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नहीं रहे इतिहासकार डीएन झा जिन्होंने कहा था, 'प्राचीन काल में हिंदू गोमांस खाते थे'

डीएन झा की बातें कट्टरवादी लोगों को बुरी क्यों लगती है?

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इतिहासकार डी एन झा ने अपनी रिसर्च में गोमांस, हिंदु धर्म के जातीय भेदभाव और अयोध्या में राम मंदिर समेत कई मसलों पर अपनी शोधपरक रिपोर्ट पेश की थी.

यदि आप देश की किसी भी यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में चले जाएं और वहां के छात्रों और प्रोफेसरों से प्राचीन और मध्यकालीन भारत पर बात करें तो उन सब की जुबान पर एक नाम जरूर आएगा. वह नाम है द्विजेन्द्र नारायण झा का. शार्ट में कहें तो डीएन झा. आइएएस और आइपीएस बनने के लिए UPSC की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए तो डीएन झा की किताबें भगवतगीता के समान होती हैं.

लेकिन आज हम इनकी चर्चा क्यों कर रहे हैं? इसलिए कर रहे हैं क्योंकि गुरुवार 4 फरवरी को 81 वर्ष की अवस्था में प्रोफेसर डीएन झा का निधन हो गया. वही डीएन झा जो अक्सर कहा करते थे,

"उच्च वर्ग के लिए इतिहास का हर दौर स्वर्ण युग रहा है लेकिन आम लोगों के लिए कोई भी काल स्वर्ण युग नहीं रहा. जनता का सच्चा स्वर्ण युग अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में है."

डीएन झा मूल रूप से बिहार के दरभंगा जिले के रहनेवाले थे. उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई दरभंगा में हुई और बाद में वे कोलकाता चले गए. कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से उन्होंने इतिहास में बी.ए. किया और फिर पटना यूनिवर्सिटी से एम.ए. किया. इसके बाद वे दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे. बाद में वे जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में पढ़ाने चले गए. इन्हीं दोनों यूनिवर्सिटीज में पढ़ाने के दौरान उनकी ख्याति बढ़ती चली गई और वे इंडियन हिस्टोरियंस की लिस्ट में एक बड़ा नाम बन गए. उनकी ख्याति इसलिए भी बढ़ी क्योंकि वे इतिहास लेखन की विधा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता पर बहुत जोर देते थे. पढ़ने-पढ़ाने के अपने लंबे दौर में उन्होंने कई किताबें लिखीं. उनकी कुछ किताबें जैसे 'Rethinking Hindu Identity', 'The myth of holy Cow', 'Holy Cow: Beef in Indian Dietary Traditions', 'Feudal Social Formation in Early India', 'Mind Over Matter : Essays On Medival India' और प्राचीन भारत प्रमुख हैं.
डी एन झा के शोध अक्सर कट्टरवादी संगठनों को असहज करते रहे हैं.
डीएन झा के शोध अक्सर कट्टरवादी संगठनों को असहज करते रहे हैं.

आज हम उनके ऐसे ही कुछ इतिहास से जुड़े हुए शोधों पर चर्चा करते हैं. हिंदू गोमांस खाते थे

हिंदू गोमांस खाते थे. इन बातों को कहने वाले डीएन झा के तमाम शोध और रिसर्च पेपर प्राचीन और मध्यकालीन भारत के संबंध में रहे. इनकी कही और लिखी कई तथ्यपरक बातों से 'राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के ठेकेदारों' को बड़ी दिक्कत होती थी. 2 दशक पहले उनकी एक किताब आई थी. किताब का नाम था 'द मिथ ऑफ होली काउ'. इस किताब में उन्होंने बहुत ही तथ्यात्मक ढंग से बताया है कि प्राचीन काल में हिंदू और ब्राह्मण भी गाय का मांस खाते थे.  बकौल डी एन झा, ॠगवैदिक काल में यहां के समाज में गोमांस खाने का चलन था. आर्य लोग भी गोमांस खाते थे. ब्राह्मणवादी यज्ञों में गाय की बलि दी जाती थी. लेकिन उत्तर वैदिक काल में जब पशुधन की कमी होने लगी तब गाय को माता कहकर प्रचारित किया जाना शुरू हुआ और गोहत्या में कमी आई.


बौद्ध धर्म को ब्राह्मणों ने भगाया

डीएन झा का मानना था कि 'ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म के बीच की स्थायी दुश्मनी की झलक हमें दोनों ही धर्मों के ग्रंथों में मिलती है. इसके अलावा कई पुरातात्विक सबूत भी इस दुश्मनी की तरफ़ इशारा करते हैं, जो हमें ये बताते हैं कि किस तरह बौद्ध धर्म की इमारतों को ढहाया गया और उन पर क़ब्ज़ा कर लिया गया. बौद्ध धर्म के भारत से लगभग खत्म होने की वजह ब्राह्मणों का उनके खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाना रहा. ब्राह्मणों के इस रवैये को देखते हुए हिंदू धर्म को सहिष्णुता में विश्वास रखने वाला धर्म नहीं माना जा सकता. आज के दौर में भी दलितों और ख़ास तौर से बौद्ध धर्म को अपना चुके दलितों के साथ जो दुश्मनी निभाई जा रही है, उसकी जड़ें हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था में हैं."


