही आया कि सिर्फ बाज़ार और गैर-बराबरी को ही ऐसी घटनाओं का जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. अभी उस लड़के को लगता है कि वो इस महत्त्वहीनता के बोध से छुटकारा पा लेगा, जिसकी संभावना वाकई बहुत कम है. फिर उस दिन क्या होगा जब उसे महसूस होगा कि उसकी कोशिशें बेकार हैं. जिस चमकदार दुनिया को पा लेने की कोशिशें वो कर रहा है, उसको पाने का व्याकरण ही कुछ और है! और उस दिन उसकी ये मासूम और फनी कोशिशें इतनी मासूम और फनी नहीं रह जाएंगी. आगे कहानी में बहुत सारी कुंठा, सस्ते नशे और कुछ अपराधों का ज़िक्र संभावित है, तो इस बात को यहीं छोड़ते हैं, और मुम्बई चलते हैं. मुम्बई एक बहुत बड़ा कनॉट प्लेस है, जहां दिल्ली की तरह नाक के नीचे और नाक के ऊपर देखने पर दो अलग-अलग दुनिया दिखती है. वहां झोपड़पट्टी में रहने वाले लड़कों के छोटे-छोटे ग्रुप हैं जो मुम्बई की लोकल ट्रेनों में स्टंट करते हैं. चलती ट्रेन से कूद जाना, तेज़ रफ़्तार ट्रेन को पकड़ के साथ वाले पुल की रेलिंग पर दौड़ जाना, वापस ट्रेन में कूद जाना और कभी-कभी पटरियों पे गिर के कट जाना उनके लिए रोजमर्रा की बात है. इसमें उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता, बल्कि पकड़े जाने पर थाने में कुटाई जरूर होती है, पर "फिलिम का माफ़िक" पुलिस से भागने का अपना ही रोमांच है. मेरा अनुमान है कि रोमांच की इस जानलेवा तलब के पीछे भी वही नगण्यताबोध और महत्त्वहीनता का भय ही है जो उस दिल्ली वाले लड़के में था. ऐसे में यह निष्कर्ष कि पहचान का संकट व्यक्ति को इतना खतरनाक और आत्मघाती बना सकता है, खासा चौंकाने वाला है. पर इसमें गलती इन लड़कों की नहीं है. पूरी की पूरी आबादी ही किसी न किसी रूप में पहचान के संकट से जूझ रही है, और ये महज़ संयोग नहीं है कि शहरों में ये तनाव सबसे ज्यादा है. आज शहरी आबादी भीड़ से अलग दिखने की इच्छा रखने वालों की भीड़ है, जो इस समस्या से अनजान पर बेचैन है, और इस समस्या का छिछला और अस्थायी निदान डैमेज जीन्स, बरगंडी-ब्राउन हेयर डाई और महंगे मोबाइल फोन से लेकर इंस्टाग्राम तक में ढूंढ रही है. समझने की बात है कि उसकी ये बेचैनी ही बाज़ार में डिमांड बूस्टर का काम करती है. ऐसे में बाज़ार अब साधन से साध्य बन चुका है और आबादी साध्य से साधन बन गई है. पर मैं ये लेख बाज़ार की बुराई करने या लेफ्टिस्ट समझे जाने के लिए नहीं लिख रहा. बल्कि, कहना मैं ये चाहता हूं कि ये समस्या ग्रामीण जीवनशैली को कमतर आंकने और उससे दूरी बना लेने के चलते भी जन्मी है. पीढ़ी-दो पीढ़ी पहले दिल्ली-मुम्बई जैसे बड़े शहरों में आकर बस चुके लोग ग्रामीण जीवन को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं, पर ऐसा में वो अपनी उस पहचान से दूर हो जाते हैं जो उन्हें पीढ़ियों से विरासत और वल्दियत में मिलती रही है. जहां वे लघु या सूक्ष्म भले माने गए हों, पर नगण्य नहीं थे. मनोहर श्याम जोशी 'कसप' में कहते हैं-
भदेस से दूरी आदमी को भीरु बनाती है, और मृत्यु जीवन का सबसे भदेस सत्य है.
ज़ाहिर है भदेस से दूरी ने उन्हें इतना भीरु बना दिया है कि अपने 'स्व' को भूलकर अपनी क्रय-शक्ति को ही अपना अस्तित्त्व समझ रहे हैं, जो कि इस दौर की सबसे बड़ी सैद्धांतिक भूल है. पहचान की यही परिभाषा और महत्त्वपूर्ण समझे जाने की यही तलब जहां दुनिया भर के असंतुलन के लिए जिम्मेदार है, वहीं ये हताश, निराश और विपन्न आबादी में परिवर्तनकारी बनने की महत्त्वाकांक्षा जगाती है. पहचान के संकट से जूझती और पहचान खोजती ये भीड़ कभी जुलूस की शक्ल ले लेती है तो कभी दंगाइयों में बदल जाती है और कभी तो यही मॉब लिंचिंग कर डालती है. इसी हताश भीड़ में बारे में परसाई जी ने लिखा है-
यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश मे यह भीड़ बढ़ रही है, इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.
ऐसे में ज़रूरी है कि ये भीड़ जल्द से जल्द व्यक्तियों का समूह बन जाए, और अपने 'स्व' को पहचानकर कृत्रिम पहचानों को नकार दे, और कठपुतली बनने से इनकार कर दे.
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