दफ़्तर क्यों जाते हैं? ये सवाल 'मैं कौन हूं? मेरा उद्देश्य क्या है?' से कम पेचीदा है. मगर 'कांग्रेस लगातार चुनाव क्यों हार रही है?' या 'भाजपा नेताओं पर ED-IT के छापे क्यों नहीं पड़ते?' से तो ज़्यादा ही है. दफ़्तर जाते हैं कि अर्थव्यवस्था में योगदान करें. अपने मन और ऊर्जा को किसी काम में लगाए रखें. चार पैसे कमाएं; दो ख़र्च कर सकें. अपना या अपनों का स्वास्थ्य बिगड़े, तो इलाज कराने का बूता हो. लेकिन अगर दफ़्तर ही अस्पताल जाने का सबब बन जाए, तो?
सैलरी ही नहीं... दिल का रोग, तनाव, अनिद्रा और गैस की बीमारी भी देता है ऑफिस!
कर्म को 'पूजा' मानने वाले ये ख़बर पढ़ कर नास्तिक हो सकते हैं.

टाइम वालों ने बे-टाइम एक ख़बर छाप दी है. एक रिसर्च का हवाला दिया है, जो कहती है कि आपके दफ़्तर का आपके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. आपकी मेंटल हेल्थ, दिल की बीमारियों से लेकर आपका जीवन कितना लंबा होगा, ये आपके वर्क-लोड और वर्क-कल्चर पर निर्भर करता है.
अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) डॉ. एडुआर्डो सांचेज़ कहते हैं,
"हमारा स्वास्थ्य हर जगह से तय होता है. काम कर रहा अमेरिका का एक औसत आदमी अपने जागने के घंटों का सबसे ज़्यादा समय दफ़्तर में बिताता है, काम करते हुए बिताता है. काम पर लंबे समय तक रहने से उस समय में भी कटौती होती है, जिनसे आपका स्वास्थ्य अच्छा होता है. मसलन सोना, एक्सरसाइज करना, खाना बनाना, दोस्तों-परिवार के साथ समय ख़र्चना, वग़ैरह."
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यूनिवर्सिटी ऑफ़ नॉर्थ कैरोलिना के कोलैबोरेटिव फ़ॉर रिसर्च ऑन वर्क ऐंड हेल्थ की निदेशक लौरा लिनन भी बताती हैं कि स्वास्थ्य समस्याओं का एक बड़ा दोषी है, काम से जुड़ा तनाव. अनिद्रा, दिल का रोग, गैस की समस्याएं और बाक़ी क्रोनिक बीमारियां बढ़ सकती हैं. और जब अचानक से वर्क-प्लेस बदले, तो ये स्थिति बदतर हो जाती है. लिनन का कहना है,
उपाय क्या?"तनाव से निपटने के लिए कई स्ट्रैटजी और कार्यक्रम करवाए जा सकते हैं. लेकिन अगर कर्मचारियों को ऐसे माहौल में रखा जाए, जहां काम का लोड नियंत्रण से बाहर है, निर्धारित घंटों का पालन न हो, टॉक्सिक सुपरवाइज़र हो, तो कोई भी स्ट्रैटजी काम नहीं आएगी."
इश्क़ तो ला-इलाज है. लेकिन रिसर्च में तनाव के कुछ उपाय बताए गए हैं. 'नारायण मूर्ति स्कूल ऑफ़ थॉट' वाले इससे आहत हो सकते हैं.
- दफ़्तर में आपकी बात सुनी जाए और काम सार्थक लगे. अलग-अलग अध्ययनों से पता चलता है कि जिन लोगों को अपना काम सार्थक लगता है, उनका स्वास्थ्य भी बेहतर होता है (जब तक वो काम की अति न कर दें). इसके उलट, वर्क-प्लेस में स्वायत्तता न हो तो काम करने वाला खिन्न हो जाता है, बर्न-आउट होने का जोख़िम बढ़ जाता है. ये तो हक़ीक़त है कि कुछ लोगों को दूसरों के मुक़ाबले ज़्यादा काम मिलेगा. लेकिन बहुत व्यवस्थित सेटिंग में भी बॉस अपने कर्मचारियों से बात कर उनके फ़ीडबैक से ये तय कर सकता है कि शिफ़्ट और ब्रेक कैसे बेहतर बांटे जाएं.
- अच्छे काम की प्रशंसा होनी चाहिए. शोध से पता चलता है कि किसी के काम की तारीफ़ बोल कर भी हो, तो वो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. हाल के एक अध्ययन में निकला है कि जिन लोगों को लगता है कि उन्होंने बहुत काम किया, लेकिन उन्हें इसके लिए पर्याप्त ड्यू नहीं मिला, उनमें हृदय रोग का ख़तरा 50 फ़ीसद ज़्यादा था.
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- वर्क कल्चर लचीला हो. 2023 में छपे एक रिसर्च पेपर के लिए हार्वर्ड के टी.एच. चैन स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ की सामाजिक महामारी विज्ञानी लिसा बर्कमैन और उनके सहयोगियों ने दो अलग-अलग दफ़्तरों का अध्ययन किया: एक IT कंपनी और एक हेल्थ-केयर कंपनी. दोनों में मैनेजर्स को इस बात की ट्रेनिंग दी गई कि वर्क-लाइफ़ बैलेंस पर कैसे काम करें. शोध करने वालों ने पाया कि ट्रेनिंग के बाद से इम्पलॉइज़ की गुणवत्ता, मेंटल हेल्थ और दिल का स्वास्थ्य सुधरे.
- 4 दिन का हफ़्ता. अभी भारत में ज़्यादातर बड़े कॉर्पोरेट्स में 5 दिन का हफ़्ता चलता है, कुछ जगहों पर 6 दिन का भी. कई विकसित देशों और बड़े मल्टीनैशनल ने प्रयोग के तौर पर 4 दिन का हफ़्ता चलाया. उनके प्रयोग से पता चला है कि चार-दिन के हफ़्ते की वजह से काम करने वालों की नींद, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार हुआ. हर उद्योग के लिए चार दिन का हफ़्ता संभव नहीं है. लेकिन प्रोडक्टिविटी पर असर डाले बिना कैसे इस तक पहुंचा जा सकता है, इस पर बहस जारी है.
मुद्दे की बात. इम्प्लॉइज़ से ज़्यादा बॉस लोगों को ये बार-बार पढ़ने की ज़रूरत है: आपके मेंटल हेल्थ, दिल की बीमारियों से लेकर आपका जीवन कितना लंबा होगा, ये आपके वर्क-लोड और वर्क-कल्चर पर निर्भर करता है.