डी एन झा लंबे समय तक JNU में हिस्ट्री के प्रोफेसर रहे.
डीएन झा लंबे समय तक JNU में हिस्ट्री के प्रोफेसर रहे.
प्राचीन भारत में कोई स्वर्ण काल (Golden era) नहीं था

डीएन झा इतिहासकारों के उस तथ्य को स्वीकार नहीं करते थे कि प्राचीन भारत में (खासकर गुप्त काल में) कोई गोल्डन एरा जैसी बात थी. इतिहासकारों का एक धड़ा गुप्त वंश के शासनकाल को स्वर्ण काल मानता आया है और उस दौर को राज्य के निवासियों के लिए अत्यंत सुख और संपन्नता का दौर बताता रहा है. लेकिन डीएन झा इसके ठीक उलट सोचते थे. उनका मानना था कि,


"ऐतिहासिक साक्ष्य ये कहते हैं कि भारतीय इतिहास में कोई स्वर्ण युग नहीं था. प्राचीन काल को हम सामाजिक सद्भाव और संपन्नता का दौर नहीं मान सकते. इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था बहुत सख़्त थी. गैर-ब्राह्मणों पर सामाजिक, क़ानूनी और आर्थिक रूप से पंगु बनाने वाली कई तरह की बंदिशें लगाई जाती थीं. ख़ास तौर पर शूद्र या अछूत समझे जाने वाले लोगों के साथ बहुत भेदभावपूर्ण व्यवहार होता था."

सल्तनत काल को बहुत ही गलत तरीके से पेश किया गया

डीएन झा ने मध्यकालीन भारत (Mediaval era) पर भी काफ़ी कुछ लिखा है. वे लिखते हैं कि,


"सल्तनत काल के मुस्लिम शासकों को हमेशा गलत ढंग से पेश करना एक फैशन बन गया है. गलत ढंग से मुस्लिम शासकों और मुसलमानों को पेश किए जाने का काम 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ और यह आज तक अनवरत रूप से जारी है. सल्तनत और मुगल काल में हिंदुओं और मुसलमानों में कोई टकराव नहीं था. इन दोनों धर्मों को मानने वालों के बीच साम्राज्यवाद के प्रसार यानी ब्रिटिश काल के दौरान टकराव की घटनाएं होने लगीं. सल्तनत और मुगल काल के दौरान तो हिंदू संस्कृति और कला को ख़ूब बढ़ावा दिया गया."

डी एन झा ने 3 अन्य इतिहासकारों के साथ मिलकर अयोध्या मामले पर भी शोध किया था.
डीएन झा ने 3 अन्य इतिहासकारों के साथ मिलकर अयोध्या मामले पर भी शोध किया था.
अयोध्या के विवादित ढांचे के नीचे कोई राम मंदिर नहीं था

फरवरी 1986 में अयोध्या के राम मंदिर बाबरी मस्जिद के विवादित परिसर का ताला खोले जाने के साथ ही देश में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण शुरू हो गया. मंदिर-मस्जिद के इर्द-गिर्द राजनीति होने लगी और इसका परिणाम यह हुआ कि व्यापक पैमाने पर हिंसा शुरू हो गई. पूरे देश का माहौल खराब होने लगा. ऐसे में प्राचीन इतिहास के चार जानकार लोगों ने विवादित परिसर का अध्ययन शुरू किया. ये चारों हिस्टोरियन थे - सूरज भान, अतहर अली, रामशरण शर्मा और डीएन झा. चारों ने मिलकर इस मुद्दे पर खूब स्टडी की, साक्ष्य जुटाए और रिपोर्ट तैयार की.

इस रिपोर्ट को Ram janmbhumu - Babri masjid : A historian report to the nation कहा गया. इस रिपोर्ट को तैयार करने के दौरान चारों विद्वानों ने तमाम उपलब्ध साक्ष्यों (evidences) की अपने स्तर पर जांच की और उसमें पाया कि विवादित परिसर के स्थान पर पहले राम मंदिर या राम जन्मस्थान होने का कोई प्रमाण नहीं है. 13 मई 1991 को इस रिपोर्ट की काॅपी तत्कालीन गृह राज्य मंत्री सुबोधकांत सहाय को सौंपी गई. फिर उसके बाद सरकार बदल गई और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद मामला पूरी तरह कोर्ट के जिम्मे चला गया. इसके बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) ने अपने स्तर पर जांच की और विवादित परिसर के नीचे से प्राचीन हिंदू स्थापत्य कला के सबूत मिलने की बात कही. ASI की रिपोर्ट के बाद यह धारणा मजबूत होने लगी कि वहां कोई प्राचीन मंदिर था. 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले की सुनवाई चल रही थी तब कोर्ट में इन इतिहासकारों की रिपोर्ट भी रखी गई जिसे कोर्ट ने इतिहासकारों की निजी राय बताकर खारिज कर दिया और ASI की रिपोर्ट को प्राथमिकता देते हुए राम मंदिर के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए डीएन झा ने तब कहा था,

"इस डिसीजन में हिंदुओं की आस्था को महत्व दिया गया है. साथ ही डिसीजन का आधार भी ASI की रिपोर्ट को बनाया गया है जो पूरी तरह से गलत और वास्तविकता से परे है."

इस प्रकार की बेबाक राय रखने वाले डीएन झा अब नहीं रहे. लेकिन उनकी किताबें और शोध भविष्य में भी छात्रों और इतिहास में रूचि रखने वालों का मार्गदर्शन करते रहेंगे.